प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे, लिंग पूजा को स्कम्भ कहा जाता था, जो आर्य धर्म का प्रमुख अंग थी, जैसा कि अथर्व वेद के मंत्र 10.7 में है,वैदिक आर्यों में एक और अश्लील प्रथा थी,जिसने ही प्राचीन आर्य वैदिक धर्म को विकृत किया हुआ था, वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि, अश्वमेध यज्ञ का अनावश्यक हिस्सा एक यह था कि मेघित (मृत अश्व) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में पुरोहितों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र 23.18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है,जो इस विषय मे और अधिक जानना चाहते हैं वे यजुर्वेद की महीधर टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं,जहां वे इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं-
(बाबासाहब डा.अम्बेडकर के विचार--यशवंत सोनटक्के-पृष्ठ-76).
`अश्वमेध-यज्ञ का सच’
______________________________________
अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ होता था, और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। आपस्तम्ब: में लिखा है: सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं। अर्थात जब कोई राजा अपने साम्राज्य व आस-पास के अन्य राजा-महाराजाओं को युद्ध में परास्त कर देता और उसे बंदी या हत्या कर उनकी रानियों, दासियों और परास्त राजा के महलों की समस्त धन संपदा लूटकर अपने साथ ले आता तब वह राजा स्वयं को समस्त भूमि का मालिक अर्थात “भूपति” मानकर गौरान्वित हो जाता |इस अवसर पर उनके राजपुरोहित-ब्राहमण आदि उसे “अश्वमेध” यज्ञ की सलाह देते ताकि वह “दिग्विजयी राजा” की उपाधि से अलंकृत हो सके |इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक अधिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्थ आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रोत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया।
-यज्ञ का प्रारम्भ-
यज्ञ का प्रारम्भ बसन्त अथवा ग्रीष्म ॠतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्राय: एक वर्ष का समय लगता था। सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व (घोड़ा) चुना जाता था। यज्ञ स्तम्भ में बाँधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी। इसके सिर पर जय-पत्र बाँधकर छोड़ा जाता था। एक सौ राजकुमार, एक सौ राज सभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिये सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था। यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुन: की जाती थी।
-दिग्विजय-यात्रा-
जब यह अश्व दिग्विजय-यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतिक्षा करते थे।
जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था।
वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशु-यज्ञ होते थे, जिनमें सैकड़ों पशुओं यथा अश्व, भेड़-बकरों तथा अन्य हजारों जानवरों की बलीयां दी जाती एवं सोमरस (मदिरापान ) किया जाता था।
दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णावरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में बाँधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता (यजमान, हवन करने वाला) एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्म करते थे।
पुन: अश्व एक बकरे के साथ यज्ञ स्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिये अलग-अलग स्तम्भों (खूंटों) में बाँधे जाते थे। कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था ताकि मर सके ।
पुन: मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रा-वरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी, अर्थात जहाँ मुख्य अश्व बंधा हुआ होता वहाँ चारों तरफ कपड़े से पर्दा कर दिया जाता ताकि अन्य लोग देख न सकें ।इस परदे के भीतर बंधे हुए अश्व के साथ मुख्य रानी और एक पुरोहित ही रहता था |यह पुरोहितादि-ब्राह्मण रानी के साथ प्रमोद्पूर्वक (अश्लील) प्रश्नोत्तर करते थे ताकि रानी को कामवासना से जागृत किया जा सके ।
साथ ही ये पुरोहित-ब्राह्मण अपने वाक-चातुर्य से ऐसे द्विअर्थी छंदवाचन के साथ रानी के लिए आदेशात्मक वाक्य बोलते और रानी उनके कहेनुसार करती जाती इस प्रकार अंत में रानी एक-एक कर सारे वस्त्र ऊतार कर निर्वस्त्र हो जाती, साथ ही पुरोहित-ब्राहमण भी |
इस कार्य में उस अश्व को इस प्रकार से बांधा जाता व लकड़ियों से इस प्रकार प्रबंध किया जाता की घोड़ा अपने स्थान से हिल-डुल न सके ताकि रानी उसके नीचे आराम से सो सके |कुछ समय पश्चात् रानी घोड़े के नीचे सोकर सहवास का प्रयास करती, अगर कारणवश अश्व द्वारा ऐसा न हो पाता तो उसकी बलि देने के पश्चात् मरे हुए अश्व के लिंग से इस रश्म की अदायगी रानी को करनी होती |इससे पूर्व ब्राहमण के प्रमोद-प्रश्नोत्तरों के साथ निर्वस्त्र व पहले से ही वासना से जागृत रानी के साथ स्वयं ब्राहमण (पुरोहित) सम्भोग भी करता |कुछ समय बाद ज्यों-ही मुख्य रानी उठ खड़ी होती, त्यों-ही चातुरीपूर्वक यज्ञ-अश्व काट दिया जाता था |”
(देखें, महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित, डॉ.बाबासाहब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज़ खंड ३ के पृष्ठ १५३-१५७)
स्वामी दयानंद ने, यजुर्वेद भाष्य (पृष्ठ ७८८) में लिखा है: अश्विम्याँ छागेन सरस्वत्यै मेशेगेन्द्रय ऋषमें (यजुर्वेद २१/ ६०) अर्थात: प्राण और अपान के लिए दु:ख विनाश करने वाले छेरी आदि पशु से, वाणी के लिए मेढ़ा से, परम ऐश्वर्य के लिए बैल से-भोग करें.)
अबोधगम्य कृत्यों के पश्चात, जिसमें सभी पुरोहित एवं यज्ञ करने वाले सम्मिलित होते थे, अश्व के विभिन्न भागों को भूनकर प्रजापति को आहुति दी जाती थी। तीसरे दिन यज्ञकर्ता को विशुद्धि-स्नान कराया जाता, जिसके बाद वह यज्ञ कराने वाले पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान देता था।
दक्षिणा जीते हुए देशों से प्राप्त धन का एक भाग होती थी। जिसमें दासियों सहित रानियों को भी उपहार सामग्री के रूप में दिये जाने का उल्लेख पाया जाता है।
इस प्रकार के अश्लील यज्ञ “अश्वमेध” को ब्रह्म-हत्या आदि पापक्षय, स्वर्ग प्राप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित किया जाता रहा था।
ये आर्य पुरोहितादी-ब्राहमण इस प्रकार यज्ञ-भूमि पर धार्मिक रश्मों के नाम पर खुले आम मैथुन करते थे.
इसके अलावा ब्राहमण कुछ धार्मिक रीतियाँ जिन्हें वामदेव-विरत कहा जाता था, ये रीतियाँ यज्ञ-भूमि पर ही की जाती थी. यदि कोई स्त्री पुरोहित के सामने सम्भोग करने की इच्छा प्रकट करती थी तो वह उसके साथ वहीँ बलि के जानवरों के साथ परदे में मैथुन किया जाता था | ऐसा करना उस स्त्री के लिए सोभाग्य माना जाता था |
इस प्रकार इन विदेशी यूरेशियन आर्य-ब्राहमणों ने “अश्वमेघ-यज्ञ”, “पुत्रेष्ठी-यज्ञ” और वामदेव-विरत के साथ ही अनेकों प्रकार के यज्ञादि कार्यों से मुफ्तखोरी व “धार्मिक-मैथुन” परम्परा के रूप में अपनी श्रेष्ठता कायम कर हजारों सालों से वैदिक परम्परा द्वारा भारत में लूट मचाये रखी |
‘हालत को सबसे पहले महात्मा बुद्ध ने समझा और बौद्ध धर्म की स्थापना कर अहिंसावादी और समतावादी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी । ताकि सभी लोग अन्धविश्वासी परम्पराओं और जाति-पाति को छोड़कर समता, समानता, बंधुत्व और न्याय के शासन में शांति और प्रेम से रह सके। बहुत से लोगों ने महात्मा बुद्ध की बात को समझा और मोर्य वंश के उत्थान तक भारत में बहुत से लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए। लोगों का जीवन स्तर सुधरने लगा। ब्राह्मणवाद देश के हर कोने से समाप्त होने लगा।
सम्राट अशोक ने इस कार्य में विशेष योगदान दिया और बुद्ध धर्म को देश के कोने कोने में पहुँचाया। यहाँ तक बुद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार देश से बाहर बहुत से देशों में किया। यहीं नहीं सम्राट अशोक ने तो ऐसे यज्ञों पर पुर्णतः पाबन्दी लगा दी जो हिंसक व अश्लील होते थे |
इधर इन ब्राह्मणवादी आर्यों द्वारा लोगों को ठगने और मुफ्त में ऐश करने की आदत पड़ चुकी थी। देश का कोई भी मूलनिवासी ब्राह्मण व्यवस्था को मानने को तैयार नहीं था और ब्राह्मणों को दान देना भी लोगों ने बंद कर दिया था। ब्राह्मणवादी आर्यों के भूखे मरने के दिन आने लगे थे तो आर्यों ने फिर से एक बार मंत्रणा की और अपने आपको फिर से स्थापित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए।
सम्राट अशोक के पौत्र बृहदत के दरबार में पुष्यमित्र शुंग नामक एक आर्य सेनापति था। ब्राह्मणवादी आर्यों ने पुष्यमित्र शुंग जो स्वयं ब्राहमण था मगर परम्परागत आजीविका बंद होने के बाद मोर्य सम्राट वृह्दत्त की सेना में सेनापति बन गया, को अपनी ओर मिला लिया। ब्राह्मणवादी आर्यों ने एक षड्यंत्र रचा और उस षड्यंत्र के तहत पुष्यमित्र शुंग के हाथों भरे दरबार में बृहदत की हत्या करवा दी। हत्या के बाद पुष्यमित्र शुंग ने स्वयं को पाटलिपुत्र का राजा घोषित कर दिया। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धर्म को समाप्त करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। बहुत से बौद्ध भिक्षुयों को मार दिया गया। बौद्ध धर्म के मंदिरों और स्तूपों को नष्ट कर दिया गया। बहुत से बौद्ध भिक्षु भारत छोड़ कर भाग गए। इस षड्यंत्र से एक बार फिर से भारत में ब्राह्मणवादी आर्यों का शासन स्थापित हो गया।
यही वो पुष्यमित्र शुंग है जिसको आज के सभी ब्राह्मणवादी हिन्दू “राम” भगवान के नाम से याद कर पूजते है। पुष्यमित्र शुंग को भगवान बनाने का श्रेय वाल्मीकि को जाता है, जो पुष्यमित्र शुंग के दरबार में राजकवि हुआ करता था। जिसने कल्पित रामायण की रचना कर ब्राह्मणों के लिए फिर से “आराम” के दिन लौटाने वाले को “राम” बना दिया |
यही से इन यूरेशियन आर्य ब्राह्मणों के लिए पुष्यमित्र शुंग के द्वारा एक बार फिर से “राम-राज्य” लौट आता है |
पुष्यमित्र शुंग ने दो बार “अश्वमेध-यज्ञ” भी किया | यहाँ विचार करने योग्य बात है की अगर राम नाम का कोई अन्य वास्तविक भगवान था तो क्या उस राम भगवान ने इस प्रकार के “अश्वमेध-यज्ञ” किये ?
आज हम हिन्दू लोग जिस राम को ‘भगवान’ मानकर पूजा व आदर करते है असल में वो भगवान और कोई नहीं बल्कि ‘पुष्यमित्र शुंग’ नमक ब्राहमण राजा ही था, जिसने ब्राहमणों के लिए मुफ्तखोरी के दिन पुनः लाकर भागवत-धर्म का प्रचार-प्रसार कर बोद्ध धर्म को ख़त्म करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी |
वही ‘पुष्यमित्र शुंग’ ब्राहमणों के (हिन्दू) ग्रंथों में ब्राह्मणों की शक्ति का स्वरूप दर्शाने के लिए ‘परशुराम’ नामक मिथक भी गढ़ा गया !
धीरे-धीरे समय के साथ यज्ञ कार्यों में बलि व मैथुन-प्रथा में कमी आने लगी जिसका मुख्य कारण पवित्र बोद्ध-धम्म की मान्यता व व्यापकता रही |
आर्यों ने अहिंसावादी बोद्ध धम्म के पुनः बढ़ते प्रभाव की वजह से अपने यज्ञादि-कर्म-कांडों में परिवर्तन शुरू कर दिया, हालाँकि बलि-प्रथा आज भी विद्यमान है मगर आज अगर आधुनिक-यज्ञों की तुलना प्राचीन यज्ञों से करे तो कोई यह मानने को तैयार ही नहीं होगा की प्राचीन “वैदिक-यज्ञ” ऐसे भी होते थे !!!
यही वजह है की अगर आज किसी ब्राह्मणवादी से आर्यों के प्राचीन अश्लील कर्म-काण्डों और ऐसे यज्ञों का जिक्र करे तो वह काट-खाने आयेगा |
___________________________________________________________________________
“संस्कृति की अलगनी पर यह जो टंगा है, क्या अश्लील है ?”
**********************************************
गालियों पर भड़कने वाले शब्द-चेतन सामाजिक प्राणियों को मालूम होना चाहिए कि अंदर की वेदना कई बार असभ्य तरीके से भी बाहर आती है। और इस असभ्यता को हमेशा नैतिकता के डंडे से हांकना उचित नहीं है। इस मामले में भारत की महान संस्कृति की दुहाई देने वाले पाठकों और विद्वानों के लिए यहां हम ‘अश्वमेध-यज्ञ’ में किये जाने वाले अश्लील नाटक का एक अंश दे रहे हैं, जिससे पता चलता है कि गाली और अश्लीलता किस तरह भारतीय समाज में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। जंगलयुग से लेकर आज तक सभ्यता के विकास की एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया रही है।
जो लोग भारतीय संस्कृति और सभ्यता को सिर्फ अपने रंगीन चश्मे से देखने के आदी रहे हैं और जिन्हें अतीत में सब कुछ हरा ही हरा दिखाई देता है, उन्हें यह पाठ सोचने पर मजबूर करेगा।
स्वांग का यह पाठ ‘कृष्ण यजुसंहिता’ तथा ‘शुक्ल यजुसंहिता’ में थोड़ा भिन्न रूप में है। यहां कृष्ण यजुसंहिता का अंश दिया जा रहा है। उक्त अंश को हमने प्रसिद्ध समाजशास्त्री विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ पीपीएच प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण 1988, की पृष्ठ संख्या 124-125 से साभार लिया है।
पाठ के साथ ही लेखक की टिप्पणी को भी यथावत रखा गया है, जिससे कि भारतीय समाज की विकास-यात्रा को समझने में सहायता मिलती है :
– मॉडरेटर…
“अश्वमेध-यज्ञ में किया जाने वाला अश्लील नाटक” :-
“साम्राज्य, राष्ट्र, संपत्ति वीर्यवान प्रजा की प्राप्ति हेतु ‘अश्वमेध-यज्ञ’ करने की प्रथा थी। यज्ञ में स्त्री-पुरुष मिश्रित सब प्रकार के समूह रहते थे। वहां अध्वर्यु, उद्गातृ, होता जैसे ऋत्विज पुरुष हुआ करते थे और महिषी, यजमान-पत्नी आदि स्त्रियां रहती थीं। वहां वीर्यवान प्रजा उत्पन्न हो, इस कामना की पूर्ति के लिए निम्न प्रकार का नाटक खेला जाता था।”
(अश्वमेध के घोड़े की बली के पश्चात्के यज्ञ स्थल पर उनके ‘मृत’ होकर गिर जाने के बाद वहां राजपत्नियों को बुलाकर लाया जाता था। )
राजपत्नियों में से पटरानी अपनी माता या सपत्नियों को संबोधित करके कहती थी :–
“मां और सपत्नियों, यह मुआ घोड़ा ही मेरे साथ सोएगा ! क्योंकि मुझे अभिगमन (सम्भोग) के लिए दूसरा कोई भी नहीं ले जा रहा है।”
पटरानी की यह शिकायत सुनकर घोड़ा (अध्वर्यु के रूप में ब्राहमण) हड़बड़ा कर जाग उठता है और पटरानी से कहता है :–
“आओ, हम यहां क्षौमवस्त्र (धुला हुआ वस्त्र) शरीर पर ओढ़कर सोएं।
इस सुझाव को सम्मति देकर पटरानी कहती है :–
“मैं तुम्हारे पास गर्भधारणार्थ आयी हूं, तुम भी मेरे पास बीज डालने के लिए आओ; आओ हम पैर फैलाकर सोएं।”
(घोड़ा तथा पटरानी के एक-दूसरे के पास लेटने के बाद प्रतिप्रस्थाता कहता है – यह घोड़ा वीर्यसिंचन करे और तुम्हारी योनि उस रेत को धारण करे।)
इस प्रकार का मंत्र कहकर, ऋत्विज घोड़े का लिंग, रानी की योनि के पास लाता है और कहता है – जांघ पर जांघ रख, और लिंग योनि में डाल। स्त्रियों को लिंग जान से भी प्यारा होता है क्योंकि वह योनि को कुचलता है, और योनि के काले छेद में रहने वाले बीज को मारता है।
यह नाटक होने के बाद रानी कहती है –
“महिलाओ, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।”
इस पर अन्य स्त्रियां कहती हैं :–
“जंगल में घास का गट्ठर उठाते समय जिस तरह कूल्हे आगे करते हैं, उसी तरह तुम अपनी योनि आगे उठाओ और उसका मध्य भाग बढ़ाओ।”
पटरानी यह सब करती है, तब घोड़ा सो जाता है। फिर रानी अन्य स्त्रियों से पुन: कहती है :–
“नारियो, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता, इसलिए मैं घोड़े के पास सोती हूं।”
इस पर एक स्त्री यह टिप्पणी करती है :–
“हिरनी रोज ही जंगल की घास छोड़कर खेत की घास चुराकर खाती है, परंतु उससे उसका पेट भरता नहीं लगता। शूद्र स्त्री वैश्य के साथ रमण होती है परंतु उस प्रेम के खेल में उसको संतोष नहीं होता।”
इस टिप्पणी पर रानी उत्तर देती है कि :–
“घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है कि अन्य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।”
इस पर दूसरी स्त्री कहती है :–
“तुम्हारी यह योनि किसी चिड़िया के समान धीरे-धीरे हिल रही है, उसमें वीर्य पड़ा है और यह गुलगुल की आवाज कर रही है, फिर शिकायत करने की कहां जगह है? “
इस टिप्पणी का भी रानी उत्तर देती है :–
“शिकायत न करूं तो क्या करूं? मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूं।”
इस पर एक तीसरी कहती है :–
“तूं यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी मां को तो यह भी नहीं मिला। तेरी मां और तेरा बाप पेड़ पर चढ़ते थे और फिर तेरे बाप से योनि छिलने के कारण तेरी मां योनि में अपने हाथ की मुट्ठी ही ठूंसती थी। इससे तो घोड़ा अच्छा है या नहीं?”
उपरोक्त पाठ पर लेखक विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे की टिप्पणी :-
‘कृष्ण यजुसंहिता’ तथा शुक्ल युजुर्संहिता में वर्णित यह पाठ कुल मिलाकर एक नाटक और नकल है। यह नकल क्षुद्र, अधम तथा वीभत्स है, यह बात अश्वमेघ करने वाले राजा लोग और ऋत्विज जानते थे। दधिक्राव्णो अकारिषं मंत्र में वे यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं, उन्होंने जो नाटक किया वह वीभत्स था। परंतु यह वीभत्स व्यवहार पूर्व परंपरा के अनुसार करना आवश्यक होने के कारण उनका यह पक्का विश्वास था कि यज्ञ पुरुष अपना कुछ अच्छा ही करेगा, बुरा नहीं। वीभत्स भाषण करने से यज्ञ याजक का जो कुछ भी कल्याण करता होगा, वह करता रहे, किंतु समाजशास्त्रियों का तो इस वीभत्स नाटक से एक फायदा निश्चित रूप से होता है। उन्हें वैदिक ऋषियों के वन्य पूर्वजों के रीति-रिवाज का ज्ञान होता है। और ये वीभत्स भाषण लिखकर रखने के लिए संहिताकारों के वे बहुत ऋणी हैं। यज्ञभूमि पर मैथुन से संबंधित वीभत्स नाटक वैदिक ब्राह्मण, क्षत्रिय पूर्वजों के समय से चलती आयी परंपरा के रूप में करते थे, नित्य व्यवहार के परिपाठ के रूप में नहीं। वेदकाल में राजा और ब्राह्मण सभ्य और शिष्ट थे, वे असभ्य भाषा का प्रयोग करने से डरते थे। परंतु यज्ञ कार्य में धार्मिक परंपरा के रूप में वीभत्स शब्द कहना, वीभत्स हाव-भाव और बर्ताव करना उन्हें श्रेयस्कर तथा हितप्रद प्रतीत होता था। परंपरा के रूप में समाज में इस प्रकार की प्रथाएं अवशेषस्वरूप रहती हैं और बर्दाश्त की जाती हैं, इसका यह उदाहरण है। उदाहरण के लिए यह बताया जा सकता है कि विवाह के समय दूल्हे के बदन पर पदत्राण फेंकने की कई यूरोपीय लोगों में प्रचलित प्रथा तथा होली के दिन अश्लील शब्द बोलने की ब्राह्मणादि हिंदुओं की रूढ़ि अथवा पास-पास के दो गांवों की लड़कियों द्वारा गांव की सीमा पर जाकर एक दूसरी के बाप-दादाओं और मां-बहनों को गाली-गलौज करने की गांववालों की प्रथा – ये सब प्रथाएं… परंपरा के रूप में चलती आयी हैं, और समाज उन्हें बर्दाश्त करता है !
…अस्तु।
No comments:
Post a Comment