Friday, 28 August 2020

महामृत्युंजय मंत्र, शिव भस्मकड़ा, शिव।


महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता का नाम मृत्युंजय है जिन्होंने इस मंत्र की शक्ति से मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी। ये शिव उपासना का मंत्र है जो कि वेदों में दो जगह वर्णित है पहला वर्णन मिलता है ॠग्वेद के सप्तम मंडल में 59 वें सूक्त के १२ वें श्लोक में जिसे सभी विद्वान प्रचारित करते हैं और दूसरा वर्णन मिलता है यजुर्वेद के अध्याय तीन में ६० वें श्लोक के रूप में अंकित है जो कि पूरा श्लोक है, लोग प्रचारित नहीं करते हैं।

यजुर्वेद के अनुसार इस मंत्र की पहली लाइन पुरुष के लिए है उसे इसका नियमित जाप करना चाहिए। मंत्र की पहली लाइन है जो कि ॠग्वेद में भी वर्णित है जिसका अर्थ है:

“त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनं
उर्वारुकमिव बंधनान मृत्योर्मोक्षिय मामृतात।“
त्रयंबकं (तीन नेत्रों अथवा तीन दृष्टि वाले महादेव का)
यजामहे (हम यजन करते हैं जो)
सुगंधिं (सुगंधयुक्त व)
पुष्टिवर्धनं (ताकत को बढ़ाने वाले हैं वे)
उर्वारुकमिव (ककड़ी के फल के समान)
बंधनान (बंधन से)
मृत्योर्मोक्षिय (मृत्यु से मुक्त)
मा अमृतात: (अमृत से विमुख ना हो)

भावार्थ:- तीन नेत्रों वाले महादेव का हम यजन करते हैं वे हमारे ककड़ी के फल को सुगंधयुक्त व पुष्टि (ताकत) प्रदान करें, हम इसके अमृत रूपी आनंद से कभी विमुख ना हो, हम मृत्यु के बंधन से मुक्त रहें।


मंत्र की दूसरी लाइन जो कि स्त्रियों के लिए है, ये सिर्फ यजुर्वेद में वर्णित है पहली लाइन और दूसरी लाइन को मिलाकर यजुर्वेद में इसे एक ही मंत्र कहा गया है।

“ त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पतिवेदनं,
उर्वारुकमिव बंधनाढ़ितो मुक्षीय मामुर्त: !!
चलिए इसके भी शब्दों का हिन्दी अर्थ निकालते हैं,
त्रयंबकं (तीन नेत्रों अथवा तीन दृष्टि वाले महादेव का)
यजामहे (हम यजन करते हैं जो)
सुगंधिं (सुगंधयुक्त)
पतिवेदनं (पति को देने वाले)
उर्वारुकमिव (ककड़ी के फल)
बंधनाढ़ितो (बंधन से बांधे रहें)
मुक्षीय (मुक्त)
मामुर्त: / मा अमृत: (अमृत से वियुक्त ना हों)

भावार्थ:- तीन नेत्रों वाले महादेव का हम यजन करते हैं वे हमें सुगंधयुक्त पति को देने वाले बंधन से मुक्त ना करें और हम उनकी ककड़ी के फल के अमृत से वियुक्त ना हों।


अब आप बताएँ ये यौन शक्ति वर्धक मंत्र है या आपके प्राण बचाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र? दोनों लाइनों में स्त्री और पुरुष की स्तुति स्वयं अपनी सत्यता कहती है। वैसे भी शिवलिंग की पूजा का महत्व स्त्री और पुरुषों के लिए यही तो है ?

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"शिवरात्रि के अवसर पर जाने तीन लोक के भगवान शिव की सच्चाई....!
भस्मासुर के कारण भगवान शंकर की जान संकट में"

शंकरजी भगवान होते हुए भी अपनी जान नहीं बचा पाए तो अपने पूजा करने वाले लोगों की जान कैसे बचाएंगे ?

भस्मासुर के कारण भगवान ‍शंकर की जान संकट में आ गई थी।
हालांकि भस्मासुर का नाम पहले भस्मगिरी था पर अपने ही ईष्ट पर हमला करने के कारण उसका नामभस्मासुर पड़ गया।

भस्मासुर एक महापापी असुर था। और पार्वती पर आसक्त था। उसने पार्वती को पाने के लिए भगवान शंकर की घोर तपस्या की और उनसे अमर होने का वरदान मांगा। लेकिन भगवान शंकरने कहा कि तुम कुछ और मांग लो तब भस्मासुर ने शिवजी का भस्मकंडा वरदान में मांगा कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखकर भस्म कहूं वह भस्म हो जाए। भगवान शंकर ने भस्मकड़ा दे दिया।

भस्मासुर ने इस वरदान के मिलते ही कहा, भगवन् क्यों न इस वरदान की शक्ति को परख लिया जाए। तब वहस्वयं शिवजी के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा।
शिवजी भी वहां से भाग लिए। तब विष्णुजी ने पार्वती का रूप धारण कर भस्मासुर को आकर्षित किया। भस्मासुर शिव को भूलकर उस पार्वती के मोहपाश में बंध गया। पार्वती रूपी विष्णु ने भस्मासुर को खुद के साथ नृत्य करने के लिए प्रेरित किया।  भस्मासुर तुरंतही मान गया।नृत्य करते समय भस्मासुर पार्वती की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णुजी ने अपने सिर पर हाथ रखा। शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने उनकी नकल की भस्माकंडा जो की हाथ में पहने हुए था, अपने सर पर ले आया और इतने में विष्णुनी ने भस्म कहा और भस्मासुर अपने ही प्राप्त वरदान से भस्म हो गया।

शिवजी मृत्युंजय नही है। अगर वे अमर होते तो अपने ही साधक से डरकर नही भागते।

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देवों के देव  महादेव  या फिर राजा शंकर का ब्राह्मणीकरण. को जाने ? 

1) राजा शंकर भी एक जबरदस्त गेहरा रहस्य का ऐतिहासीक राज छुपा हुआ हैं । कुटिल आर्यों ( ब्राम्हणों ) के गलत प्रचार के कारण भारतीय मूलनिवासी अपने पुरखों का संघर्ष, रक्षक महापुरुष एवं संस्कृति भुलाकर आर्यों के जाल और षड़यंत्र में  फस गया 

2) महाशिवरात्री :
महा.... शिव..... रात्री..... "महा" याने बड़ा, विशाल. “शिव” याने ( अच्छा, सुन्दर राज्य करने वाला शंकर ही शिव ) शंकर.... रात्र याने दिन के बाद अंधकार समय कलि रात ।
शंकर राजा कृषिप्रधान भारतीय संस्कृति का प्रजाहितकारी राजा ( शंकर राजा थे और उनका साम्राज्य पूरे एशिया पर था । उन्हें तीसरी आँख, चार हाथ नहीं थे । वो सदैव ध्यानस्थ एक जगह नहीं बैठते थे ) घुसबैठ आर्य ( ब्राम्हण ) जम्बूदीप भारत में आकर अपना वैदिक षड़यंत्र फ़ैलाने का लगातार प्रयास करते थे । यह जानकारी प्रशासन के गुप्तचर विभाग द्वारा शंकर राजा को हर वक्त मिलती थी । इसी कारण आर्यों को धर पकड़ कर उनके गलत कार्य पर दंडित किया जाता था । एक बार शंकर और विष्णु आर्य ब्राम्हण के बीच आमने-सामने लडाई हो गई थी, तब विष्णु खून से लतपथ होकर हारकर भाग गया था । शंकर राजा की बलाढ्य शक्ति का उसे पता लग गया था ।

3) शंकर राजा का राजपाट चलाने में देखरेख में रानी गिरिजा ( माता काली ) का बहुत बड़ा सक्रीय योगदान था । जब गिरिजा नहीं रही तो अचानक युवा अवस्था में यह दुखित घटना होने के कारन शंकर राजा कुछ खास दिन एकांतवास में वो वैराग्य पूर्ण अवस्था में रहने लगे ।

4) राजा के व्यक्तिगत जीवन पर नजर रखकर मोका परस्ती आर्यों ने दक्ष नाम के आर्य ब्राम्हण की लड़की पार्वती को हर बात, हर षड़यंत्र की पूर्व प्रशिक्षण देकर शंकर के करीब पहुंचा दिया । राजा शंकर की दूसरी पत्नी बनने का अवसर आर्यपुत्री पार्वती को मिला, जिससे जो नियोजन आर्यों ने तैयार किया था । उसको शत प्रतिशत कामयाबी मिलने वाली थी ।

5) आर्यों ने ही भारत में पावरफुल नशा का स्त्रोत सूरा प्रथम लाया । पार्वती ने अपने साथ शंकर राजा को नशीला बनाया । जिस रात चौरागढ़ पर पूर्व नियोजन के अनुसार शंकर राजा की हत्या की गयी । इस दिन को यादगार के तौर पर राजाप्रिय प्रजा हजारों के तादाद में शंकर राजा का जीवन समंध बातों का उल्लेख करते हुये गीत गायन करते हुये, बिना चप्पल हाथ में एक शस्त्र लेकर ( त्रिशूल, चौरागढ़ ) पर इक्कठा होते थे । यही परंपरा आगे चलती रहीं । एक गीत ऐसा भी... "एक नामक कवड़ा गिरिजा शंकर हर बोला हर हर महादेव ” । त्रिशूल नहीं वो त्रिशुट हैं..... अर्थात क्रूर आर्य क्रूर हुन हुन क्रूर शक इनको निशाना बनाकर सदैव रहना ।

6) शंकर, महादेव, बड़ादेव, भोला शंकर कैसा ???
सारे भारत में आर्यों ( ब्राम्हणों ) का वर्चस्व प्रस्थापित होने के बाद आर्य ब्राम्हणों ने अपने ब्राम्हण व्यक्ति पात्र देव देवी संबोधकर जनमानस में मान्यताकृत करने पर भी मूल भारतीय लोग शंकर राजा का इतिहास का गुणगान करते थे । इस बात से आर्यों का भंडाफोड़ बार बार होता था । इस ड़र के कारण मजबूरन अपने मतलब के लिए शंकर राजा के आर्य ब्राम्हण इंद्र, ब्रम्हा, विष्णु के साथ महेश ( शंकर, बद्यादेव, महादेव ) संबोधक जोड़ दिया । यह इतिहास ई.पूर्व का भाग हैं ।

7) शंकर राजा की अन्य विकृति:

    शंकर राजा को तीसरी आँख नहीं थी । वे तर्कशास्त्र का ज्ञाता थे । इस कारण उन्हीं के ज़माने से भारत में पहाड़ियों पर भी कृषि होती थी । पानी रोक कर साल भर इस्तेमाल होता था । यही भाग शंकर राजा के मुंड़ी में गंगा की धार बताई गयी । चार हाथ नहीं थे, वो कोई भी नशा नहीं करते थे, वो असुर थे । मतलब अ + सुर = सोमरस, दारू, सूरा न पिने वाला वो दूध पीकर शाकाहारी भोजन करते थे । शंकर राजा शरीर से एकदम बलाढ्य, ऊँचा पूरा, प्रभावी, आकर्षक व्यक्ति मतवाला राजा थे । ( शंकर राजा के अन्य प्रचलित नाम कैलाशपति, नीलकंठ, शिव, भोला, जटाधारी )

8) विष कन्या पार्वती की काली करतुत :

आज वर्तमान में एक फोटो प्रचलित हैं, जिसमे शंकर राजा जमीन पर मरे पड़े हैं और उसके ऊपर एक चार हाथ वाली स्त्री खड़ीं हैं । इसी चित्र में गहरा राज छुपा हुआ हैं । विदेशी आर्य ब्राम्हण विरुद्ध मूलनिवासी वीर रक्षक संघर्ष का लेखा-जोखा प्राचीन ग्रंथ शिव महापुराण, विष्णु महापुराण, मार्कंड पुराण, मत्स्य पुराण, इसमें काली के संदर्भ मिलते हैं ।

9) सत्यशोधक संशोधन रिसर्च करने पर सच्चाई इस प्रकार सामने आती हैं । आर्यों ब्राम्हणों के प्रमुख बदमाशों की बदमाशी रचित हत्याकांड़ों की असलियत छुपाने कई बार हर ग्रंथो में कपोकल्पित कहानियाँ, नए नए पात्र जोड़कर आर्यों ने खुद को देव देवी का स्थान देकर इतिहास का विकृतीकरण, ब्राम्हणीकरण किया हैं । 

10) दक्ष आर्य ब्राम्हण की प्रशिक्षित बेटी पार्वती की काली करतूत.....शंकर राजा की हत्या छुपाने झूठी कहावत प्रचलन में लाई गई जो इस प्रकार हैं !

        एक बार राक्षस के रूप में राजा शंकर आया और वो देव लोगों का नरसंहार करने लगा तब स्वर्ग लोक से काली देवी प्रगट हुई और उसने शंकर राक्षस ( रक्षक ) की और साथियों की हत्या कर दी, उनके हाथ और मुंड़ी काटकर अपने बदन पर लटका दिये । यह प्रचलन विकृति पूर्व हैं । इसमें सच्चाई यह हैं, शंकर राजा की स्वजातीय ( नागगोड ) पत्नी गिरिजा मरने के बाद आर्य ब्राम्हणों ने दक्ष आर्य की बेटी राजा शंकर के पीछे लगा दी । जिस उद्देश के लिए पार्वती शंकर के जीवन में आई वह उद्देश जिस काली रात को ( महाशिवरात्र ) आर्य ब्राम्हण पुत्री पार्वती ने न्यायप्रिय कृषिप्रधान गणराज्य का शंकर राजा के साथ काली करतूत की वो ही प्रसंग छुपाने मूलनिवासीयों को हजारों साल सच्चाई से दूर रखने के लिए और एक देवी चार हाथ वाली काली देवी प्रचलन में लाई गयी ।

11) विदेशी आर्य ब्राम्हण टीम और आर्य पुत्री पार्वती का रचित षड़यंत्र, शंकर राजा का हत्याकांड़ पर पर्दा ड़ालने के लिए यह सब किया गया । जिस काली रात को पार्वती ने शंकर राजा की हत्या करने के लिए काली करतूत की वो ही दिन महाशिवरात्र प्रचालन में आया । इस घटना को लक्ष्य बनाकर आर्य ब्राम्हणों ने काली शब्द पकड़कर रखा यह गहरा राज अब हमें गहराई से समझना होगा ।

12) रानी गिरिजा का आर्य विरुद्ध संग्राम:

नाग-गोड़ी संस्कृति का राजा शंकर इनकी पत्नी रानी गिरिजा थी, जिन्हें काली माता ऐसा भी नाम प्रचलित हैं । यह रानी गिरिजा भी महायुद्ध करते निकली और विदेशी आर्यों का नाश किया । यह वीर मूलनिवासीयों ने बड़े सावधानी और अभिमान संस्कृति द्वारा जपा हुआ हैं । काली गिरिजा के चित्र और मूर्ति आज भी देखने को मिलती हैं । रानी गिरिजा के गले में शेंडिधारी विदेशी आर्यों के सरो ( धड़ ) की मालायें ( हार ) और कंबर में विदेशी आर्यों की उंगलियाँ और हाथ सजाये हुये दिखती हैं ।

 13) राणी गिरिजा का खून:

शंकर के विंनती से राणी गिरिजा ( काली ) ने युद्ध बंद किया । विदेशी आर्यों ने युद्ध बंदी ( करार ) के बहाने दिखावा करके नियोजनबद्ध षड़यंत्र रचा । आर्य कन्या पार्वती का विवाह शंकर के साथ रचाया गया । आर्य कन्या पार्वती ने शंकर की मर्जी संपादन करके राणी गिरिजा को अकेले गिराया । आर्यों ने शंकर -गिरिजा पति-पत्नी का गैरसमज करके विकृत बीज पार्वती के माध्यम से बोने की शुरवात की । ताकि आर्यों के षड़यंत्र शंकर पहचान न सकें । इसीलिए मूलनिवासी शंकर को भोला शंकर कहते हैं ।

14) शंकर का खून अर्थात महाशिवरात्रि :

पुराण में समुद्र मंथन की एक कहानी प्रसिद्ध हैं । राक्षस-आर्यों, सूरा-सुरों ने समुद्र मंथन किया, तब मदार पर्वत मथने को आधार बनाया और घुसने के लिए शेष नाग की रस्सी का उपयोग किया । इस कारण पृथ्वी हलने लगी । पृथ्वी पर के मानव भयभीत हुये । लोगों को लगने लगा की अब पृथ्वी का प्रलय निश्चित होगा, तब पृथ्वी को बचाने के लिए विष्णु ने कर्मावतार ( कच्छ याने, कच्छवा ) धारण करके पृथ्वी अपने पीठ पर उठाई । समुद्र मंथन चालू रहने पर उस समुद्र मंथन से 14 रत्न बाहर निकलें । उस रत्न में जहल विष था । इस विष के कारन पृथ्वी का नाश निश्चित था । पृथ्वी को बचाने के लिए वह विष ( जहर ) पीना आवश्यक था । जहर पिने के लिए कोई आर्य देव सामने नहीं आया । तब शिवशंकर ने वह विष पीकरके पृथ्वी को बचाया, ऐसी कहानी प्रचलित हैं ।

15) मूलनिवासीयों को यह सत्यता पता नहीं चले इसलिए ब्राम्हण ऐसी गैरसमज निर्माण करके वास्तविकता को बदल देने का प्रयत्न करते, लेकिन शंकर की विष पीने की सत्यता उन्हें नकारते आया नहीं । विष्णु ब्राम्हण आर्य ने शंकर को गुप्तता से पार्वती के माध्यम से विष दिया होगा या शंकर को विष प्राशन करने की सक्ती की होगी । इन दोनों घटना में से कुछ भी हो, लेकिन इतना मात्र निश्चित हैं की शिवशंकर का विष प्रयोग द्वारा आर्य ने खून किया और उसकी सिहासत अपने गले में घुसा के मूलनिवासी बहुजनों को गुलाम ( दास ) बनाया ।

16) शंकर का नीला शरीर यह जहर के कारण हुआ हैं । यह सत्य हैं, यह सत्यता मूलनिवासीयों के ध्यान में आने न पाये इसीलिए शंकर को ही नीलकंठ बोला गया और प्रजा में ऐसी पहेलियों को जोड़कर साक्षात् तुम्हारा शिवशंकर नीला शरीर धारण करके देव ( भगवान् ) बना ।

17) राजा शंकर का मृतदेह देखने के लिए मूलनिवासीयों ने पचमढ़ी में गर्दी की । भूक प्यास भूलकर मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग शिवजी के शोक दुःख में डूब गए । शंकर के दुःख में मूलनिवासीयों ने गाने गाये । जो आज भी गावं देहातों में गाये जाते हैं । उस समय के महाशिवरात्रि के दिन से शंकरजी के स्मृति में भीड़ इक्कठा होती हैं इस दिन अन्न सेवन न करके उपवास करते हैं । शिवशंकर के गीत गाते-काव्यात्मक शैली के माध्यम से मूलनिवासी शंकर की याद में, शंकर की जीवनी गानों से जीवित रखी हैं ।

18) हमारे मूलनिवासी महापुरुष शंकर का मृत्यु दिन और विदेशी आर्य ब्राम्हणों का विजय दिन महाशिवरात्रि के रूप में आज भी मूलनिवासी त्यौहार त्यो + हार ( तुम्हारी हार ) मना रहे हैं । अपनी कपट निति ध्यान में न आने पाये इसीलिए शंकर को देव बना के प्रजा को पूजने लगाया । शंकरजी की महानता बढ़ाने के लिए ब्राम्हण संपूर्ण विश्व की निर्मिती करता हैं । विष्णु विश्व का पालन-पोषण करता और शंकर यह सृष्टि का देखभाल करता यह कहानी मनुवादियों ( ब्राम्हणों ) ने निर्माण करके और शंकरजी को स्मशान भूमि में बसाया यह देखने को मिलता हैं ।

 19) मूलनिवासी महाशिवरात्रि:

राज सत्ता और धर्म सत्ता की बात को छोड़ कर यदि भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग मानस की बात की जाये तो वह हमेशा लोकसत्ता का हामी रहा हैं । इस लोक सत्ता के जबरदस्त प्रमाण के रूपों में और अनेक नामों से लोग पूजते रहें हैं । ये दो महापुरुष हैं - शिव और कृष्ण । ये दोनों भी अनार्य ( ब्राम्हण नहीं ) हैं । ये कोई देवता एवं अवतार नहीं हैं । इन्हें ब्राम्हणी कलम ने देवता और अवतार बना कर लोगों के सामने रख दिया हैं और इन्हें पूजा का उपदान बना दिया गया हैं । अभी हाल ही में फरवरी २००७ में कोटा के थेगडा स्थित शिवपुरी धाम में 525 शिवलिंग स्थापित करके लोगों को पूजा-पाठ के ढकोसलों में और इज़ाफा कर दिया गया था । यह अंध प्रचार दिन रात आर्य ब्राह्मणों ने जारी रखा हैं ।

20) यहाँ हम केवल शिव की चर्चा करेंगे । आज शिव की पूजा के नाम पर जो वाणिज्य-व्यापार शुरू कर दिया गया हैं उस घटनाओं में शिव का वास्तविक व्यक्तित्व दफ़न हो गया है । यह शिव के शत्रु पक्ष अर्थात आर्य ब्राम्हण लोगों की साजिश हैं की वे पूजा के उपदान बना दिए गए और मूलनिवासीयों के परिवर्तन, क्रांति की प्रेरणा नहीं बन पाये ।

21) भारत के मूलनिवासीयों को शिव के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और चरित्र का गहराई से अध्ययन करना चाहिए और उनके ब्राम्हण विरोधी परिवर्तनवादी क्रिया कलापों को मूलनिवासी बहुजन समाज के सामने रखकर उन पर चलने को प्रेरित करना चाहिए ।

22) “शिव” का शाब्दिक अर्थ होता हैं -कल्याणकारी । शिव को उनके शत्रुओं अर्थात - आर्य ब्राम्हणों ने पहले रूद्र कहा, फिर महादेव और शिव आदि के नाम रख दिए गयें । उन्हें ईश्वर बना दिया गया और पिपलेश्वर, गौतमेश्वर, महाकालेश्वर, जैसे हजारों नाम रख दिए गए । जहाँ शिवलिंग या शिव मंदिर की स्थापना की, वाहन के प्राकृतिक स्थानों, नदी-नालों, पेड़ों-पहाड़ियों आदि के नाम पर शिव का नामकरण करके वहाँ के मूलनिवासीयों को पूजा-पाठ में लगा दिया गया ।

23) शिव यज्ञ विरोधी हैं, राज्य-साम्राज्य को नहीं मानते, “गण” व्यवस्था को मानते हैं । वे व्यक्ति हैं, विचारवान व्यक्ति हैं, विवेकशील व्यक्ति हैं । नायक हैं, उनकी सत्ता लोकसत्ता हैं । उन्होंने अपनी सत्ता, अपने गणों के साथ दक्ष ( ब्राम्हण, पार्वती का पिता ) की यज्ञ संस्कृति को ध्वस्त किया । यज्ञ संस्कृति के लोग जीते जी उन्हें अपने पक्ष में नहीं कर सके, किन्तु उनकी मृत्यु के बाद उन्हें देव और भगवान बना कर उपयोग करने में वे सफल हुये । यह प्रयास शास्त्रकारों का रहा हैं ।

24) इसके विपरीत शिव लोक में, जन में, मनुष्य के रूप में विद्यमान हैं । हिमालय की ऊँचाईयों पर रहने वाले भाट लोग शेष नाग और शिव की पूजा करते हैं । इसीलिए करते हैं क्योंकि शिव उनके पूर्वज हैं । कैलाश पर्वत शिव का घर हैं । शिव की पत्नी, गौरी, गिरिजा, पार्वती हैं । दक्षिणी राजस्थान की अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले आदिवासी गमेती, भील, मीणा, भादव महीने में सवा महीने तक एक लोक नाट्य का मंचन करते हैं ।।

25) सका नाम हैं “गवरी” गवरी में राई और बुडिया नामक पात्र पार्वती और शिव का स्वांग भरते हैं । हजारों सालों से ये परंपरा चली आ रही हैं । लोक नाट्य की इस मंचन परंपरा को “गवरी रमना” कहते हैं । “रमना” का अर्थ है “रमण करना”।
शिव कोई चमत्कारिक और दैवीय पुरुष नहीं वरन मूलनिवासीयों की संस्कृति की रक्षा के प्रतिक हैं । वे यज्ञ विध्वंसक हैं । यज्ञ करना ब्राम्हणों की संस्कृति हैं, जिसमें गायों की, अश्वों की बलि दी जाती थी और उन्हें ब्राम्हण खाते थे । गो मेध यज्ञ और अश्व-मेध यज्ञ ही क्यों, ये आर्य ब्राम्हण तो नरमेध यज्ञ भी करते थे । नर की बलि भी देते थे ।

26) मूलनिवासी तो पशु प्रेमी, पशुपालक, कृषि कार्य से अपना जीवन यापन करने वाले थे । इसीलिए वे यज्ञ के नाम पर पशुओं को काट कर खाने वालों का विरोध करते थे, शिव विदेशी लुटेरें आर्यों का नाश करने वाले थे । शिव और कृष्ण को सेतु बनाकर चालक आर्य ब्राम्हणों ने भारतीय जन मानस में घुसबैठ बनायीं । कृष्ण और शिव मूलनिवासीयों के नायक थे । इनको ब्राम्हणी वर्ण व्यवस्था शुद्र और अतिशूद्र मानती हैं । ये बहुजन नायक हैं । इन्हें ब्राम्हणी व्यवस्था में लेने के लिए ब्राम्हणों ने इनकी पूजा शुरू की !

27) अतः समझदार मूलनिवासी बहुजन अपनी महाशिवरात्रि आने के ही तरीके से मानते हैं । वे शिवलिंग और शिवमूर्ति की पूजा उपासना नहीं करके उनके द्वारा किये गए विध्वंस जैसे क्रिया कलापों का गहन अध्ययन करके उसके प्रचार-प्रसार का काम करते हैं ।

28) शिव का रंग रूप भी तो ब्रम्हा और ब्राम्हणों से मेल नहीं खाता हैं । वह श्याम वर्णी हैं और उनकी वेशभूषा आदिवासियों जैसी हैं । उनका ब्रम्हा और विष्णु के साथ जोड़ हैं, लेकिन वे तीसरे दर्जे पर हैं । उनकी भूमिका ब्रम्हा-विष्णु की तरह स्पष्ट नहीं हैं । वह शक्तिमान भी हैं और त्रिशूल को अपने हथियार के रूप में धारण करते हैं । शिव जी का बैल पर ही सवारी करना क्या कारण था, क्योंकि घोड़ा भारत देश की प्रजाति नहीं हैं, यह वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया हैं ।

29) इतिहास को जाने बगैर, हम इतिहास का पुनर्रलेखन नहीं कर सकते !!

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