Thursday, 3 September 2020

ब्राह्मण भोज, श्राद्ध

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के सर्ग 108 के श्लोक 1 से 17 तक में जाबाली की कथा है जो राम को उपदेश देते हुए कहता है -

"हे राम मैं उन व्यक्तियों के लिए चिंतित हूँ, जो इस लोक की चिंता छोड़ के परलोक की चिंता में डूबे रहते हैं। जो अवैज्ञानिक चिन्तन पर आधारित राजव्यवस्था की कोरी कल्पना, शरीर और आत्मा में भेद मानकर , पुनर्जन्म की कल्पना में जीवन नष्ट करते हैं और आकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं । जो प्रतिवर्ष अपने मरे हुए पितरो को श्राद्ध के नाम पर अन्न नष्ट करते हैं। आप बताइये की क्या मृत व्यक्ति भोजन खा सकता है ? या ब्राह्मणो को भोजन खिलाने से उनके सम्बन्धियो की की भूख शांत हो सकती है ?। यदि ऐसा है तो यात्री अपने साथ भोजन बाँध कर क्यों ले जाता है? क्यों नहीं यात्रियों के संबंधी उनके भूख के समय ब्राह्मणो को भोजन कराकर यात्रियों की भूख शान्तं करते?

वास्तव में ये कहानियां उन चतुर व्यक्तियो द्वारा गढ़ी हैं जो भोले नासमझ लोगो को मुर्ख बना उन्हें लूटने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने जनसाधारण को दान दक्षिणा देने , यज्ञ करने, हवन कथा करने, भूखे व्रत उपवास कराने के तरीके का अविष्कार कर स्वयं बिना मेहनत के धन प्राप्त  करते हैं ।  अत: हे राम !आप बुद्धि से काम लो। इस जीवन के अतरिक्त और कोई जीवन मिलने वाला नहीं है , यह निश्चित माने।"


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हिन्दुओं मे एक मान्यता है कि यदि वो अपने पितरो का श्राद्ध 'गया' मे जाकर करेंगे तो उनकी आत्मा को "मोक्ष" प्राप्त होगा!
ऐसा मानना है कि कोई कितना भी पापी क्यों न हो, सुवर्णचोर हो, गुरूपत्नि गमन का दोषी हो, या ब्रह्म-हत्यारा ही हो... यदि उसका श्राद्ध गया मे किया गया तो भगवान गदाधर (विष्णु) के प्रभाव से वह भोक्षगामी बन जाता है! यही वजह है कि गया एक बड़ा तीर्थ बन गया है और लाखों लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने गया जाते हैं!

गया मे एक श्राद्ध (पिण्ड-दान) के समय एक श्लोक का जाप किया जाता है, जो निम्न है-
"एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन।
परलोकं गते मोक्षमक्षरूयमुपतिष्ठताम्‌।।"

अर्थात- हे जनार्दन! भगवान्‌ विष्णु! मैंने आपके हाथ में यह पिण्ड प्रदान किया है। अतः परलोक में पहुंचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो। 
और मानना है कि ऐसा करने से मनुष्य पितृगणो के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोक प्राप्त करता हैं!

यहाँ सोचना यह है कि गया मे ऐसा क्या है जो मृतात्मा को सीधा मोक्ष दे देती है! इसके पीछे भी एक कहानी गढ़ी गयी है जो विस्तार से "वायुपुराण" मे लिखी गयी है!
इसी कथा का कुछ अंश "अग्निपुराण" के 114वें अध्याय (गया माहात्म्य) मे मिलता है..

प्राचीनकाल मे एक 'गयासुर' नामक असुर था, वह बड़ा धर्मनिष्ठ और तपस्वी था! उसने तप से अपने शरीर को त्रिदेवों की तरह पवित्र बना लिया था!
उसका तपस्वी शरीर इतना पवित्र हो गया था कि जिस तरह प्राणी ईश्वर के दर्शन करने से मोक्ष को प्राप्त करते है, उसी तरह गयासुर के दर्शन-मात्र से वह वैकुण्ठ प्राप्त करने लगे!

अब तो सारे देवता परेशान हो गये और विष्णु के पास जाकर बोले कि- हे हरि! गयासुर अपने तप और आपके आशिर्वाद से पृथ्वी पर मौजूद सभी तीर्थों से पवित्र हो गया है, अतः महापातकी इंसान भी उसका दर्शन करके सीधा आपके धाम वैकुण्ठ आने लगे है! 
हे नारायण! इससे तो सारी धरती के प्राणी वैकुण्ठ-वासी हो जायेगे, फिर यदि पापी लोग भी इसके दर्शन से वैकुण्ठ प्राप्त करेंगे, तो जो महात्मा पुण्य--कर्म करते हैं उनको बड़ी ग्लानि होगी।
देवताओं ने विष्णु से कहा कि प्रभु आप इसका कुछ उपाय करो....
तब विष्णु ने ब्रह्माजी को एक योजना बतायी, और उस योजना के अनुसार ब्रह्मा गयासुर के पास गये और बोले- हे असुरराज! हम सारे देवगण धरती पर एक यज्ञ करना चाहते हैं, आप इस समय इस क्षेत्र के राजा हो, अतः हम आपके पास यज्ञहेतु पवित्र स्थान मांगने आये हैं!
गयासुर ने कृतज्ञता से कहा कि हे पितामह् आपको जो स्थान पवित्र लगे आप मांग लो, मै आपको वह स्थान देने का वचन देता हूँ!
तब ब्रह्मा ने कहा कि हे गयासुर! इस समय धरती पर सबसे पवित्र तुम्हारा शरीर ही है, अतः तुम अपने वचनानुसार इसे हमे दान दे दो, हम इसी पर यज्ञ करेंगे...

गयासुर समझ गया कि उससे छल किया गया है, पर अब वह देवताओं के षणयन्त्र मे फंस चुका था, अतः असुर होते हुये भी उसने अपने वचन का पालन किया और अपना शरीर देवों को सौंप दिया!

इसके बाद गयासुर भूमि पर लेट गया, और उसका शरीर जितने विस्तार मे फैला उसी को गया तीर्थ माना जाता है!
फिर देवों ने उसके शरीर पर यज्ञ किया! यज्ञ की ज्वाला से गयासुर तड़पने लगा, तब देवताओं ने एक बड़ी सी शिला (पत्थर) लाकर उसके ऊपर रख दिया और सारे देवता उसी पर बैठ गये.....   और तो और स्वयं विष्णु भी गदाधर स्वरूप मे उसी शिला पर आरूढ़ हो गये, तथा इस तरह से देवताओं ने एक असुर का छल से विनाश कर दिया।

चूँकि पौराणिकों का मानना है कि गयासुर के पास ब्रह्मा, विष्णु सहित सारे देवता एकत्र हुये थे, अतः यह भूमि बहुत पवित्र है! जो यहाँ अपने पितरों का श्राद्ध करेगा, उसके पितृ तमाम पापकर्मों से च्युत होकर सीधा वैकुण्ठ चले जायेगे!

वैसे यह बड़ा अजीब लगता है कि असुर जब अधर्मी होते थे तब भी देवता छल से उन्हे मार देते थे, और जब वो धर्मनिष्ठ होते थे तब भी इनके छल का शिकार हो जाते थे!

गयासुर और राजा बलि इस छल-कपट के सबसे बड़े उदाहरण है!

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हिन्दुओं मे एक मान्यता है कि यदि वो अपने पितरो का श्राद्ध 'गया' मे जाकर करेंगे तो उनकी आत्मा को "मोक्ष" प्राप्त होगा!
ऐसा मानना है कि कोई कितना भी पापी क्यों न हो, सुवर्णचोर हो, गुरूपत्नि गमन का दोषी हो, या ब्रह्म-हत्यारा ही हो... यदि उसका श्राद्ध गया मे किया गया तो भगवान गदाधर (विष्णु) के प्रभाव से वह भोक्षगामी बन जाता है! यही वजह है कि गया एक बड़ा तीर्थ बन गया है और लाखों लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने गया जाते हैं!

गया मे एक श्राद्ध (पिण्ड-दान) के समय एक श्लोक का जाप किया जाता है, जो निम्न है-
"एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन।
परलोकं गते मोक्षमक्षरूयमुपतिष्ठताम्‌।।"

अर्थात- हे जनार्दन! भगवान्‌ विष्णु! मैंने आपके हाथ में यह पिण्ड प्रदान किया है। अतः परलोक में पहुंचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो। 
और मानना है कि ऐसा करने से मनुष्य पितृगणो के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोक प्राप्त करता हैं!

यहाँ सोचना यह है कि गया मे ऐसा क्या है जो मृतात्मा को सीधा मोक्ष दे देती है! इसके पीछे भी एक कहानी गढ़ी गयी है जो विस्तार से "वायुपुराण" मे लिखी गयी है!
इसी कथा का कुछ अंश "अग्निपुराण" के 114वें अध्याय (गया माहात्म्य) मे मिलता है..

प्राचीनकाल मे एक 'गयासुर' नामक असुर था, वह बड़ा धर्मनिष्ठ और तपस्वी था! उसने तप से अपने शरीर को त्रिदेवों की तरह पवित्र बना लिया था!
उसका तपस्वी शरीर इतना पवित्र हो गया था कि जिस तरह प्राणी ईश्वर के दर्शन करने से मोक्ष को प्राप्त करते है, उसी तरह गयासुर के दर्शन-मात्र से वह वैकुण्ठ प्राप्त करने लगे!

अब तो सारे देवता परेशान हो गये और विष्णु के पास जाकर बोले कि- हे हरि! गयासुर अपने तप और आपके आशिर्वाद से पृथ्वी पर मौजूद सभी तीर्थों से पवित्र हो गया है, अतः महापातकी इंसान भी उसका दर्शन करके सीधा आपके धाम वैकुण्ठ आने लगे है! 
हे नारायण! इससे तो सारी धरती के प्राणी वैकुण्ठ-वासी हो जायेगे, फिर यदि पापी लोग भी इसके दर्शन से वैकुण्ठ प्राप्त करेंगे, तो जो महात्मा पुण्य--कर्म करते हैं उनको बड़ी ग्लानि होगी।
देवताओं ने विष्णु से कहा कि प्रभु आप इसका कुछ उपाय करो....
तब विष्णु ने ब्रह्माजी को एक योजना बतायी, और उस योजना के अनुसार ब्रह्मा गयासुर के पास गये और बोले- हे असुरराज! हम सारे देवगण धरती पर एक यज्ञ करना चाहते हैं, आप इस समय इस क्षेत्र के राजा हो, अतः हम आपके पास यज्ञहेतु पवित्र स्थान मांगने आये हैं!
गयासुर ने कृतज्ञता से कहा कि हे पितामह् आपको जो स्थान पवित्र लगे आप मांग लो, मै आपको वह स्थान देने का वचन देता हूँ!
तब ब्रह्मा ने कहा कि हे गयासुर! इस समय धरती पर सबसे पवित्र तुम्हारा शरीर ही है, अतः तुम अपने वचनानुसार इसे हमे दान दे दो, हम इसी पर यज्ञ करेंगे...

गयासुर समझ गया कि उससे छल किया गया है, पर अब वह देवताओं के षणयन्त्र मे फंस चुका था, अतः असुर होते हुये भी उसने अपने वचन का पालन किया और अपना शरीर देवों को सौंप दिया!

इसके बाद गयासुर भूमि पर लेट गया, और उसका शरीर जितने विस्तार मे फैला उसी को गया तीर्थ माना जाता है!
फिर देवों ने उसके शरीर पर यज्ञ किया! यज्ञ की ज्वाला से गयासुर तड़पने लगा, तब देवताओं ने एक बड़ी सी शिला (पत्थर) लाकर उसके ऊपर रख दिया और सारे देवता उसी पर बैठ गये.....   और तो और स्वयं विष्णु भी गदाधर स्वरूप मे उसी शिला पर आरूढ़ हो गये, तथा इस तरह से देवताओं ने एक असुर का छल से विनाश कर दिया।

चूँकि पौराणिकों का मानना है कि गयासुर के पास ब्रह्मा, विष्णु सहित सारे देवता एकत्र हुये थे, अतः यह भूमि बहुत पवित्र है! जो यहाँ अपने पितरों का श्राद्ध करेगा, उसके पितृ तमाम पापकर्मों से च्युत होकर सीधा वैकुण्ठ चले जायेगे!

वैसे यह बड़ा अजीब लगता है कि असुर जब अधर्मी होते थे तब भी देवता छल से उन्हे मार देते थे, और जब वो धर्मनिष्ठ होते थे तब भी इनके छल का शिकार हो जाते थे!

गयासुर और राजा बलि इस छल-कपट के सबसे बड़े उदाहरण है!


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मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...