Saturday, 22 August 2020

रामायण, महाभारत, सनातन काल, आर्यावर्त।

बौद्ध के दशरथ जातक कथा मे भी राम है, बाल्मीकि रामायण मे भी राम है तो क्या बाल्मीकि रामायण बुद्ध से पुराना हो सकता है? बाल्मीकि रामायण का उत्खनन प्रमाण शून्य है, फिर भी आप उसके कंटेंट देखे तो भी आप अनुमान लगा सकते है की वो काफी बाद की रचना है, लिपि के अनुसार तो वह 1000 सालो के अंदर सिकुड़ जाती है, मैनुस्क्रिप्ट के अनुसार तो 500 सालो के अंदर और कंटेंट के हिसाब से भी यह काफ़ी नई है।

उदाहरण के तौर पे, बाल्मीकि रामायण मे अयोध्या कांड सर्ग 109 श्लोक 34 मे तथागत  बुद्ध और उनके अनुयायीयों को चोर इत्यादि कह के दंड देने की बात कही है  (रेफ़्रेन्स : पेज 526, श्रीमद्बाल्मीकी रामायण गीताप्रेस गोरखपुर ) साइंस जर्नी की वीडियो 85, 66 देखे,  क्या कोई किताब बुद्ध का वर्णन करे और वो बुद्ध से पुरानी हो सकती है? 

इसके आलावा किष्किन्धाकांड के 43 सर्ग के  11, 12 श्लोक मे साफ तौर पे शक, यवन, म्लेच्छों का वर्णन है यहाँ मलेच्छ विदेशी आक्रांताओ के साथ साथ मुस्लिम के लिए भी इस्तेमाल किया जाता रहा है (रेफ़्रेन्स : पेज 880, श्रीमद्बाल्मीकी रामायण गीताप्रेस गोरखपुर), क्या कोई किताब शक, यवन, मलेच्छ, इत्यादि का वर्णन  करे तो क्या उसका लेखक उससे ज्यादा पुरानी बात जानता होगा? यानी ज्यादा से ज्यादा वहा तक जानता होगा।


अथार्त यह किताब काफी बाद मे और हजार वर्ष पुरानी देवनागरी स्क्रिप्ट पे मुस्लिम काल खंड मे ही रचित है। और सही मायनो मे कहा जाय तो बौद्ध की जातक कथा और जैन रामायण से कॉपीपेस्ट और तरोड मरोड़ कर बाल्मीकि रामायण की रचना हुई है।

■■■

वाल्मीकि रामायण में जब हमुमान लंका में सीता जी की खोज करते हुए जाते हैं तो वो लंका का वैभव देख आश्चर्य करते हुए कहते हैं -

 स्वर्गोस्य देवलोकाsयमिन्द्रस्येयं पूरी भवते 
( वाल्मीकि रामायण, सुंदर कांड ,सर्ग -9 श्लोक 31)
हमुमान लंका को स्वर्ग के समान कहते, इंद्रलोक के जैसा वैभवशाली कह आश्चर्यचकित हो उठते हैं।

' भूमिगृहांशचैत्यगृहान उत्पतन निपतंश्चापि'
( सुंदर कांड , सर्ग 12, श्लोक 15
अर्थात हनुमान भूमिगृहों और चैत्यों पर उछलते कूदते हुए जाते हैं ।

चैत्य शब्द वाल्मीकि रामायण में बहुत बार आया है , अयोध्याकाण्ड में ही कम से कम तीन बार आ गया है।

अब जानिए चैत्य शब्द का अर्थ-
चैत्य- बुद्ध मंदिर ( संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पेज 440)
चैत्य- चैत्यमायतने बुद्ध बिम्बे ( मेडिनिकोष)
अर्थात चैत्य ,बौद्ध मंदिर को कहते हैं।

कहने का अर्थ हुआ की लंका निश्चय ही बौद्ध नगरी रही होगी जंहा बौद्ध चैत्य बहुतायत थे ।

इसके अलावा , अयोध्या कांड सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में कहा गया है-

'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् '

जिसका अर्थ गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार दिया है- जिस प्रकार चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध ( बौद्ध मतावलंबी ) भी।

इसके अलावा 15 वीं शताब्दी के गोविंराजकृत व्याख्या में इस श्लोक में आये शब्द 'तथागत ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं ' तथागत बुद्धतुल्यम'
अर्थात तथागत का अर्थ बुद्ध जैसा ।

सुरेंद्र कुमार शर्मा (अज्ञात) पुरातत्व वैज्ञानिक ई.बी. कॉडवेल का हवाला देके बताते हैं कि सुंदर कांड , सर्ग 9 से 13 तक में रावण के अंतःपुर के रात्रिकालीन दृश्य का चित्रण है ,जो अश्वघोष रचित ' बुद्धचरितम ( 5/57-61) के गोतम के अंत पुर के दृश्य का अनुकरण है जो की बुद्ध आख्यान का आवश्यक अंग है जबकि वाल्मीकि रामायण का अनावश्यक ।

रामायण में छेद वाली कुल्हाड़ी का जिक्र है, प्रसिद्ध पुरातत्व वैज्ञानिक डाक्टर हँसमुख धीरजलाल सांकलिया ने निष्कर्ष निकाला है कि ईसा पूर्व 300 से 500 से पहले भारत में छेद वाली कुल्हाड़ी का प्रयोग नहीं होता था।

■■■



मार्कण्डेय से सुनी कथा के आधार पर -
भीष्म पितामह ने शुकदेव की शिक्षा - दीक्षा ,तप आदि का उल्लेख किया और अंत में बताया कि -

अन्तर्हितः प्रभावंत दर्शयित्वा शुकस्तदा । 
गुणान संत्यज्य शब्दानीन पदमभ्यगमत् परम् । । 26 । ।
 इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ । 
विस्तरेण समाख्याता यन्मां त्वं परिपच्छसि । । 40 । । 
  
अर्थ : अपना प्रभाव दिखाकर शुकदेवजी शरीर त्यागकर परमपद ( मृत्यु ) को प्राप्त हुए युधिष्ठिर ! तुम जिनके विषय में मुझसे पूछ रहे थे ,उन शुकदेवजी के जन्म और मृत्यु की कथा मैंने तुम्हें विस्तार से सुना दी " 

यदि भीष्म पितामह की बात सत्य है , तो फिर शुकदेव ने परीक्षित को यह कथा कैसे सुनाई ? भीष्म के कथनानुसार तो शुकदेव पहले ही मर चुके थे और यदि शुकदेव ने परीक्षित को कथा सुनाई है ,तो भीष्म पितामह यहां युधिष्ठिर को झूठ बोलकर गुमराह कर रहे हैं कौन सच्चा है ,कौन झूठा है ? 

वास्तविकता तो यह है कि तथागत बुद्ध के मुकाबले में खड़ा करने के लिए महाभारत में कृष्ण को गढ़ना पड़ा और त्रिपिटक के मुकाबले मे महाभारत लिखना पड़ा।

बौद्धों के प्रसिद्ध निकाय ' दीघनिकाय ' में पंचशिख का नाम आता है, दीघनिकाय में आए पंचशिख जो तथागत बुद्ध के समकालीन थे , उनका वर्णन महाभारत में भीष्म पितामह के मुखारिवंद से किया गया है ।

यही नहीं संक्षिप्त महाभारत , द्वितीय खंड के पृष्ठ 437 पर सांख्य एवं योग का अंतर भी बताया गया है , जो यह सिद्ध करता है यह यह सांख्य एवं योग दर्शन के बाद में रचा गया।

किशा गौतमी की कहानी जिसमें तथागत ने उसके मृत बालक को जीवित करने के लिए एक मुट्ठी सरसो मंगाई थी , महाभारत के पृष्ठ 489 पर वर्णित है ,जिसे भीष्म ने सुनाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि महाभारत , जिसमें संग्रह ही संग्रह है ;तथागत बुद्ध के त्रिपिटक से मुकाबला करने के लिए की गई रचना है, त्रिपिटक के पांच निकायों में एक खद्दकनिकाय के क्रमसंख्या नौ में थेरीगाथाओं का वर्णन आता है इस थेरीगाथा ' के दसवां वर्ग में क्रमसंख्या 63 पर ' किशा गोतमी थेरीगाथा ' का वर्णन आता है।

आज मेरी पीड़ा का तीर निकल गया है,मैंने सभी प्रकार के बोझों ( कष्टों ) को दूर फेंक दिया है,अब मेरे सब कर्त्तव्य पूरे हो चुके हैं,अब मेरा चित्त सभी बंधनों से विमुक्त हो गया है - यह मैं किशा गोतमी कहती हूं,संक्षेप में किशा गोतमी की यही कहानी है,जिसे भीष्म ने सुनाया था,जिसे इतिहास का ज्ञान है ,वह तुरंत समझ जाएगा कि महाभारत कब लिखा गया ?.

यधिष्ठिर के यज्ञ में जो घोड़ा छोड़ा गया था ,उसके साथ -साथ चलने वाली सेना के वश में “ पाण्ड्य , द्रविड़ , उण्ड , केरल , आंध्र ताल वन ,कलिंग , उष्ट्रकर्णिक आटवीपुरी और आक्रमणकारी यवनों की राजधानियां भी हो गई,सहदेव के दूत के द्वारा लंकाधिपति के पास संदेश भेजा और विभीषण ने बड़े प्रेम से उसे स्वीकार कर लिया । सरस्वती तटवर्ती शूद्रों और आभीरों ( = अहीरों ) को वश में किया,पश्चिम के रामठ ,हार और हूण आदि राजा नकुल की आज्ञामात्र से उनके आधीन हो गए,म्लेच्छ ,पहल्व ,बर्बर किरात , यवन और शक राजाओं को वश में किया.

महाभारत में आए यवन ,शक , हूण -आदि शब्द स्पष्ट बता रहे हैं कि महाभारत की रचना कब हुई तथागत बुद्ध ने वैदिक काल के विरुद्ध विशेष रूप से तीन क्रांतियां की थीं -
1 .वैदिक हिंसामयी यज्ञों का विरोध और उनके स्थान पर अहिंसा की स्थापना किन्तु' अहिंसा परमो धर्मः ' की नहीं,यह सिद्धांत महावीर स्वामी का है.
2 . वैदिक वर्णव्यवस्था का खंडन और उसके स्थान पर समता ( = समानता ) की स्थापना .
3 . बाहरी शुद्धि की अपेक्षा आंतरिक शुद्धि अनिवार्य अर्थात तन की शुद्धि , मन की शुद्धि तथा वाणी की शुद्धि से परम पद ' निर्वाण ' की प्राप्ति “ पिछली पीढ़ी के पश्चिमी भारत के भारत के प्रसिद्ध विद्वान दिवंगत रायबहादुर चिंतामण राव वैद्य ने , जिन पर कि हम बौद्धों के पक्ष में होने के लिए तनिक भी आक्षेप नहीं कर सकते ,महाभारत के आदि पर्व पर की गई अपनी आलोचना में स्पष्ट तौर पर माना है,कि न केवल भारतवर्ष बल्कि संपूर्ण विश्व बौद्ध धर्म के प्रति दो बातों के लिए ऋणी है,एक तो पशुवध वाले यज्ञों के खिलाफ बौद्ध धर्म ने सफल और प्रभावपूर्ण आंदोलन चलाया , दूसरा यह कि बौद्ध धर्म के मन , वचन और कर्म की पवित्रता पर अत्यधिक जोर दिया,जन समुदाय में बौद्ध धर्म के प्रचार में ये बातें सहायक बनी, इस प्रकार के स्पष्ट चिन्ह हमें महाभारत में मिलते हैं इसमें हम एक साथ ही दोनों ढंग के परिच्छेद पाते हैं-
श्रीमद्भागवत समीक्षा-लेखक श्रीराम शर्मा-पृष्ठ-15-से 18 तक.
दीघनिकाय-पृष्ठ-181-182.
संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड-पृष्ठ-364-गीता प्रेस गोरखपुर.
संक्षिप्त महाभारत-पृष्ठ-144-145.
  भारत की गुलामी में गीता की भूमिका-पृष्ठ-21-22-23-24.


■■■


क्या बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बाद जन्मा है? 

संस्कृत व्याकरण के विद्वान् पतंजली 150 BCE में अपने ग्रन्थ महाभाष्य में लिखते हैं: “आर्यों की भूमि कौनसी है? यह सरस्वती नदी से पूर्व में है.

कालक वन के पश्चिम हिमालय के दक्षिण और परियत्र पर्वत  के उत्तर में” इसका सीधा अर्थ है कि पतंजली के समय में आर्यावर्त (आर्यभूमि) की एक पूर्वी सीमा थी जिसके परे कोई अन्य सभ्यता या धर्म था. 

पतंजली के चार शताब्दी बाद मानव धर्म शास्त्र में मनु लिखते हैं  “हिमालय और विन्ध्य के बीच प्रयाग पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र के बीच आर्यावर्त भूमि है”  

इसका अर्थ हुआ कि चार शताब्दी बादें पतंजली के लिए जो प्रदेश पूर्व में था वह मनु के लिए मध्यदेश बन जाता है. अर्थात यह क्षेत्र आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है.

आर्यभूमि के प्रसार के लिए रास्ता अग्नि और यग्य द्वारा बनाया गया इसका अर्थ हुआ ये लोग जंगल जलाते हुए और युद्ध करते हुए आगे बढ़े.

मतलब साफ़ है, मनु तक आते आते वह पूर्वी प्रदेश जो आर्यों का नहीं बल्कि असुरों का था वह आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है. पतंजली वर्णित कालक वन मनु द्वारा वर्णित प्रयाग या वर्तमान इलाहाबाद के निकट है.
 
पतंजली महाभाष्य के ही समान बाद के बौधायन धर्म सूत्र (१.२.९) और वशिष्ठ धर्म सूत्र (१.८-१२) कहते हैं कि गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र आर्यावर्त है. 

अन्य स्त्रोत से शतपथ ब्राह्मण (१३.८.१.५) कहता है कि पूर्व (बिहार की ओर) असुर जन रहते हैं (असुरायः प्राच्यः), ये लोग बड़े बड़े गोल आकार के धर्मस्थल बनाते हैं. 

बाद में महाभारत में उल्लेख है कि इश्वर और वेद को न मानने वाले और गोल गुंबद बनाने वाले असुर अभी भी बने हुए हैं. आगे महाभारत ने खराब समय के बारे में लिखा है ऐसे समय में शूद्र लोग द्विजों की सेवा करना छोड़ देंगे. 

इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मणों या आर्यों का और उनके धर्म का प्रसार पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है. शतपथ ब्राह्मण की मानें तो पूर्व की तरफ असुर रहते थे जो सर घुटाये घूमते हैं और गोल गुंबद की तरह धर्मस्थल बनाते थे. 

ये गुम्बद असल में बौद्ध स्तूप हैं. ऐसी ही रचनाएं जैनों और आजीवकों की भी होती थीं. ये बौद्ध और जैन अहिंसक थे, युद्ध की भाषा में दक्ष नहीं थे. 

बाद में महाभारत काल तक असुर शूद्र बन चुके थें अर्थात आर्यों के गुलाम हो चुके थे और उनका बौद्ध धर्म क्षीण हो चुका था. 

अब गहराई से सोचिये, बौद्ध धर्म ब्राह्मण या आर्य आगमन से पहले भी अपने पूर्ण विक्सित रूप में था. इसका मतलब हुआ कि बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म से न केवल पुराना है बल्कि पूरा ब्राह्मण धर्म बौद्ध धर्म के खिलाफ एक प्रतिक्रान्ति की तरह बुना गया है. 

यहाँ अंबेडकर एकदम सही साबित होते हैं.

इससे यह भी सिद्ध होता है कि गौतम बुद्ध अकेले नहीं हैं, जिस तरह वर्धमान महावीर के पहले तेईस तीर्थंकरों की एक लंबी श्रंखला रही है उसी तरह गौतम बुद्ध के पहले भी अन्य बुद्धों की एक लंबी श्रंखला है. 

जैनों ने हिन्दू ब्राह्मणों का अधिपत्य स्वीकार कर लिया. जैन मंदिरों और कर्मकांडों में ब्राह्मणों को मुख्य पुजारी की भूमिका बनाकर उनकी सत्ता स्वीकार कर ली इसलिए महावीर सहित अन्य तीर्थंकरों का इतिहास कुछ हद तक बचा रहा. 

लेकिन बौद्धों ने ब्राह्मण आधिपत्य स्वीकार न किया इसलिए वे समाप्त कर दिए गये, उनका इतिहास मिटा दिया गया. 

लेकिन अब बुद्ध और बौद्ध इतिहास फिर से प्रकट होकर रहेगा, इस भारत को दुबारा सभ्य बनाने के लिए बुद्ध लौट रहे हैं.


◆◆◆

क्या बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बाद जन्मा है? 

संस्कृत व्याकरण के विद्वान् पतंजली 150 BCE में अपने ग्रन्थ महाभाष्य में लिखते हैं: “आर्यों की भूमि कौनसी है? यह सरस्वती नदी से पूर्व में है.

कालक वन के पश्चिम हिमालय के दक्षिण और परियत्र पर्वत  के उत्तर में” इसका सीधा अर्थ है कि पतंजली के समय में आर्यावर्त (आर्यभूमि) की एक पूर्वी सीमा थी जिसके परे कोई अन्य सभ्यता या धर्म था. 

पतंजली के चार शताब्दी बाद मानव धर्म शास्त्र में मनु लिखते हैं  “हिमालय और विन्ध्य के बीच प्रयाग पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र के बीच आर्यावर्त भूमि है”  

इसका अर्थ हुआ कि चार शताब्दी बादें पतंजली के लिए जो प्रदेश पूर्व में था वह मनु के लिए मध्यदेश बन जाता है. अर्थात यह क्षेत्र आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है.

आर्यभूमि के प्रसार के लिए रास्ता अग्नि और यग्य द्वारा बनाया गया इसका अर्थ हुआ ये लोग जंगल जलाते हुए और युद्ध करते हुए आगे बढ़े.

मतलब साफ़ है, मनु तक आते आते वह पूर्वी प्रदेश जो आर्यों का नहीं बल्कि असुरों का था वह आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है. पतंजली वर्णित कालक वन मनु द्वारा वर्णित प्रयाग या वर्तमान इलाहाबाद के निकट है.
 
पतंजली महाभाष्य के ही समान बाद के बौधायन धर्म सूत्र (१.२.९) और वशिष्ठ धर्म सूत्र (१.८-१२) कहते हैं कि गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र आर्यावर्त है. 

अन्य स्त्रोत से शतपथ ब्राह्मण (१३.८.१.५) कहता है कि पूर्व (बिहार की ओर) असुर जन रहते हैं (असुरायः प्राच्यः), ये लोग बड़े बड़े गोल आकार के धर्मस्थल बनाते हैं. 

बाद में महाभारत में उल्लेख है कि इश्वर और वेद को न मानने वाले और गोल गुंबद बनाने वाले असुर अभी भी बने हुए हैं. आगे महाभारत ने खराब समय के बारे में लिखा है ऐसे समय में शूद्र लोग द्विजों की सेवा करना छोड़ देंगे. 

इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मणों या आर्यों का और उनके धर्म का प्रसार पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है. शतपथ ब्राह्मण की मानें तो पूर्व की तरफ असुर रहते थे जो सर घुटाये घूमते हैं और गोल गुंबद की तरह धर्मस्थल बनाते थे. 

ये गुम्बद असल में बौद्ध स्तूप हैं. ऐसी ही रचनाएं जैनों और आजीवकों की भी होती थीं. ये बौद्ध और जैन अहिंसक थे, युद्ध की भाषा में दक्ष नहीं थे. 

बाद में महाभारत काल तक असुर शूद्र बन चुके थें अर्थात आर्यों के गुलाम हो चुके थे और उनका बौद्ध धर्म क्षीण हो चुका था. 

No comments:

Post a Comment

मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...