Monday, 31 August 2020

शिव नग्न कथा।

कूर्मपुराण अध्याय-37 मे लिखी कथा।

"एक बार भगवान शिव खुद भी नंग-धड़ंग होकर और साथ मे भगवान विष्णु को भी एक सुन्दर महिला बनाकर उन्हे भी नग्न-अवस्था मे लेकर देवदारू नामक वन मे विचरण करने लगे। उसी वन मे कई ऋषियों के आश्रम भी थे तथा उन ऋषियों की पत्नियाँ और उनके युवा पुत्र तथा पुत्रबधुऐं निवास करती थी। वन मे विचरण करते-करते शिव और स्त्री-रूपधारी विष्णु नंगे बदन ही उन ऋषियों के आश्रम के पास पहुँच गये।

दोनो को नग्न अवस्था मे देखकर ऋषियों के पुत्र और बहुऐ स्तब्ध हो गयी! शिव नग्न-स्थिति मे भी इतने सुन्दर दिख रहे थे कि ऋषियों की जवान पुत्रबधुऐं कामातुर हो उनसे जाकर लिपट गयी और उनका आलिंगन करने लगी। विष्णु भी स्त्रीरूप मे अपना जलवा बिखेर रहे थे, उनके गदराऐ सुंदरता को देखकर तमाम ऋषिपुत्र भी विष्णु के चरणों मे जाकर गिर गये और उनसे प्रणय की याचना कर लगे।

अभी यह खेल चल ही रहा था कि अचानक तमाम ऋषिगण भी वहाँ आ गये और उन्होने जब अपने पुत्रों और बहुओं को इस तरह वासनाग्रस्त स्थिति मे देखा तो अत्यन्त क्रोध किया। क्रोध मे आकर उन ऋषियों ने विष्णु और शिव दोनो को अनेक प्रकार के श्राप दिये पर उनके सारे श्राप निष्फल होकर रह गये। अतः क्रोध मे आकर उन ऋषियों ने नग्न शिव और स्त्री-रूपधारी विष्णु को मारकर उस वन से भगा दिया।

अब दोनो देवदारू वन से घायल (ऋषियों की मार से) होकर वशिष्ठ के आश्रम मे आ गये! वशिष्ठ की पत्नि अरुन्धती ने दोनों देवों का बहुत स्वागत किया तथा उनके घावों पर औषधि भी लगायी। अभी घायल विष्णु और शिव का वशिष्ठ के आश्रम मे उपचार चल ही रहा था कि अचानक वशिष्ठ के शिष्यगण कहीं से आ गये और आश्रम मे नग्न महिला-पुरुष के जोड़े को देखकर उन्हे डंडे, ढ़ेलों तथा मुक्कों से मारने लगे। उन मुनियों ने क्रोध मे आकर शिव से कहा 'हे दुर्मते! तुम अपने इस लिंग को उखाड़ फेंको'। शिवजी ने कहा कि यदि आप लोगों को मेरे लिंग के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया है तो मै वैसा ही करता हूँ।

ऐसा कहकर शिव ने अपना लिंग उखाड़कर फेंक दिया! उनके लिंग फेंकते ही सबकुछ अदृश्य हो गया और चारो तरफ अंधेरा छा गया! सूर्य का तेज मंद हो गया, समुद्र सूखने लगे और धरती कांपने लगी। अब सारे ऋषिगण परेशान होकर ब्रह्माजी के पास गये और बोले कि हे देव! दारूवन मे एक अति सुन्दर नग्न पुरुष आया था जो हमारी पत्नियों और बहुओं को दूषित कर रहा था, तथा उसके साथ एक सुन्दर महिला भी थी, जो हमारे पुत्रों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी! हम लोगों ने उसे विविध प्रकार के श्राप दिये, पर जब हमारे सारे श्राप निष्फल हो गये तब हम लोगो ने उसे बहुत मारा और उस पुरुष के लिंग को नीचे गिरा दिया। लिंग के नीचे गिरते ही सभी प्राणियों मे भय प्रदान करने वाला भीषण उत्पात मच गया!  हे ब्रह्मदेव! वह स्त्री और पुरुष आखिर कौन थे?"

अब इसके आगे लम्बी कहानी है कि ब्रह्मा ने बताया कि वे साक्षात महादेव और विष्णु थे, और फिर ऋषियों ने अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये उनके कटे हुये लिंग के समान एक दूसरा लिंग बनाकर अपने पुत्रों, पत्नियों तथा बहुओं सहित वैदिक-रीति से शिव की अराधना की और फिर सब कुछ पहले जैसा ठीक हो गया।



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पुराण लिखने वालों की सबसे बड़ी करतूत यह थी कि उन्हे जिस महापुरुष के माता-पिता का नाम नही पता होता था वो उसे ऐसी-ऐसी जगह से पैदा कर देते थे कि पढ़ने वाला भी बेहोश हो जाये!

कई बार ऐसा होता है कि सभी महामानवों के माँ-बाप का नाम ज्ञात नही होता, जैसे कि अभी भी कबीर और साँईबाबा के माता-पिता का नाम ज्ञात नही है....
ठीक ऐसे ही पुरातनकाल मे ब्रह्मा, विष्णु और शिव के माँ-बाप का नाम पता नही था!

पुराणों के लेखकों ने इस समस्या का भी हल निकाल लिया, और इन देवताओं को जहाँ-तहाँ से पैदा करवाना शुरू कर दिया!
जैसे शिवपुराण के अनुसार शिव एक बार अपने टखने पर अमृत मल रहे थे, तभी वहीं से विष्णु पैदा हो गये!
पद्मपुराण और विष्णुपुराण के अनुसार विष्णु के ललाट से शिव का जन्म हुआ, और इसी पुराण के अनुसार विष्णु की नाभि से कमल निकला तथा उसी कमल से ब्रह्मा पैदा हुये!
देवी पुराण के अनुसार इन तीनों को ही आदिशक्ति देवी ने पैदा किया।

अब नयी जानकारी मिली है कूर्मपुराण से..
कूर्मपुराण-10/22के अनुसार-
"तदा प्राणमयो रुद्रः प्रादुरासीत् प्रभोर्मुखात् ।
सहस्त्रादित्यसंकाशो युगान्तदहनोपमः।।"
अर्थात- प्रभु (विष्णु) के मुख से हजारों सूर्य के समान प्रलयकारी शिव पैदा हुये।
आगे 23वें श्लोक मे लिखा है कि पैदा होते ही जोर-जोर से रोने के कारण उनका नाम 'रुद्र' पड़ा!

अब सोचो इतनी बड़ी अवैज्ञानिक बात... 
मतलब हद है यार.... ग्रंथ के नाम पर कुछ भी चिपका देते थे!
अरे भाई, विष्णु जी के मुँह मे कौन सी बच्चेदानी थी जो वहाँ से कोई पैदा होगा?
ये तो ऐसा लिखते थे, कि चमत्कार भी एक बार शर्म से लाल हो जाये!

अभी यही शान्ति नही मिली थी, इसी पुराण इसी 10/20 मे लिखा है-
"क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।
ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो भूताः प्रेतास्तथाभवन् ।।"
अर्थात- क्रोध के कारण ब्रह्माजी की आँखों से आंसू की बूँद गिरी, और उस आंसुओं से सब भूत-प्रेत पैदा हो गये, तथा उन्हे देखकर क्रोध और शोक से ब्रह्माजी ने अपने प्राण त्याग दिये!

अब लो... यहाँ ब्रह्मा ने आसुओं से भूत-प्रेत पैदा कर दिये, और शर्म से ब्रह्मा मर भी गये! 
फिर दूसरे ब्रह्मा कहाँ से आये भाई?
अब सोचो कि कैसे-कैसे विद्वान थे, पूर्वकाल मे?

क्या कभी सोचा है कि शिव और विष्णु एक ही काल मे थे?
शिव के बारें मे शोध करने वालों का मानना था कि शिव और विष्णु समकालीन नही थे! शिव विष्णु से काफी प्राचीन थे, सोचो कि जिस दौर मे विष्णु रेशमी वस्त्र पहनते थे, उसी दौर मे शिव बाघ की खाल पहनते थे!
शोधकर्ताओं का मानना है कि शिव का निवास स्थान भूटान के आस-पास था, तब ये क्षेत्र हिमालय की तराइयों मे फैला था और भूटान का प्राचीन नाम भूतान या भूतस्थान था, और वहाँ के जनजातियों के मुखिया होने की वजह से शिव को "भूतनाथ" भी कहा जाता था!

शिव किराट जाति से सम्बन्ध रखते थे, जो आज अनुसूचित जनजाति (ST) मे आती है! 
यह सभी को पता है कि शिव अनार्य देवता थे, पर बाद मे आर्यों ने उन्हे भी देवता मान लिया!

सच है कि पुराणों मे ऐसे-ऐसे पाखण्ड लिखे हैं जो हिन्दू-समाज को शर्मसार कर दे, पर पता नही क्यों हिन्दू इन पुराणों का विरोध करने के बजाये इनका समर्थन करते हैं!

नियोग।

पुराणों मे ऐसे कई प्रकरण मिल जायेंगे जब किसी राजा या अन्य को संतान न होने पर ऋषियों से यज्ञ-हवन करवाने या आशिर्वाद प्राप्त करने से संतानोत्पत्ति हो जाती थी। रामायण काल मे देखा जाये तो राम और उनके चारों भाइयों का जन्म भी ऐसी ही पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाने से हुआ था। महाभारत काल मे तो कर्ण, पाँचों पाण्डव, पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर समेत कई महापुरुष देवताओं या ऋषियों के आशिर्वाद से ही पैदा हुये हैं। प्राचीनकाल मे सनातनियों मे नियोग प्रथा आम बात थी। पूर्वकाल मे जब किसी महिला को अपने पति से संतान नही पैदा होता था तो वह किसी ऋषि या देवता से नियोग करके संतान पैदा करती थी। आगे चलकर इसी प्रथा को मनु ने धार्मिक नियम बना दिया था। 

मनु ने मनुस्मृति-9/59 मे लिखा है-
"देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ् नियुक्तया।
 प्रजेप्सिताधिगन्तव्या  सन्तानस्य  परिक्षये।।"
अर्थात- अपने पति और गुरूजनों की आज्ञा से संतान न होने पर स्त्री देवर या सपिण्ड से अभीष्ट (नियोग करके) संतान पैदा करे!


नियोग प्रथा का वर्णन मनुस्मृति मे मिलता है पर मनु भी इसे "पशु-धर्म" ही मानते थे।

मनु ने मनुस्मृति-9/65-66 मे लिखा है-
"विवाह के वेदोक्त मंत्रों मे नियोग और विधवा विवाह का कही वर्णन नही है। यह पशुधर्म है और विद्वान ब्राह्मणों ने इसकी निन्दा की है। मानव समाज मे बेन राजा के समय मे यह पशु-धर्म प्रचलित हुआ।"



यदि यज्ञ करने से या आर्शिवाद देने से पुत्र पैदा करने मे सक्षम थे तो मनु ने नियोग जैसी बकवास प्रथा को क्यों आगे बढ़ाया? बात साफ है कि युग कोई भी रहा हो, बिना स्त्री-पुरुष के समागम से संतान कभी भी पैदा नही होती थी। वास्तव मे सच्चाई यही है कि पुराणों और रामायण/महाभारत मे जितने भी महापुरुष मंत्रोच्चारित फल अथवा खीर पीने से, या देवताओं अथवा ऋषियों (ब्राह्मणों) के आशिर्वाद से पैदा हुये हैं, वे सब नियोग द्वारा ही जन्मे हैं। 

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नियोग और ( सनातन ) हिन्दू धर्म (देवर, जेठ, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा सबके संग संभोग)

नियोग का अर्थ

वेदादि शास्त्रों में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा नियमबद्ध उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर, जेठ, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा सबके संग संभोग अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण राजदंड प्रायश्चित् के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए।

इसी विधि के द्वारा पांडु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने नियोग किया । महाभारत में वेद व्यास विचित्रवीर्य व चित्रांगद के  मर जाने के पश्चात् उन अपने भाइयों की स्त्रियों से नियोग करके अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पांडु और दासी से विदुर की उत्पत्ति की थी।नीचे तथ्यों पर आधारित नियोग विषय पर सभी शंकाओं का प्रश्नों का उत्तर दिया गया है।

क्या प्राचीन काल में नियोग व्यवहार का प्रयोग होता था?

निस्संदेह होता था महाभारत/पुराण/स्मृति में नियोग के प्रमाण भरे पड़े है।

महाभारत में नियोग

व्यासजी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग- महाभारत आदि पर्व अ 106/6

वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- में तेरा धर्म नामक पिता- उत्पन्न करने वाला जनक हूँ- महाभारत वन पर्व 314/6

उस राजा बलि ने पुन: ऋषि को प्रसन्न किया और अपनी भार्या सुदेष्णा को उसके पास फिर भेजा- महाभारत आदि पर्व अ 104

कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे- महाभारत आदि पर्व 104/2

उत्तम देवर से आपातकाल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं- महाभारत आदि पर्व 120/26

परशुराम द्वारा लोक के क्षत्रिय रहित होने पर वेदज्ञ ब्राह्मणों ने क्षत्रानियों में संतान उत्पन्न की- महाभारत आदि पर्व 103/10

पांडु कुंती से- हे कल्याणी अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर- महाभारत आदि पर्व 120/28

पुराणों में नियोग

किसी कुलीन ब्राह्मण को बुलाकर पत्नी का नियोग करा दो, इनमे कोई दोष नहीं हैं- देवी भगवत 1/20/6/41

व्यास जी के तेज से में भस्म हो जाऊगी इसलिए शरीर से चन्दन लपेटकर भोग कराया- देवी भगवत 1/20/65/41

भीष्म जी ने व्यास से कहा माता का वचन मानकर , हे व्यास सुख पूर्वक परे स्त्री से संतान उत्पत्ति के लिए विहार कर- देवी भागवत 6/24/46

पति के मरने पर देवर को दे- देवर के आभाव में इच्छा अनुसार देवे – अग्नि पुराण अध्याय 154

राजा विशाप ने स्त्री का सुख प्रजा के लिए त्याग दिया। वशिष्ट ने नियोग से मद्यंती में संतान उत्पन्न की- विष्णु पुराण 4/4/69

रामायण में नियोग 

वह तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराकर्मी – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/28

मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/15

राम द्वारा बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा ने सुग्रीव से संग किया – गरुड़ पुराण उतर खंड 2/52

मनुस्मृति के प्रमाण

आपातकाल में नियोग भी गौण हैं- मनु 9/58

नियोग संतान के लोभ के लिए ही किया जाना चाहिए- ब्राह्मण सर्वस्व पृष्ट 233

टिप्पणी :- (देवर अर्थात द्वितीय वर) आज भी प्रचलित है।


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नियोग क्या है जाने उसके  नियम।

नियोग, मनुस्मृति में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण प्रायश्चित् के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए। इसी विधि द्वारा महाभारत में वेद व्यास के नियोग से अम्बिका तथा अम्बालिका को क्रमशः धृतराष्ट्र तथा पाण्डु उत्पन्न हुये थे।

नियोग प्रथा के नियम 
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१. कोई भी महिला इस प्रथा का पालन केवल संतान प्राप्ति के लिए करेगी न कि आनंद के लिए।

२. नियुक्त पुरुष केवल धर्म के पालन के लिए इस प्रथा को निभाएगा। उसका धर्म यही होगा कि वह उस औरत को संतान प्राप्ति करने में मदद कर रहा है।

३. इस प्रथा से जन्मा बच्चा वैध होगा और विधिक रूप से बच्चा पति-पत्नी का होगा, नियुक्त व्यक्ति का नहीं।

 
४. नियुक्त पुरुष उस बच्चे के पिता होने का अधिकार नहीं मांगेगा और भविष्य में बच्चे से कोई रिश्ता नहीं रखेगा।

५. इस प्रथा का दुरूपयोग न हो, इसलिए पुरुष अपने जीवन काल में केवल तीन बार नियोग का पालन कर सकता है।

६. इस कर्म को धर्म का पालन समझा जायेगा और इस कर्म को करते समय नियुक्त पुरुष और पत्नी के मन में केवल धर्म ही होना चाहिए, वासना और भोग-विलास नहीं। नियुक्त पुरुष धर्म और भगवान के नाम पर यह कर्म करेगा और पत्नी इसका पालन केवल अपने और अपने पति के लिए संतान पाने के लिए करेगी।

७. नियोग में शरीर पर घी का लेप लगा देते हैं ताकि पत्नी और नियुक्त पुरुष के मन में वासना जागृत न हो।

महाभारत में नियोग
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महाभारत में धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर नियोग से पैदा हुए थे जिसमे ऋषि वेद व्यास नियुक्त पुरुष थे। बाद में, पाण्डु संतान देने में असमर्थ होने के कारण, पाँचों पांडव नियोग से पैदा हुए थे जिसमे प्रत्येक नियुक्त पुरुष अलग-अलग देवता थे।

कला और संस्कृति पर प्रभाव
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मराठी फिल्म अनाहत नियोग प्रथा पर आधारित है जिसका निर्देशन अमोल पालेकर ने किया है। हिंदी फिल्म एकलव्य: द रॉयल गार्ड नियोग प्रथा पर आधारित है जिसमें अमिताभ बच्चन का पात्र अपने कर्तव्य और अपने नियोग से हुये लड़के (सैफ़ अली ख़ान) के बीच बंट जाता है।

१९८९ की फिल्म, ऊँच-नीच में एक संन्यासी (कुलभूषण खरबंदा) अपने गुरु के आदेश पर एक औरत से नियोग करता है।

क्या `नियोग´ जैसी शमर्नाक व्यवस्था ईश्वर ने दी है
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हिन्दू धर्म में विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था है। एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरूषों के साथ `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ `नियोग´ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है। हिन्दू धर्म के झंडाबरदारों को इसमें कोई पाप नज़र नहीं आता।
क्या वाक़ई ईश्वर ऐसी व्यवस्था देगा जिसे मानने के लिए खुद वेद प्रचारक ही तैयार नहीं हैं?

ऐसा लगता है कि या तो वेदों में क्षेपक हो गया है या फिर `नियोग´ की वैदिक व्यवस्था किसी विशेष काल के लिए थी, सदा के लिए नहीं थी । ईश्वर की ओर से सदा के लिए किसी अन्य व्यवस्था का भेजा जाना अभीष्ट था।

अब सवाल है कि कौन सी व्यवस्था अपनी जाये ? इसका सीधा सा हल है पुनर्विवाह की व्यवस्था
जी हाँ, केवल पुनर्विवाह के द्वारा ही विधवा और विधुर दोनों की समस्या का सम्मानजनक हल संभव है।

नियोग और हिन्दू धर्म ग्रन्थ 
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क्या नियोग व्याभिचारी प्रथा है ?

नियोग 
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नियोग का अर्थ – वेदादि शास्त्रों में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा नियमबद्ध उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण राजदंड प्रायश्चित् के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए।

इसी विधि के द्वारा पांडु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने नियोग किया । महाभारत में वेद व्यास विचित्रवीर्य व चित्रांगद के मर जाने के पश्चात् उन अपने भाइयों की स्त्रियों से नियोग करके अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पांडु और दासी से विदुर की उत्पत्ति की थी।नीचे तथ्यों पर आधारित नियोग विषय पर सभी शंकाओं का प्रश्नों का उत्तर दिया गया है । ध्यान पूर्वक पढ़े ।

शंका 1 क्या नियोग करना धर्म हैं?
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जिस किसी भी आस्तिक व्यक्ति ने वैदिक सिद्धान्तों का व्यापक अध्ययन किया है वह कर्म को तीन प्रकार का मानता है।
1. धर्म 2. अधर्म, 3. आपद्धर्म।

1. धर्म – वह सब कर्म जिनके करने से पुण्य और जिनके न करने से पाप होता है। जैसे सन्ध्या (सुबह शाम परमात्मा का ध्यान स्मरण) करना, सुपात्र को दान देना, वाणी से सत्य, प्रिय और पहितकारी बोलना, सुख दुःख और हानि लाभ में समान रहना आदि।

2. अधर्म- उन कर्मो का नाम है जिनके करने से पाप और जिनके न करने से पुण्य होता है जैसे शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी, डकैती करना, ठगना, गाली देना, अपमान करना, निरापराध को दण्ड देना आदि।

3 .आपद्धर्म – वे सभी कर्म जिनको सामान्य स्थितियों में करना अच्छा नहीं कहा जाता परन्तु जिनको आपदा अथवा संकट में करना पाप कर्म नहीं कहलाता हैं। जैसे शल्य चिकित्सक द्वारा प्राण रक्षा के लिए मनुष्य के शरीर पर चाकू चलाना, देश कि सीमा पर शत्रु के प्राणों का हरण करना, जंगल में नरभक्षी शेर का शिकार करना, सुनसान द्वीप पर प्राण रक्षा के लिये माँस आदि ग्रहण करना आदि।

विवाह धर्म का अंग है, व्याभिचार अधर्म का अंग है ठीक वैसे ही नियोग आपद्धर्म का अंग है।

शंका 2 . नियोग का मूल उद्देश्य क्या हैं 
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एक साधारण से प्रश्न पर विचार करें। यदि आपसे पूछा जाए कि आप रोटी, चावल, दाल, सब्जी, दूध, दही आदि कब खाते हैं तो आप कहेंगे “प्रतिदिन” । अब यदि आप से पूछा जाए कि कुनैन आप कब खाते हैं तो आप कहेंगे कि “केवल मलेरिया में” । क्या कड़वी कुनैन भी खाने की चीज है । परन्तु मलेरिया में हम न खाने वाली वस्तु को भी खाते हैं ताकि हमारी जान बच जाए। जैसे रोटी चावल आदि सामान्य जीवन का अंग है ठीक इसी तरह विवाह भी सामान्य जीवन का अंग है । जैसे न खाने वाली कुनैन भी आपत्ति में खाना उचित होता है इसी तरह सामान्य जीवन का अंग न होते हुए भी आपत्ति काल में नियोग सही होता है।

सभी आक्षेपकों ने नियोग को अनैतिक कहा और इसकी निन्दा की। परन्तु किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि नियोग मूलतः समाज व्यवस्था का सन्तुलन रखने और व्याभिचार को बचाने के लिए ही एक आपद्धर्म है।

जैसे स्वस्थ व्यक्ति को दवा की जरूरत नहीं है वैसे ही सामन्य रूप से संतान उत्पन्न होने पर भी नियोग की जरूरत नहीं है । जैसे कुछ परिस्थितियों मे दवा के बिना शरीर मर जाता है या स्थायी रूप से विकृत /अक्षम हो जाता है वैसे ही बिना नियोग के व्याभिचार से समाज विकृत हो जाता है। जैसे चिकित्सा के कुछ नियम हैं (जैसे दवा की मात्रा /पथ्य/अपथ्य) वैसे नियोग के भी कुछ नियम हैं । जैसे बिना नियम के दवाई लाभ के स्थान पर हानि करती है वैसे ही बिना नियम पालन के नियोग समाज को हानि पहुंचाता है।
नियोग का केवल और केवल एक ही प्रयोजन हैं असक्षम व्यक्ति के लिए संतान उतपन्न करने के लिए, विधवा अथवा जिसका पति उपलब्ध न हो उसे संतान उत्पन्न करने के लिए जिससे उसका जीवन सुचारु प्रकार से व्यतीत हो सके, समाज में मुक्त सम्बन्ध पर लगाम लगाकर, उसे नियम बद्ध कर व्यभिचार को बढ़ने से रोकने के लिए।

शंका 3. नियोग और व्याभिचार में क्या अन्तर हैं 
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जैसे बिना विवाहितों का व्याभिचार होता है वैसे बिना नियुक्तों का व्याभिचार कहाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसे नियम से विवाह होने पर व्याभिचार न कहावेगा तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्याभिचार न कहावेगा ।

फिर भी बहुत से लोग आलोचना करते हुए कहते हैं कि व्याभिचार और नियोग एक समान हैं। दोनों में कोइ अन्तर नहीं है। इसलिए नियोग भी पाप और अधर्म है। जैसे अपराधी किसी को चाकू से घायल करता है या कोई भी अंग काटता है तो वह अपराध है क्योंकि उसमें कोई नियम और विधि नहीं है। परन्तु जब एक शल्य चिकित्सक किसी रोगी का कोइ अंग चाकू से काटता है तो वह नियम से करता है । भले ही वह चाकू से रोगी को चोट पहुंचा रहा है परन्तु वह चाकू का प्रयोग नियम और चिकित्सा विधि के अनुसार रोग़ी के हित के लिए करता है। इसी प्रकार व्याभिचार और वेश्यागमन का कोइ नियम नहीं है और समाज के लिए हानिकारक है। परन्तु नियोग विधि और नियमों से बंधा हुआ है और समाज के हित में है।

शंका 4. नियोग विषय पर महर्षि दयानन्द के क्या विचार हैं
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ॠग्वेदादि भाष्य भूमिका के नियोग प्रकरण में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –

“इसी प्रकार से विधवा और पुरूष तुम दोनो आपत्काल में धर्म करके सन्तान उत्पत्ति करो और उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते जाओ। गर्भ हत्या या व्याभिचार कभी मत करो। किन्तु नियोग ही कर लो। यही व्यवस्था सबसे उत्तम है।”

इस वाक्य से अर्थ निकलता है 
-1. नियोग आपद्धर्म है क्योंकि नियोग केवल आपत्काल मे किया जाता है । 
2. व्याभिचार और गर्भपात अधर्म/महापाप है इसलिए व्याभिचार और गर्भपात नहीं करना चाहिए।
3. नियोग व्यभिचार और गर्भपात जैसे महापापों से बचने का उपाय है।

नोट : अधिक जानकारी के लिए सत्यार्थ प्रकाश में नियोग विषय को पढ़े।

शंका 5. क्या प्राचीन काल में नियोग व्यवहार का प्रयोग होता था
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महाभारत/पुराण/स्मृति में नियोग के प्रमाण भरे पड़े है । देखिये >>>

महाभारत में नियोग
व्यासजी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग- महाभारत आदि पर्व अ 106/6

वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- में तेरा धर्म नामक पिता- उत्पन्न करने वाला जनक हूँ- महाभारत वन पर्व 314/6

उस राजा बलि ने पुन: ऋषि को प्रसन्न किया और अपनी भार्या सुदेष्णा को उसके पास फिर भेजा- महाभारत आदि पर्व अ 104

कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे- महाभारत आदि पर्व 104/2

उत्तम देवर से आपातकाल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं- महाभारत आदि पर्व 120/26

परशुराम द्वारा लोक के क्षत्रिय रहित होने पर वेदज्ञ ब्राह्मणों ने क्षत्रानियों में संतान उत्पन्न की- महाभारत आदि पर्व 103/10

पांडु कुंती से- हे कल्याणी अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर- महाभारत आदि पर्व 120/28

पुराणों में नियोग (मैं पुराणों को प्रामाणिक नहीं मानता किंतु प्राचीन शास्त्रों से देखकर कुछ इतिहासिक बातें भी इनमें ब्राह्मणों ने लिखी है)
किसी कुलीन ब्राह्मण को बुलाकर पत्नी का नियोग करा दो, इनमे कोई दोष नहीं हैं- देवी भगवत 1/20/6/41

व्यास जी के तेज से में भस्म हो जाऊगी इसलिए शरीर से चन्दन लपेटकर भोग कराया- देवी भगवत 1/20/65/41

भीष्म जी ने व्यास से कहा माता का वचन मानकर , हे व्यास सुख पूर्वक परे स्त्री से संतान उत्पत्ति के लिए विहार कर- देवी भागवत 6/24/46

पति के मरने पर देवर को दे- देवर के आभाव में इच्छा अनुसार देवे – अग्नि पुराण अध्याय 154

राजा विशाप ने स्त्री का सुख प्रजा के लिए त्याग दिया। वशिष्ट ने नियोग से मद्यंती में संतान उत्पन्न की- विष्णु पुराण 4/4/69

रामायण में नियोग 
=============:
वह तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराकर्मी – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/28

मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/15

राम द्वारा बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा ने सुग्रीव से संग किया – गरुड़ पुराण उतर खंड 2/52

मनुस्मृति के प्रमाण 
=============:
आपातकाल में नियोग भी गौण हैं- मनु 9/58

नियोग संतान के लोभ के लिए ही किया जाना चाहिए- ब्राह्मण सर्वस्व पृष्ट 233

टिप्पणी :- (देवर अर्थात द्वितीय वर) आज भी प्रचलित है।

यदि राजा बीमार या बृद्ध  हो तो अपने मातृकुल तथा किसी अन्य गुणवान सामंत से अपनी भार्या में नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करा ले- कौटिलीय शास्त्र 1/17/52

शंका 6. क्या आधुनिक समाज में नियोग का व्यवहारिक प्रयोग होता हैं 
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निस्संदेह होता हैं, आजकल नियोग को sperm donation अर्थात वीर्य दान कहा जाता हैं। यह मुख्य रूप से उन दम्पत्तियों द्वारा प्रयोग किया जाता हैं जिनमें पुरुष संतान उत्पन्न करने में असक्षम होता हैं।
चिकित्सकों द्वारा उत्तम कोटि का वीर्य महिला के शरीर में स्थापित किया जाता हैं जिससे उसे संतान हो जाये।
मुख्य रूप से भाव वही हैं केवल माध्यम अलग हैं।

नियोग के मुख्य प्रयोजन को समझे बिना व्यर्थ के आक्षेप करना मूर्खता हैं । अभी भी अगर कोई इसी प्रकार से अनर्गल प्रलाप करना चाहता हैं तो वह सबसे बड़ा मुर्ख हैं। कुछ अज्ञानी लोग स्वामी दयानंद व वैदिक शास्त्रों पर नियोग विषय को लेकर आक्षेप करते है। ऐसे लोगों का दोष केवल इतना ही हैं कि नियोग के विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं हैं । इस विषय में अधूरी जानकारी होने के कारण वे वैदिक शास्त्रों के मूल उद्देश्य को समझ नहीं पाते हैं और व्यर्थ वितंडा करते हैं।

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नियोग और ( सनातन ) हिन्दू धर्म (देवर, जेठ, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा सबके संग संभोग)

नियोग का अर्थ

वेदादि शास्त्रों में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा नियमबद्ध उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर, जेठ, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा सबके संग संभोग अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण राजदंड प्रायश्चित् के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए।

इसी विधि के द्वारा पांडु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने नियोग किया । महाभारत में वेद व्यास विचित्रवीर्य व चित्रांगद के  मर जाने के पश्चात् उन अपने भाइयों की स्त्रियों से नियोग करके अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पांडु और दासी से विदुर की उत्पत्ति की थी।नीचे तथ्यों पर आधारित नियोग विषय पर सभी शंकाओं का प्रश्नों का उत्तर दिया गया है।

क्या प्राचीन काल में नियोग व्यवहार का प्रयोग होता था?

निस्संदेह होता था महाभारत/पुराण/स्मृति में नियोग के प्रमाण भरे पड़े है।

महाभारत में नियोग

व्यासजी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग- महाभारत आदि पर्व अ 106/6

वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- में तेरा धर्म नामक पिता- उत्पन्न करने वाला जनक हूँ- महाभारत वन पर्व 314/6

उस राजा बलि ने पुन: ऋषि को प्रसन्न किया और अपनी भार्या सुदेष्णा को उसके पास फिर भेजा- महाभारत आदि पर्व अ 104

कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे- महाभारत आदि पर्व 104/2

उत्तम देवर से आपातकाल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं- महाभारत आदि पर्व 120/26

परशुराम द्वारा लोक के क्षत्रिय रहित होने पर वेदज्ञ ब्राह्मणों ने क्षत्रानियों में संतान उत्पन्न की- महाभारत आदि पर्व 103/10

पांडु कुंती से- हे कल्याणी अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर- महाभारत आदि पर्व 120/28

पुराणों में नियोग

किसी कुलीन ब्राह्मण को बुलाकर पत्नी का नियोग करा दो, इनमे कोई दोष नहीं हैं- देवी भगवत 1/20/6/41

व्यास जी के तेज से में भस्म हो जाऊगी इसलिए शरीर से चन्दन लपेटकर भोग कराया- देवी भगवत 1/20/65/41

भीष्म जी ने व्यास से कहा माता का वचन मानकर , हे व्यास सुख पूर्वक परे स्त्री से संतान उत्पत्ति के लिए विहार कर- देवी भागवत 6/24/46

पति के मरने पर देवर को दे- देवर के आभाव में इच्छा अनुसार देवे – अग्नि पुराण अध्याय 154

राजा विशाप ने स्त्री का सुख प्रजा के लिए त्याग दिया। वशिष्ट ने नियोग से मद्यंती में संतान उत्पन्न की- विष्णु पुराण 4/4/69

रामायण में नियोग 

वह तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराकर्मी – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/28

मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/15

राम द्वारा बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा ने सुग्रीव से संग किया – गरुड़ पुराण उतर खंड 2/52

मनुस्मृति के प्रमाण

आपातकाल में नियोग भी गौण हैं- मनु 9/58

नियोग संतान के लोभ के लिए ही किया जाना चाहिए- ब्राह्मण सर्वस्व पृष्ट 233

टिप्पणी :- (देवर अर्थात द्वितीय वर) आज भी प्रचलित है।

फिलहाल आज ये परिथ्तीती नहीं है आज यह कुरितियो के प्रति समाज के लोगो कि आखे खोलने हेतु लेख हैं ✍️✍️


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वेद की आज्ञा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री और पुरुष दस से अधिक संतान उत्पन्न न करें, क्योंकि अधिक करने से संतान निर्बल, निर्बुद्धि और अल्पायु होती है। जैसा कि उक्त मंत्र से स्पष्ट है कि नियोग की व्यवस्था केवल विधवा और विधुर स्त्री और पुरुषों के लिए नहीं है बल्कि पति के जीते जी पत्नी और पत्नी के जीते जी पुरुष इसका भरपूर लाभ उठा सकते हैं। (4-143)

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृराावन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत्।
(ऋग्वेद 10-10-10)

भावार्थ ः ‘‘नपुंसक पति कहता है कि हे देवि! तू मुझ से संतानोत्पत्ति की आशा मत कर। हे सौभाग्यशालिनी! तू किसी वीर्यवान पुरुष के बाहु का सहारा ले। तू मुझ को छोड़कर अन्य पति की इच्छा कर।’’
इसी प्रकार संतानोत्पत्ति में असमर्थ स्त्री भी अपने पति महाशय को आज्ञा दे कि हे स्वामी! आप संतानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके संतानोत्पत्ति कीजिए।

अगर किसी स्त्री का पति व्यापार आदि के लिए परदेश गया हो तो तीन वर्ष, विद्या के लिए गया हो तो छह वर्ष और अगर धर्म के लिए गया हो तो आठ वर्ष इंतजार कर वह स्त्री भी नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती है। ऐसे ही कुछ नियम पुरुषों के लिए हैं कि अगर संतान न हो तो आठवें, संतान होकर मर जाए तो दसवें और कन्या ही हो तो ग्यारहवें वर्ष अन्य स्त्री से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकता है। पुरुष अप्रिय बोलने वाली पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है। ऐसा ही नियम स्त्री के लिए है। (4-145)

प्रश्न सं0 149 में लिखा है कि

 अगर स्त्री गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए और पुरुष दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो ऐसी स्थिति में दोनों किसी से नियोग कर पुत्रोत्पत्ति कर ले, परन्तु वेश्यागमन अथवा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
लिखा है कि नियोग अपने वर्ण में अथवा उत्तम वर्ण और जाति में होना चाहिए। एक स्त्री 10 पुरुषों तक और एक पुरुष 10 स्त्रियों तक से नियोग कर सकता है। अगर कोई स्त्री अथवा पुरुष 10वें गर्भ से अधिक समागम करे तो कामी और निंदित होते हैं। (4-142) 

विवाहित पुरुष कुंवारी कन्या से और विवाहित स्त्री कुंवारे पुरुष से नियोग नहीं कर सकती।

पुनर्विवाह और नियोग से संबंधित कुछ नियम, कानून, ‘शर्ते और सिद्धांत आपने पढ़े जिनका प्रतिपादन स्वामी दयानंद ने किया है और जिनको कथित लेखक ने वेद, मनुस्मृति आदि ग्रंथों से सत्य, प्रमाणित और न्यायोचित भी साबित किया है। व्यावहारिक पुष्टि हेतु कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी कथित लेखक ने प्रस्तुत किए हैं और साथ-साथ नियोग की खूबियां भी बयान की हैं। इस कुप्रथा को धर्मानुकूल और न्यायोचित साबित करने के लिए लेखक ने बौद्धिकता और तार्किकता का भी सहारा लिया है। कथित सुधारक ने आज के वातावरण में भी पुनर्विवाह को दोषपूर्ण और नियोग को तर्कसंगत और उचित ठहराया है। आइए उक्त धारणा का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।

ऊपर (4-134) में पुनर्विवाह के जो दोष स्वामी दयानंद ने गिनवाए हैं वे सभी हास्यास्पद, बचकाने और मूर्खतापूर्ण हैं। विद्वान लेखक ने जैसा लिखा है कि 

दूसरा विवाह करने से स्त्री का पतिव्रत धर्म और पुरुष का स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है परन्तु नियोग करने से दोनों का उक्त धर्म ‘ाुद्ध और सुरक्षित रहता है। 

क्या यह तर्क मूर्खतापूर्ण नहीं है ? आख़िर वह कैसा पतिव्रत धर्म है जो पुनर्विवाह करने से तो नष्ट और भ्रष्ट हो जाएगा और 10 गैर पुरुषों से यौन संबंध बनाने से सुरक्षित और निर्दोष रहेगा ?

अगर किसी पुरुष की पत्नी जीवित है और किसी कारण पुरुष संतान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि उस पुरुष में काम इच्छा (कमेपतम) नहीं है। अगर पुरुष के अन्दर काम इच्छा तो है मगर संतान उत्पन्न नहीं हो रही है और उसकी पत्नी संतान के लिए किसी अन्य पुरुष से नियोग करती है तो ऐसी स्थिति में पुरुष अपनी काम तृप्ति कहाँ और कैसे करेगा ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि नियोग प्रथा में हर जगह पुत्रोत्पत्ति की बात कही गई है, जबकि जीव विज्ञान के अनुसार 50 प्रतिशत संभावना कन्या जन्म की होती है। कन्या उत्पन्न होने की स्थिति में नियोग के क्या नियम, कानून और ‘शर्ते होंगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है ?

जैसा कि स्वामी जी ने कहा है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो भी पुरुष नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न कर सकता है।

यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो इसके लिए स्त्री नहीं, पुरुष जिम्मेदार है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव जाति में लिंग का निर्धारण नर द्वारा होता है न कि मादा द्वारा।



Friday, 28 August 2020

महामृत्युंजय मंत्र, शिव भस्मकड़ा, शिव।


महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता का नाम मृत्युंजय है जिन्होंने इस मंत्र की शक्ति से मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी। ये शिव उपासना का मंत्र है जो कि वेदों में दो जगह वर्णित है पहला वर्णन मिलता है ॠग्वेद के सप्तम मंडल में 59 वें सूक्त के १२ वें श्लोक में जिसे सभी विद्वान प्रचारित करते हैं और दूसरा वर्णन मिलता है यजुर्वेद के अध्याय तीन में ६० वें श्लोक के रूप में अंकित है जो कि पूरा श्लोक है, लोग प्रचारित नहीं करते हैं।

यजुर्वेद के अनुसार इस मंत्र की पहली लाइन पुरुष के लिए है उसे इसका नियमित जाप करना चाहिए। मंत्र की पहली लाइन है जो कि ॠग्वेद में भी वर्णित है जिसका अर्थ है:

“त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनं
उर्वारुकमिव बंधनान मृत्योर्मोक्षिय मामृतात।“
त्रयंबकं (तीन नेत्रों अथवा तीन दृष्टि वाले महादेव का)
यजामहे (हम यजन करते हैं जो)
सुगंधिं (सुगंधयुक्त व)
पुष्टिवर्धनं (ताकत को बढ़ाने वाले हैं वे)
उर्वारुकमिव (ककड़ी के फल के समान)
बंधनान (बंधन से)
मृत्योर्मोक्षिय (मृत्यु से मुक्त)
मा अमृतात: (अमृत से विमुख ना हो)

भावार्थ:- तीन नेत्रों वाले महादेव का हम यजन करते हैं वे हमारे ककड़ी के फल को सुगंधयुक्त व पुष्टि (ताकत) प्रदान करें, हम इसके अमृत रूपी आनंद से कभी विमुख ना हो, हम मृत्यु के बंधन से मुक्त रहें।


मंत्र की दूसरी लाइन जो कि स्त्रियों के लिए है, ये सिर्फ यजुर्वेद में वर्णित है पहली लाइन और दूसरी लाइन को मिलाकर यजुर्वेद में इसे एक ही मंत्र कहा गया है।

“ त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पतिवेदनं,
उर्वारुकमिव बंधनाढ़ितो मुक्षीय मामुर्त: !!
चलिए इसके भी शब्दों का हिन्दी अर्थ निकालते हैं,
त्रयंबकं (तीन नेत्रों अथवा तीन दृष्टि वाले महादेव का)
यजामहे (हम यजन करते हैं जो)
सुगंधिं (सुगंधयुक्त)
पतिवेदनं (पति को देने वाले)
उर्वारुकमिव (ककड़ी के फल)
बंधनाढ़ितो (बंधन से बांधे रहें)
मुक्षीय (मुक्त)
मामुर्त: / मा अमृत: (अमृत से वियुक्त ना हों)

भावार्थ:- तीन नेत्रों वाले महादेव का हम यजन करते हैं वे हमें सुगंधयुक्त पति को देने वाले बंधन से मुक्त ना करें और हम उनकी ककड़ी के फल के अमृत से वियुक्त ना हों।


अब आप बताएँ ये यौन शक्ति वर्धक मंत्र है या आपके प्राण बचाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र? दोनों लाइनों में स्त्री और पुरुष की स्तुति स्वयं अपनी सत्यता कहती है। वैसे भी शिवलिंग की पूजा का महत्व स्त्री और पुरुषों के लिए यही तो है ?

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"शिवरात्रि के अवसर पर जाने तीन लोक के भगवान शिव की सच्चाई....!
भस्मासुर के कारण भगवान शंकर की जान संकट में"

शंकरजी भगवान होते हुए भी अपनी जान नहीं बचा पाए तो अपने पूजा करने वाले लोगों की जान कैसे बचाएंगे ?

भस्मासुर के कारण भगवान ‍शंकर की जान संकट में आ गई थी।
हालांकि भस्मासुर का नाम पहले भस्मगिरी था पर अपने ही ईष्ट पर हमला करने के कारण उसका नामभस्मासुर पड़ गया।

भस्मासुर एक महापापी असुर था। और पार्वती पर आसक्त था। उसने पार्वती को पाने के लिए भगवान शंकर की घोर तपस्या की और उनसे अमर होने का वरदान मांगा। लेकिन भगवान शंकरने कहा कि तुम कुछ और मांग लो तब भस्मासुर ने शिवजी का भस्मकंडा वरदान में मांगा कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखकर भस्म कहूं वह भस्म हो जाए। भगवान शंकर ने भस्मकड़ा दे दिया।

भस्मासुर ने इस वरदान के मिलते ही कहा, भगवन् क्यों न इस वरदान की शक्ति को परख लिया जाए। तब वहस्वयं शिवजी के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा।
शिवजी भी वहां से भाग लिए। तब विष्णुजी ने पार्वती का रूप धारण कर भस्मासुर को आकर्षित किया। भस्मासुर शिव को भूलकर उस पार्वती के मोहपाश में बंध गया। पार्वती रूपी विष्णु ने भस्मासुर को खुद के साथ नृत्य करने के लिए प्रेरित किया।  भस्मासुर तुरंतही मान गया।नृत्य करते समय भस्मासुर पार्वती की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णुजी ने अपने सिर पर हाथ रखा। शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने उनकी नकल की भस्माकंडा जो की हाथ में पहने हुए था, अपने सर पर ले आया और इतने में विष्णुनी ने भस्म कहा और भस्मासुर अपने ही प्राप्त वरदान से भस्म हो गया।

शिवजी मृत्युंजय नही है। अगर वे अमर होते तो अपने ही साधक से डरकर नही भागते।

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देवों के देव  महादेव  या फिर राजा शंकर का ब्राह्मणीकरण. को जाने ? 

1) राजा शंकर भी एक जबरदस्त गेहरा रहस्य का ऐतिहासीक राज छुपा हुआ हैं । कुटिल आर्यों ( ब्राम्हणों ) के गलत प्रचार के कारण भारतीय मूलनिवासी अपने पुरखों का संघर्ष, रक्षक महापुरुष एवं संस्कृति भुलाकर आर्यों के जाल और षड़यंत्र में  फस गया 

2) महाशिवरात्री :
महा.... शिव..... रात्री..... "महा" याने बड़ा, विशाल. “शिव” याने ( अच्छा, सुन्दर राज्य करने वाला शंकर ही शिव ) शंकर.... रात्र याने दिन के बाद अंधकार समय कलि रात ।
शंकर राजा कृषिप्रधान भारतीय संस्कृति का प्रजाहितकारी राजा ( शंकर राजा थे और उनका साम्राज्य पूरे एशिया पर था । उन्हें तीसरी आँख, चार हाथ नहीं थे । वो सदैव ध्यानस्थ एक जगह नहीं बैठते थे ) घुसबैठ आर्य ( ब्राम्हण ) जम्बूदीप भारत में आकर अपना वैदिक षड़यंत्र फ़ैलाने का लगातार प्रयास करते थे । यह जानकारी प्रशासन के गुप्तचर विभाग द्वारा शंकर राजा को हर वक्त मिलती थी । इसी कारण आर्यों को धर पकड़ कर उनके गलत कार्य पर दंडित किया जाता था । एक बार शंकर और विष्णु आर्य ब्राम्हण के बीच आमने-सामने लडाई हो गई थी, तब विष्णु खून से लतपथ होकर हारकर भाग गया था । शंकर राजा की बलाढ्य शक्ति का उसे पता लग गया था ।

3) शंकर राजा का राजपाट चलाने में देखरेख में रानी गिरिजा ( माता काली ) का बहुत बड़ा सक्रीय योगदान था । जब गिरिजा नहीं रही तो अचानक युवा अवस्था में यह दुखित घटना होने के कारन शंकर राजा कुछ खास दिन एकांतवास में वो वैराग्य पूर्ण अवस्था में रहने लगे ।

4) राजा के व्यक्तिगत जीवन पर नजर रखकर मोका परस्ती आर्यों ने दक्ष नाम के आर्य ब्राम्हण की लड़की पार्वती को हर बात, हर षड़यंत्र की पूर्व प्रशिक्षण देकर शंकर के करीब पहुंचा दिया । राजा शंकर की दूसरी पत्नी बनने का अवसर आर्यपुत्री पार्वती को मिला, जिससे जो नियोजन आर्यों ने तैयार किया था । उसको शत प्रतिशत कामयाबी मिलने वाली थी ।

5) आर्यों ने ही भारत में पावरफुल नशा का स्त्रोत सूरा प्रथम लाया । पार्वती ने अपने साथ शंकर राजा को नशीला बनाया । जिस रात चौरागढ़ पर पूर्व नियोजन के अनुसार शंकर राजा की हत्या की गयी । इस दिन को यादगार के तौर पर राजाप्रिय प्रजा हजारों के तादाद में शंकर राजा का जीवन समंध बातों का उल्लेख करते हुये गीत गायन करते हुये, बिना चप्पल हाथ में एक शस्त्र लेकर ( त्रिशूल, चौरागढ़ ) पर इक्कठा होते थे । यही परंपरा आगे चलती रहीं । एक गीत ऐसा भी... "एक नामक कवड़ा गिरिजा शंकर हर बोला हर हर महादेव ” । त्रिशूल नहीं वो त्रिशुट हैं..... अर्थात क्रूर आर्य क्रूर हुन हुन क्रूर शक इनको निशाना बनाकर सदैव रहना ।

6) शंकर, महादेव, बड़ादेव, भोला शंकर कैसा ???
सारे भारत में आर्यों ( ब्राम्हणों ) का वर्चस्व प्रस्थापित होने के बाद आर्य ब्राम्हणों ने अपने ब्राम्हण व्यक्ति पात्र देव देवी संबोधकर जनमानस में मान्यताकृत करने पर भी मूल भारतीय लोग शंकर राजा का इतिहास का गुणगान करते थे । इस बात से आर्यों का भंडाफोड़ बार बार होता था । इस ड़र के कारण मजबूरन अपने मतलब के लिए शंकर राजा के आर्य ब्राम्हण इंद्र, ब्रम्हा, विष्णु के साथ महेश ( शंकर, बद्यादेव, महादेव ) संबोधक जोड़ दिया । यह इतिहास ई.पूर्व का भाग हैं ।

7) शंकर राजा की अन्य विकृति:

    शंकर राजा को तीसरी आँख नहीं थी । वे तर्कशास्त्र का ज्ञाता थे । इस कारण उन्हीं के ज़माने से भारत में पहाड़ियों पर भी कृषि होती थी । पानी रोक कर साल भर इस्तेमाल होता था । यही भाग शंकर राजा के मुंड़ी में गंगा की धार बताई गयी । चार हाथ नहीं थे, वो कोई भी नशा नहीं करते थे, वो असुर थे । मतलब अ + सुर = सोमरस, दारू, सूरा न पिने वाला वो दूध पीकर शाकाहारी भोजन करते थे । शंकर राजा शरीर से एकदम बलाढ्य, ऊँचा पूरा, प्रभावी, आकर्षक व्यक्ति मतवाला राजा थे । ( शंकर राजा के अन्य प्रचलित नाम कैलाशपति, नीलकंठ, शिव, भोला, जटाधारी )

8) विष कन्या पार्वती की काली करतुत :

आज वर्तमान में एक फोटो प्रचलित हैं, जिसमे शंकर राजा जमीन पर मरे पड़े हैं और उसके ऊपर एक चार हाथ वाली स्त्री खड़ीं हैं । इसी चित्र में गहरा राज छुपा हुआ हैं । विदेशी आर्य ब्राम्हण विरुद्ध मूलनिवासी वीर रक्षक संघर्ष का लेखा-जोखा प्राचीन ग्रंथ शिव महापुराण, विष्णु महापुराण, मार्कंड पुराण, मत्स्य पुराण, इसमें काली के संदर्भ मिलते हैं ।

9) सत्यशोधक संशोधन रिसर्च करने पर सच्चाई इस प्रकार सामने आती हैं । आर्यों ब्राम्हणों के प्रमुख बदमाशों की बदमाशी रचित हत्याकांड़ों की असलियत छुपाने कई बार हर ग्रंथो में कपोकल्पित कहानियाँ, नए नए पात्र जोड़कर आर्यों ने खुद को देव देवी का स्थान देकर इतिहास का विकृतीकरण, ब्राम्हणीकरण किया हैं । 

10) दक्ष आर्य ब्राम्हण की प्रशिक्षित बेटी पार्वती की काली करतूत.....शंकर राजा की हत्या छुपाने झूठी कहावत प्रचलन में लाई गई जो इस प्रकार हैं !

        एक बार राक्षस के रूप में राजा शंकर आया और वो देव लोगों का नरसंहार करने लगा तब स्वर्ग लोक से काली देवी प्रगट हुई और उसने शंकर राक्षस ( रक्षक ) की और साथियों की हत्या कर दी, उनके हाथ और मुंड़ी काटकर अपने बदन पर लटका दिये । यह प्रचलन विकृति पूर्व हैं । इसमें सच्चाई यह हैं, शंकर राजा की स्वजातीय ( नागगोड ) पत्नी गिरिजा मरने के बाद आर्य ब्राम्हणों ने दक्ष आर्य की बेटी राजा शंकर के पीछे लगा दी । जिस उद्देश के लिए पार्वती शंकर के जीवन में आई वह उद्देश जिस काली रात को ( महाशिवरात्र ) आर्य ब्राम्हण पुत्री पार्वती ने न्यायप्रिय कृषिप्रधान गणराज्य का शंकर राजा के साथ काली करतूत की वो ही प्रसंग छुपाने मूलनिवासीयों को हजारों साल सच्चाई से दूर रखने के लिए और एक देवी चार हाथ वाली काली देवी प्रचलन में लाई गयी ।

11) विदेशी आर्य ब्राम्हण टीम और आर्य पुत्री पार्वती का रचित षड़यंत्र, शंकर राजा का हत्याकांड़ पर पर्दा ड़ालने के लिए यह सब किया गया । जिस काली रात को पार्वती ने शंकर राजा की हत्या करने के लिए काली करतूत की वो ही दिन महाशिवरात्र प्रचालन में आया । इस घटना को लक्ष्य बनाकर आर्य ब्राम्हणों ने काली शब्द पकड़कर रखा यह गहरा राज अब हमें गहराई से समझना होगा ।

12) रानी गिरिजा का आर्य विरुद्ध संग्राम:

नाग-गोड़ी संस्कृति का राजा शंकर इनकी पत्नी रानी गिरिजा थी, जिन्हें काली माता ऐसा भी नाम प्रचलित हैं । यह रानी गिरिजा भी महायुद्ध करते निकली और विदेशी आर्यों का नाश किया । यह वीर मूलनिवासीयों ने बड़े सावधानी और अभिमान संस्कृति द्वारा जपा हुआ हैं । काली गिरिजा के चित्र और मूर्ति आज भी देखने को मिलती हैं । रानी गिरिजा के गले में शेंडिधारी विदेशी आर्यों के सरो ( धड़ ) की मालायें ( हार ) और कंबर में विदेशी आर्यों की उंगलियाँ और हाथ सजाये हुये दिखती हैं ।

 13) राणी गिरिजा का खून:

शंकर के विंनती से राणी गिरिजा ( काली ) ने युद्ध बंद किया । विदेशी आर्यों ने युद्ध बंदी ( करार ) के बहाने दिखावा करके नियोजनबद्ध षड़यंत्र रचा । आर्य कन्या पार्वती का विवाह शंकर के साथ रचाया गया । आर्य कन्या पार्वती ने शंकर की मर्जी संपादन करके राणी गिरिजा को अकेले गिराया । आर्यों ने शंकर -गिरिजा पति-पत्नी का गैरसमज करके विकृत बीज पार्वती के माध्यम से बोने की शुरवात की । ताकि आर्यों के षड़यंत्र शंकर पहचान न सकें । इसीलिए मूलनिवासी शंकर को भोला शंकर कहते हैं ।

14) शंकर का खून अर्थात महाशिवरात्रि :

पुराण में समुद्र मंथन की एक कहानी प्रसिद्ध हैं । राक्षस-आर्यों, सूरा-सुरों ने समुद्र मंथन किया, तब मदार पर्वत मथने को आधार बनाया और घुसने के लिए शेष नाग की रस्सी का उपयोग किया । इस कारण पृथ्वी हलने लगी । पृथ्वी पर के मानव भयभीत हुये । लोगों को लगने लगा की अब पृथ्वी का प्रलय निश्चित होगा, तब पृथ्वी को बचाने के लिए विष्णु ने कर्मावतार ( कच्छ याने, कच्छवा ) धारण करके पृथ्वी अपने पीठ पर उठाई । समुद्र मंथन चालू रहने पर उस समुद्र मंथन से 14 रत्न बाहर निकलें । उस रत्न में जहल विष था । इस विष के कारन पृथ्वी का नाश निश्चित था । पृथ्वी को बचाने के लिए वह विष ( जहर ) पीना आवश्यक था । जहर पिने के लिए कोई आर्य देव सामने नहीं आया । तब शिवशंकर ने वह विष पीकरके पृथ्वी को बचाया, ऐसी कहानी प्रचलित हैं ।

15) मूलनिवासीयों को यह सत्यता पता नहीं चले इसलिए ब्राम्हण ऐसी गैरसमज निर्माण करके वास्तविकता को बदल देने का प्रयत्न करते, लेकिन शंकर की विष पीने की सत्यता उन्हें नकारते आया नहीं । विष्णु ब्राम्हण आर्य ने शंकर को गुप्तता से पार्वती के माध्यम से विष दिया होगा या शंकर को विष प्राशन करने की सक्ती की होगी । इन दोनों घटना में से कुछ भी हो, लेकिन इतना मात्र निश्चित हैं की शिवशंकर का विष प्रयोग द्वारा आर्य ने खून किया और उसकी सिहासत अपने गले में घुसा के मूलनिवासी बहुजनों को गुलाम ( दास ) बनाया ।

16) शंकर का नीला शरीर यह जहर के कारण हुआ हैं । यह सत्य हैं, यह सत्यता मूलनिवासीयों के ध्यान में आने न पाये इसीलिए शंकर को ही नीलकंठ बोला गया और प्रजा में ऐसी पहेलियों को जोड़कर साक्षात् तुम्हारा शिवशंकर नीला शरीर धारण करके देव ( भगवान् ) बना ।

17) राजा शंकर का मृतदेह देखने के लिए मूलनिवासीयों ने पचमढ़ी में गर्दी की । भूक प्यास भूलकर मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग शिवजी के शोक दुःख में डूब गए । शंकर के दुःख में मूलनिवासीयों ने गाने गाये । जो आज भी गावं देहातों में गाये जाते हैं । उस समय के महाशिवरात्रि के दिन से शंकरजी के स्मृति में भीड़ इक्कठा होती हैं इस दिन अन्न सेवन न करके उपवास करते हैं । शिवशंकर के गीत गाते-काव्यात्मक शैली के माध्यम से मूलनिवासी शंकर की याद में, शंकर की जीवनी गानों से जीवित रखी हैं ।

18) हमारे मूलनिवासी महापुरुष शंकर का मृत्यु दिन और विदेशी आर्य ब्राम्हणों का विजय दिन महाशिवरात्रि के रूप में आज भी मूलनिवासी त्यौहार त्यो + हार ( तुम्हारी हार ) मना रहे हैं । अपनी कपट निति ध्यान में न आने पाये इसीलिए शंकर को देव बना के प्रजा को पूजने लगाया । शंकरजी की महानता बढ़ाने के लिए ब्राम्हण संपूर्ण विश्व की निर्मिती करता हैं । विष्णु विश्व का पालन-पोषण करता और शंकर यह सृष्टि का देखभाल करता यह कहानी मनुवादियों ( ब्राम्हणों ) ने निर्माण करके और शंकरजी को स्मशान भूमि में बसाया यह देखने को मिलता हैं ।

 19) मूलनिवासी महाशिवरात्रि:

राज सत्ता और धर्म सत्ता की बात को छोड़ कर यदि भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग मानस की बात की जाये तो वह हमेशा लोकसत्ता का हामी रहा हैं । इस लोक सत्ता के जबरदस्त प्रमाण के रूपों में और अनेक नामों से लोग पूजते रहें हैं । ये दो महापुरुष हैं - शिव और कृष्ण । ये दोनों भी अनार्य ( ब्राम्हण नहीं ) हैं । ये कोई देवता एवं अवतार नहीं हैं । इन्हें ब्राम्हणी कलम ने देवता और अवतार बना कर लोगों के सामने रख दिया हैं और इन्हें पूजा का उपदान बना दिया गया हैं । अभी हाल ही में फरवरी २००७ में कोटा के थेगडा स्थित शिवपुरी धाम में 525 शिवलिंग स्थापित करके लोगों को पूजा-पाठ के ढकोसलों में और इज़ाफा कर दिया गया था । यह अंध प्रचार दिन रात आर्य ब्राह्मणों ने जारी रखा हैं ।

20) यहाँ हम केवल शिव की चर्चा करेंगे । आज शिव की पूजा के नाम पर जो वाणिज्य-व्यापार शुरू कर दिया गया हैं उस घटनाओं में शिव का वास्तविक व्यक्तित्व दफ़न हो गया है । यह शिव के शत्रु पक्ष अर्थात आर्य ब्राम्हण लोगों की साजिश हैं की वे पूजा के उपदान बना दिए गए और मूलनिवासीयों के परिवर्तन, क्रांति की प्रेरणा नहीं बन पाये ।

21) भारत के मूलनिवासीयों को शिव के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और चरित्र का गहराई से अध्ययन करना चाहिए और उनके ब्राम्हण विरोधी परिवर्तनवादी क्रिया कलापों को मूलनिवासी बहुजन समाज के सामने रखकर उन पर चलने को प्रेरित करना चाहिए ।

22) “शिव” का शाब्दिक अर्थ होता हैं -कल्याणकारी । शिव को उनके शत्रुओं अर्थात - आर्य ब्राम्हणों ने पहले रूद्र कहा, फिर महादेव और शिव आदि के नाम रख दिए गयें । उन्हें ईश्वर बना दिया गया और पिपलेश्वर, गौतमेश्वर, महाकालेश्वर, जैसे हजारों नाम रख दिए गए । जहाँ शिवलिंग या शिव मंदिर की स्थापना की, वाहन के प्राकृतिक स्थानों, नदी-नालों, पेड़ों-पहाड़ियों आदि के नाम पर शिव का नामकरण करके वहाँ के मूलनिवासीयों को पूजा-पाठ में लगा दिया गया ।

23) शिव यज्ञ विरोधी हैं, राज्य-साम्राज्य को नहीं मानते, “गण” व्यवस्था को मानते हैं । वे व्यक्ति हैं, विचारवान व्यक्ति हैं, विवेकशील व्यक्ति हैं । नायक हैं, उनकी सत्ता लोकसत्ता हैं । उन्होंने अपनी सत्ता, अपने गणों के साथ दक्ष ( ब्राम्हण, पार्वती का पिता ) की यज्ञ संस्कृति को ध्वस्त किया । यज्ञ संस्कृति के लोग जीते जी उन्हें अपने पक्ष में नहीं कर सके, किन्तु उनकी मृत्यु के बाद उन्हें देव और भगवान बना कर उपयोग करने में वे सफल हुये । यह प्रयास शास्त्रकारों का रहा हैं ।

24) इसके विपरीत शिव लोक में, जन में, मनुष्य के रूप में विद्यमान हैं । हिमालय की ऊँचाईयों पर रहने वाले भाट लोग शेष नाग और शिव की पूजा करते हैं । इसीलिए करते हैं क्योंकि शिव उनके पूर्वज हैं । कैलाश पर्वत शिव का घर हैं । शिव की पत्नी, गौरी, गिरिजा, पार्वती हैं । दक्षिणी राजस्थान की अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले आदिवासी गमेती, भील, मीणा, भादव महीने में सवा महीने तक एक लोक नाट्य का मंचन करते हैं ।।

25) सका नाम हैं “गवरी” गवरी में राई और बुडिया नामक पात्र पार्वती और शिव का स्वांग भरते हैं । हजारों सालों से ये परंपरा चली आ रही हैं । लोक नाट्य की इस मंचन परंपरा को “गवरी रमना” कहते हैं । “रमना” का अर्थ है “रमण करना”।
शिव कोई चमत्कारिक और दैवीय पुरुष नहीं वरन मूलनिवासीयों की संस्कृति की रक्षा के प्रतिक हैं । वे यज्ञ विध्वंसक हैं । यज्ञ करना ब्राम्हणों की संस्कृति हैं, जिसमें गायों की, अश्वों की बलि दी जाती थी और उन्हें ब्राम्हण खाते थे । गो मेध यज्ञ और अश्व-मेध यज्ञ ही क्यों, ये आर्य ब्राम्हण तो नरमेध यज्ञ भी करते थे । नर की बलि भी देते थे ।

26) मूलनिवासी तो पशु प्रेमी, पशुपालक, कृषि कार्य से अपना जीवन यापन करने वाले थे । इसीलिए वे यज्ञ के नाम पर पशुओं को काट कर खाने वालों का विरोध करते थे, शिव विदेशी लुटेरें आर्यों का नाश करने वाले थे । शिव और कृष्ण को सेतु बनाकर चालक आर्य ब्राम्हणों ने भारतीय जन मानस में घुसबैठ बनायीं । कृष्ण और शिव मूलनिवासीयों के नायक थे । इनको ब्राम्हणी वर्ण व्यवस्था शुद्र और अतिशूद्र मानती हैं । ये बहुजन नायक हैं । इन्हें ब्राम्हणी व्यवस्था में लेने के लिए ब्राम्हणों ने इनकी पूजा शुरू की !

27) अतः समझदार मूलनिवासी बहुजन अपनी महाशिवरात्रि आने के ही तरीके से मानते हैं । वे शिवलिंग और शिवमूर्ति की पूजा उपासना नहीं करके उनके द्वारा किये गए विध्वंस जैसे क्रिया कलापों का गहन अध्ययन करके उसके प्रचार-प्रसार का काम करते हैं ।

28) शिव का रंग रूप भी तो ब्रम्हा और ब्राम्हणों से मेल नहीं खाता हैं । वह श्याम वर्णी हैं और उनकी वेशभूषा आदिवासियों जैसी हैं । उनका ब्रम्हा और विष्णु के साथ जोड़ हैं, लेकिन वे तीसरे दर्जे पर हैं । उनकी भूमिका ब्रम्हा-विष्णु की तरह स्पष्ट नहीं हैं । वह शक्तिमान भी हैं और त्रिशूल को अपने हथियार के रूप में धारण करते हैं । शिव जी का बैल पर ही सवारी करना क्या कारण था, क्योंकि घोड़ा भारत देश की प्रजाति नहीं हैं, यह वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया हैं ।

29) इतिहास को जाने बगैर, हम इतिहास का पुनर्रलेखन नहीं कर सकते !!

संबंधियों से संभोग।

वैदिक आर्य सवर्ण किस तरह से अपनी ही मा बहन बेटी और अन्य रिश्तेदार स्त्रीयों  के साथ संभोग करते थे इसका प्रमाण दो संस्कृत पंडित ब्राह्मण खुद दे रहे है. 

भारतीय विवाह संस्था का इतिहास (वि.का. राजवाडे) 
चार्वाक दर्शन (सुरेंद्र कुमार शर्मा 'अज्ञात')


Thursday, 27 August 2020

संतान उत्पत्ति के अनोखे तरीके।

हिंदू धर्म में सिर्फ खीर खाने से ही बच्चे पैदा नहीं होते बल्कि पता नहीं कहां कहां से बच्चे पैदा हो जाते हैं इसकी विस्तृत जानकारी डॉ सुरेंद्र शर्मा "अज्ञात'' ने अपनी पुस्तक, क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म, में दी है !


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मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...