अश्लीलता।
रामायण का कहना है कि दक्ष की पुत्री और काश्यप की पत्नी मनु ने चारों वर्णो को जन्म दिया,जिसके अनुसार प्रजापति दक्ष के 60 पुत्रियां थीं उनमे से काश्यप ने आठ सुंदरियों से विवाह कर लिया जिनके नाम थे ---अदिति,दिति,दनु,कलक,तम्र,क्रोधवशा,मनु तथा अनला. प्रसन्नचित काश्यप ने तब इन सुंदरियों से कहा कि तुम्हें मेरे जैसे ही पुत्रों को जन्म देना होगा,जिसे अदित ,दिति ,दनु और कलक ने स्वीकार किया,पर दूसरी अन्य सुंदरियाँ इसके लिए तैयार नहीं हुईं, अकेली अदिति ने आदित्यों,वशुओं,रुद्रों तथा दो आश्विनों सहित कुल मिलाकर 33 देवताओं को जन्म दिया,काश्यप की पत्नी मनु ने,ब्राम्हणों ,क्षत्रियों वैश्यों तथा शूद्रों को जन्म दिया ,ब्राम्हणों का जन्म मुंह से हुआ ,क्षत्रियों का छाती से,वैश्यों का जाँघों से तथा शूद्रों का पाँव से. यह वेदों का कथन है जबकि अनुला ने मधुर फलों से लदे हुए वृक्षों को जन्म दिया,सचमुच यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वाल्मीक कहे कि चारों वर्ण काश्यप से उत्पन्न हुए थे और प्रजापति को भूल जाएं,सायद उसे सुनी हुई परंपरा की जानकारी थी जिससे स्पस्ट होता है कि वाल्मीक यह नहीं जानता था कि इस विषय में वेदों ने क्या कहा है
वेदों में..परस्पर लैंगिक सम्बन्ध..
अभी तक हमने जाना था कि वेदों के अनुसार परस्पर लैंगिक संबंधों की किसी को भी पूरी छूट थी,इस प्रकार अगर कोई लड़का अपनी मां के साथ भी सम्भोग करना चाहता था तो उसे पूरी छूट थी,उदाहरणार्थ पूषण और उसकी मां, मनु और शतरूपा,मनु और श्रद्धा ,अर्जुन और उर्वशी,तथा अर्जुन और उत्तरा के लैंगिक सम्बन्ध.अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का 16 साल की उम्र में ही उत्तरा के साथ विवाह हो गया था,उसी उत्तरा का लैंगिक सम्बन्ध अर्जुन से भी था,महाभारत के अनुसार अर्जुन का विवाह उत्तरा से भी हुआ था,इस तरह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु का विवाह उसकी मां के साथ हुआ था,इस जगह अर्जुन और उर्वशी का उदाहरण एकदम स्पस्ट है.
इंद्र अर्जुन का वास्तविक पिता था और उर्वसी इंद्र की चहेती थी,उर्वशी ने अर्जुन को बहुत सारी शिक्षाएं दी थी इसीलिए उन दोनों में प्रेम हो गया था .
हरिवंश पुराण के अनुसार तत्कालीन बहु पितृत्व की भी प्रथा खूब प्रचलित थी उदाहरणार्थ सोम दस पिताओं का पुत्र था,हर पिता प्रल्हेता कहलाता था सोम की मारिषा नाम की एक बेटी थी,सोम के दस पिताओं और खुद सोम ने मारिषा के साथ सम्भोग किया था,इससे साबित होता है कि पिता पुत्री माँ और बेटों में आपसी लैंगिक सम्बन्ध एक सामान्य बात थी,प्रजापति कथा के अनुसार सोम के पुत्र दक्ष प्रजापति के बारे मे कहा गया है कि उसने अपनी 27 कन्याएं अपने पिता सोम को संतानोत्पत्ति के लिए दी थी,हरिवंश पुराण में लिखा है कि दक्ष ने अपने ही पिता ब्रम्हा को अपनी ही कन्या विवाह करने के लिए दी थी,जिससे एक "नारद"नाम का पुत्र भी हुआ था,जो अत्यन्त प्रसिद्द हुआ,यही सब सपिण्ड पुरुषों की सपिण्ड स्त्रियों से सम्भोग की कथाएं हैं.
भारत में प्राचीन आर्य स्त्रियों की बिक्री होती थी,विवाह की आर्य पद्धति से लड़कियों की विक्री की जाती थी,पिता गो मिथुन देता था और कन्यादान लेता था मतलब गो मिथुन के लिए कोई भी लड़की बिकती थी,"गो मिथुन का मतलब था एक गाँव और एक बैल जोकि एक लड़की की योग्य कीमत समझी जाती थी".अपनी लड़कियों को उनके पिता तो बेंचते ही थे बल्कि अपनी पत्नियों को उनके पति भी बेंचते थे,हरिवंश पुराण अपने 79 वें अध्याय में कहता है कि जो पुरोहित संस्कार कराता है एक पुण्यक व्रत उनकी दक्षिणा होनी चाहिए, इसका कहना है कि ब्राम्हण स्त्रियों को उनके पतियों से खरीदा जाय,और ब्राम्हण पुरोहितों को दक्षिणा के तौर पर दान में दे दी जाय,जिससे स्पस्ट होता है कि ब्राम्हण अपनी पत्नियों को बेंचते थे.
इसी तरह प्राचीन आर्य अपनी स्त्रियों को सम्भोग के लिए किराए पर भी देते थे,महाभारत के अध्याय 103 से 183 तक माधवी का जीवन चरित्र दिया हुआ है,जिसके अनुसार माधवी राजा ययाति की लड़की थी,ययाति ने उसे किसी को दी जाने वाली दक्षिणा के तौर पर गालब नामक ऋषि को सौंप दिया था,जिसने माधवी को तीन राजाओं को किराए पर दिया था,लेकिन सिर्फ उतने समय के लिए जितने समय में वह मां बन सके,तीनो राजाओं की बारी हो चुकने के बाद गालब ने उसे अपने गुरु विश्वामित्र को सौंप दिया था,विश्वामित्र ने उसे अपने पास रखा और बाद में उसे गालब ऋषि को वापस सौंप दिया अंत में गालब ने उसे उसके पिता ययाति को सौंप दिया.
जैसा कि विदित हो प्राचीन आर्य जनों में बहुपितृत्व या बहुपत्नीत्व की प्रथा चालू थी,जहाँ स्वच्छन्द सम्भोग एक आम बात थी,जिसे नियोग कहा जाता था,नियोग आर्यों की एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके आधीन कोई भी विवाहित स्त्री किसी भी ऐसे आदमी को जो उसका पति नहीं संतानोत्पत्ति के निमित्ति नियोग करने के लिए कह सकती थी इस पद्धति का परिणाम यह हुआ कि सम्भोग को लेकर संपूर्ण स्वच्छन्दता ,क्योंकि यह अमर्यादित थी पहली बात तो यह कि स्त्री मन चाहे नियोग करा सकती थी संख्या के विषय में कोई नियम था ही नहीं,पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को चार नियोग की अनुमति दी थी,व्यूलिस्तव को सात नियोगों की अनुमति थी,और बलि के बारे में जानकारी है कि उसने सत्रह नियोग कराये थे,ग्यारह नियोग पहली पत्नी से और छह नियोग दूसरी पत्नी से,नियोग पति के जीवन काल में भी होता था जब पति संतानोत्पत्ति के अयोग्य न हुआ हो तब हो सकता है प्रस्ताव पत्नी की तरफ से ही हुआ हो,नियोग कर्ता का चुनाव उसी की मर्जी से होता हो उसे इस बात की पूरी स्वतंत्रता थी कि वह स्वयं तय करे कि उसे नियोग किसके साथ करना है,और कितनी बार करना है आदमी और औरत के साथ जो निषिद्ध सम्भोग हो सकता था उसे ही नियोग कहते थे,जो एक रात के लिए हो सकता था और बारह वर्षों के लिए भी चालू रह सकता था,जिसमे उसका पति भी मौन सहयोगी माना जाता था.
प्राचीन आर्य जनों के समाज की यही नैतिकता थी,और ऐसे ही रीतिरिवाज थे अब आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि ब्राम्हणों का नैतिक स्तर कैसा था.
ब्राम्हणों की नैतिक शिथिलता जग जाहिर है,जैसे कि ब्राम्हण अपनी पत्नियों को बेचा करते थे,या फिर किराए पर दिया करते थे या फिर संतानोत्पत्ति के लिए कुछ समय के लिए उपहार स्वरूप दिया करते थे,यह आपको पिछले लेख में बताया जा चुका है.इनके बीच अनैतिक व्यवहार इस तरह के थे कि दुर्योधन के द्वारा जब द्रोपदी को गौ कहा गया तो उसने जवाब दिया कि उसे अफ़सोस है कि उसके पति ब्राम्हण नही हैं.
ऋषियों में भी पशुता की कोई कमी नहीं थी,महाभारत के 100 वें अध्याय में लिखा है कि विभण्डक ऋषि ने एक हिरनी के साथ सम्भोग किया है,जिससे श्रृंगी ऋषी नामक एक पुत्र पैदा हुआ था,महाभारत के आदिपर्व के प्रथम अध्याय और एक सौ अठारहवें अध्याय में व्यास ने लिखा है कि एकबार जब एक दमऋषि एक हिरनी के साथ संभोगरत था तभी पांडु ने दमऋषी को एक तीर मारा था जिससे दमऋषि की उसी समय मृत्यु हो गई लेकिन मरने से पहले उसने पाण्डु को एक श्राप दिया था कि अगर पाण्डु ने अपनी पत्नी को कभी छुआ तो वह तुरंत मर जाएगा.
इसी तरह महाभारत के आदिपर्व के 63 वें अध्याय में वर्णन है कि एक मछुये की बेटी सत्यव्रती (मत्स्यगंधा) के साथ खुले आम एक ऋषि ने मनोरंजन के तौर पर सम्भोग किया,वही आदिपर्व के ही 104 वे अध्याय में लिखा गया है कि दीर्घतमा नामक ऋषि ने लोगों के सामने एक सार्वजनिक जगह पर एक स्त्री के साथ सम्भोग किया,इसी तरह महाभारत में ढेरों सारे ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जिसमें ऋषियों की उद्दंडता और पशुता उजागर की गई है,सबके सामने किये गए सम्भोग से उत्पन्न पुत्र को अयोनिज कहा गया था मतलब सभी के सामने सार्वजनिक जगह पर किये गए सम्भोग से उत्पन्न संतान.
वही ऋषियों के लिए एक और प्रथा थी कि जब भी जहाँ कहीं कोई यज्ञ चल रहा होता हो तो कोई भी ऋषि वही यज्ञ मंडप में सबके सामने किसी भी स्त्री के साथ सम्भोग करे,ऋषियों की इस अनैतिक हरकत को धार्मिक नाम देकर "वामदेव व्रत" रखा गया जिसका ही आगे चलकर नाम वाम मार्ग दे दिया गया.
इन अनैतिकताओं और पशुता से आप ब्राम्हणों की नैतिकता का सहज अंदाजा लगा सकते हैं.
अभी तक आपने देखा कि प्राचीन ऋषियों में किस तरह की अनैतिक पशुता मौजूद थी.ऐसा लगता है कि प्राचीन आर्य अपनी नस्ल को सुधारने के चक्कर में अपनी पत्नियों को दूसरों के पास भेजते थे,इस कार्य के लिए वे अक्सर ऋषियों को ही चुनते थे,क्योंकि वे ऋषियों को अच्छी नश्ल पैदा करने वाले सांड मानते थे,इसलिए इस प्रकार का अनैतिक कार्य ऋषियों के लिए एक धंधा बन गया था,इस तरह ऋषि भी कितने भाग्यवान थे कि राजा भी अपनी रानियों को अच्छी नश्ल की संतानोत्पत्ति के लिए ऋषियों के पास भेजते थे.
वहीँ देवतागण भी उच्चश्रृंखल और शक्तिशाली जाति के थे,वे ऋषि पत्नियों तक पर भी हाथ साफ कर जाते थे,गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने क्या किया था यह कृत्य तो जग जाहिर है,देवताओं का स्वामित्व तो सायद इतना विकृत हो गया था कि वे आर्यजनों की देवियों को देवताओं की कामुकता को संतुष्ट करने के लिए वैश्या तक बनना पड़ता था,लेकिन आर्य जनों को यह बात अभिमानजनक लगती थी कि उनकी पत्नी किसी देवता के साथ संसर्ग करती है,और ख़ास बात यह है कि अगर किसी देवता के साथ संसर्ग से अगर किसी को गर्भ ठहर जाता तो उन्हें सम्मानपूर्वक किसी इंद्र,यम, नस्त्य,अग्नि,वायु और इसी तरह के देवताओं से उत्पन्न पुत्र करार दिया जाता था,इस तरह की संतानोत्पत्ति सामान्य बात थी.
समय उपरान्त देवताओं और आर्य जनों के सम्बन्ध स्थिर हो गए,जिसने अंत में सामंतशाही का रूप धारण कर लिया,और देवताओं ने आर्यो से दो वर लिए ,पहला-यज्ञ जो देवताओं के लिए एक प्रीतिभोज थे यह भोज इसलिए दिए जाते थे कि देवतागण आर्यो को आवश्यक्तानुसार राक्षसों,दैत्यों,और दानवों के विरुद्ध युद्ध में संरक्षण प्रदान कर सकें,इसतरह देवता का मतलब था संरक्षण के बदले उगाही (रिश्वत)लेने वाला ,बाद में इसी देवता शब्द को जमातपरक न रखकर इस्वरपरक बना दिया,जोकि एकदम ही गलत है.
वहीँ दूसरा वरदान देवताओं ने आर्यों से माँगा था कि आर्यजनों की स्त्रियों को भोगने की उन्हें प्राथमिकता दी जाय,जो कि आरंभिक काल में ही साकार हो गया था,इसका उल्लेख ऋग्वेद (१०-८५-४० )में है,जिसके अनुसार आर्य देवी पर पहला हक "सोम" का था,दूसरा "गन्धर्व" का तीसरा "अग्नि"का और सबसे अंत में आर्यजन का.
आपने देखा कि आर्यो की स्त्रियों पर क्रमशः पहला ,दूसरा और तीसरा हक़ सोम,गन्धर्व और अग्नि का होता था और सबसे अंत में खुद आर्य का..मतलब साफ था कि आर्यो को उनकी ही स्त्रियों पर अधिकार देवताओं की मेहरबानी पर निर्भर था क्योंकि बदले में देवता आर्यों की राक्षसों,दैत्यों,और दानवों से सुरक्षा करते थे...अब आगे....
इस तरह हर आर्य देवी (नाबालिग कन्या )पर किसी न किसी देवता का ऋण चढ़ा रहता था, और जब भी वह बालिग़ हो जाती थी तो उस पर उसी देवता की हो जाती थी,और अगर इस दायरे से विवाह हेतु कन्या को बाहर करना होता था तो उसे उचित दक्षिणा देकर उसे देवता के अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाता था.
आस्वालायन ग्रहसूत्र के प्रथम अध्याय की सातवीं अण्डिका में इस विवाह विधि का जो वर्णन दिया है वह इस पद्धति के अस्तित्व का अकाट्य प्रमाण है,जिसके अनुसार विवाह के समय तीन देवता उपस्थित होते थे,आर्यमान,वरुण तथा पुशन ,इसलिए क्योंकि आर्य देवी पर सबसे पहला हक़ इन्ही तीनो का होता था.इससे साबित होता है कि आर्यजन देवताओं द्वारा कितनी जघन्य अवस्था को पहुंचा दिए गए थे,और न केवल देवता बल्कि आर्यजन भी नैतिक दृष्टि से कितने पतित हो चुके थे...
डा.बी.आर.अम्बेडकर
हिन्दुधर्म की रिडल्ज पृष्ठ-93-94-95-96-97-98
No comments:
Post a Comment