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यदि कोई पक्का दुराचारी होते हुए भी मेरी पूजा भक्ति सच्चे मन से करता है , तो उसे सदाचारी ही समझना चाहिए , क्योंकि वह मेरी भक्ति जो करता है, उसने ठीक निर्णय लिया है -
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ,
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ,
" गीता 9/30 "
यदि यहां पक्के दुराचारी को सदाचारी घोषित किया है तो एक दूसरे श्लोक में महापापी को, सबसे बड़े पापी को ,आश्वस्त किया गया है, कहा है, यदि तुम पापियों में भी महापापी हो , तो भी हमारे ज्ञान की नौका पर सवार होकर तुम पाप -महासागर को पार कर लोगे -
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ,
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ,
"गीता 4/36"
अध्याय-18 के श्लोक 17 में कहा है कि यदि तुम अहंकार को छोड़कर और कर्मों से निर्लिप्त रहकर सारी दुनिया के लोगों को कत्ल कर भी न तुम कातिल कहे जाओगे और न बंधन में पड़ोगे- यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ,
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ,
" गीता 18/17 "
ये नैतिक रियायतें गीता में बार - बार क्यों दी जा रही हैं ? क्यों चोर - उचक्के ,बदमाश ,दुराचारी , पापी , हत्यारे आदि इतने प्यारे बन गए हैं ?
एक ओर तो हमारी परंपरा यह रही है कि ' आचारः परमो धर्मः ' मनुस्मृति 1/108 ( आचरण ही परम धर्म है )। आचार की महिमा गाते हुए मनुस्मृति यह कहती है।
बुद्धिज्म विविध आयाम-
बुद्धवाद बनाम गीता-187-188-189-190.
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श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः , परधर्मात् स्वनुष्ठितात् , स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।
' गीता 3/35 '
कि अपना धर्म दोषों से युक्त होते हुए भी दूसरे के भले धर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है, अपने धर्म में रहते हुए मर जाना श्रेयस्कर होता है ,जबकि दूसरे का धर्म अपनाना भयानक होता है।
कुछ हेरफेर के साथ यही श्लोक अध्याय 18 में भी आता है , जबकि पहली पंक्ति हू -ब -हू वही है जो 3/35 में है।
यहां अपने धर्म में बने रहने और दूसरे धर्म में न जाने की बात कही गई है, इस श्लोक में धर्म क्या है ? इसकी व्याख्या गीता के प्राचीनतम उपलब्ध शांकरभाष्य में शंकराचार्य ने नहीं की है, उन्होंने केवल इतना लिखा है -
स्वो धर्मः स्वधर्मो , स्वधर्मे स्थितस्य निधनं मरणं अपि श्रेयः परधर्मे स्थितस्य जीवितात् ,
परधर्मों भयावहो नरकादिलक्षणं भयमावहति यतः
( स्व ( अपने ) धर्म को ' स्वधर्म ' कहते हैं ,अपने धर्म में स्थित व्यक्ति का मरना भी परधर्म में स्थित होकर जीवित रहने से अच्छा है ,क्योंकि परधर्म में जाने से नरक रूपी भय पैदा हो जाता है,अतः परधर्म भयानक चीज है )
शंकर ( मृत्यु 820 ई .) के समय में सारी बात स्पष्ट थी , अतः उन्होंने धर्म की व्याख्या नहीं की कि इससे क्या अभिप्राय है, परन्तु बाद के- ग्यारहवीं शताब्दी के - रामानुज धर्म का अर्थ अपने ' वर्ण के कर्तव्य ' करते हैं यानी उनके अनुसार अपनी जाति के कर्तव्य ही स्वधर्म है,दूसरी जाति के कर्तव्य ही परधर्म है।
बुद्धिज्म विविध आयाम
बुद्धिज्म बनाम गीता-184-185.
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डा.बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं कि यदि कृष्ण किसी कत्ल के केस में बचाव पक्ष के वकील के तौर पर पेश हों ,और गीता में कत्ल के हक में जो कुछ उन्होंने कहा है , उसी को अभियुक्त के हक में तर्क के तौर पर पेश करें तो इसमें ज़रा भी संदेह नहीं कि उन्हें पागलखाने भेज दिया जाएगा :
If Krishna were to appear as a lawyer acting for a client who is being tried for murder and pleaded the defence set out by him in the Bhagavat Gita , there is not the slightest doubt that he would be sent to the lunatic asylum . ( Dr. Baba Saheb Ambedkar : Writings and speeches ,
Published by Govt . of MaharashtraVol 5 , p . 364 )
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
' गीता 2/19 '
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।
" गीता 2/23 " ..
अर्थात आत्मा को कोई सस्त्र काट नहीं सकता,आग जला नहीं सकती,पानी भिगो नहीं सकता,और वायु सुखा नहीं सकती.
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
- 2 / 30 ॥
( सब के शरीर ( देह ) में ( रहने वाला ) शरीर का स्वामी अर्थात आत्मा सर्वदा अवध्य है अर्थात् उसका वध हो ही नहीं सकता ; अतः हे अर्जुन ! किसी भी प्राणी के विषय में शोक करना उचित नहीं ) .
कृष्ण बराबर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और गीता की समाप्ति पर अर्जुन मान जाता है और कहता है कि हे कृष्ण तुम्हारा कहना मानकर युद्ध करूंगा ( गीता 18/73 ) .
:बुद्धिज्म विविध आयाम, 125 - 128.
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