रावण को मारने के पश्चात राम सीता से कहते है, उसके कुछ अंश-
भद्रे ! समरागणमें (युद्ध) में शत्रुको पराजित करके मैंने तुम्हें उसके चंगुलसे छुड़ा लिया। पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब मैंने किया। मुझ पर जो कलंक लगा था, उसका मैंने मार्जन कर दिया। जब तुम आश्रम में अकेली थी, उस समय वह चंचल चित्त वाला राक्षस तुम्हें हर ले गया। वह दोष मेरे ऊपर दैव वश प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने मानव साध्य पुरुषार्थ के द्वारा मार्जन कर दिया। जो पुरुष प्राप्त हुए अपमान का अपने तेज या बलसे मार्जन नही कर देता है, उस मन्दबुद्धि मानव के महान पुरुषार्थ से भी क्या लाभ हुआ ? अपने तिरस्कार का बदला चुकाने के लिए मनुष्य का जो कर्त्तव्य है, वह सब मैंने अपनी मानरक्षा की अभिलाषा से रावण का वध करके पूर्ण किया। तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम उठाया है तथा इन मित्रों के पराक्रमसे जो इसमें विजय पायी है, यह सब तुम्हें पाने के लिये नही किया गया है। तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो, जैसे आँखों के रोगी को दीमक की ज्योति नही सुहाती, उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो। अतः जनक कुमारी ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ! ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिये खुली है। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नही है।
कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्रीको, केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा। रावण तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान् बताया हुआ मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ।
अतः जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था, वह सिद्ध हो गया । मेरे कुल के कलंक का मार्जन हो गया। अब मेरी तुम्हारे प्रति ममता या आशक्ति नही है, अतः तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो। तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के संरक्षण में सुख पूर्वक रहने का विचार कर सकती है। सीते ! तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण के पास भी रह सकती हो। जहाँ तुम्हें सुख मिले, वही अपना मन लगाओ। सीते ! तुम जैसी दिव्यरुप सौन्दर्यसे सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में स्थित देखकर रावण चिर काल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नही सह सका होगा।
सीताने रामसे कहा---
वीर ! आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रुखी बात मुझे क्यों सुना रहे है। जैसे कोई निम्न श्रेणीका पुरुष निम्न कोटि की ही स्त्रीसे न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे है। नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही संदेह करते है तो यह उचित नही है। नृपश्रेष्ठ ! आपने ओछे मनुष्य की भाँति केवल रोषका ही अनुसरण करके मेरे शील-स्वभाव का विचार छोड़कर केवल निम्न कोटि की स्त्रियोंके स्वभाव को ही अपने सामने रखा है ।
श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे द्वितीय खण्ड- पृ-620-622 तक । गीताप्रेस, गोरखपुर
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सच्ची रामायण
पेरीयार रामास्वामी अपनी किताब "सच्ची रामायण " मे लिखते है... राम सीता कोई आदर्श पात्र नही है... राम और सीता बहुत व्यभिचारी (अश्लील) है. हनुमान कोई ब्रह्मचारी व्यक्ती नही था. राम और हनुमान मे सौदा हुआ था. उस सौदे मे
हनुमान सीता से संभोग की मांग करता है. यह सौदा छुपाने के लिये "राम सागर प्रस्तुत " रामायण मे हनुमान को ब्रह्मचारी व्यक्ती दिखाया गया है....!!!
पेरीयार रामास्वामी की किताब " सच्ची रामायण " पर उ.प. हायकोर्ट के मुकदमा दर्ज हुआ... पेरीयार रामास्वामी के तरफ से " ललई सिंह यादव " इन्होने मुकदमा लडा और मुल रामायण के श्लोको का उदाहरण देके यह सिद्ध किया की " सच्ची रामायण " किताब मे पेरीयार रामास्वामीजी ने जो भी लिखा है वो " शत प्रतिशत सत्य" है और मुकदमा जीत भी लिया... मुकदमे का निर्णय जो की पेरीयार रामास्वामी के पक्ष मे था वह किताब के आखरी पृष्ठ पर छापा हुआ है.
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बाल्मीकि रामायण में राम द्वारा शम्बूक के वध की कथा इसके रचनाकाल के दौरान वैदिक ब्राह्मणों के वर्चस्व की झलक तो देती ही है, यह शूद्रों के प्रति उनके क्रूर तथा अन्यायपूर्ण व्यवहार को भी प्रदर्शित करती है। ठीक वैसा ही जैसा उनका व्यवहार बौद्ध, तथागत, लोकायत व नास्तिकों के प्रति दिखाई देता है।
यह कथा बाल्मीकि रामायण में उत्तरकाण्ड के तिहत्तरवें सर्ग से प्रारंभ होकर छियत्तरवें सर्ग पर समाप्त होती है।
कथा संक्षिप्त में इस प्रकार है-
शत्रुघन को मथुरा भेजकर राम भरत और लक्ष्मण के साथ धर्मपूर्वक राज्य करते हुए सुख और आनंद से रहने लगे।
कुछ दिनों बाद उस जनपद में रहने वाला एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुए बालक का शव लेकर राजद्वार पर आया।वह स्नेह और दुःख से व्याकुल होकर रो रहा था और बार-बार "बेटा-बेटा" पुकारता हुआ विलाप कर रहा था।
वह विलाप करते हुए कहने लगा-" हाय! मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पाप किया था, जो इन आँखों से अपने इकलौते बेटे की मृत्यु देख रहा हूँ। बेटा अभी तो तू बच्चा था केवल पाँच हजार दिन की तेरी उम्र थी। तेरे दुःख से मैं और तेरी माँ थोड़े ही दिनों में भर जाएँगे। मुझे याद नहीं कि कभी मैंने झूठ बोला हो।किसी प्राणी की हिंसा की हो या कष्ट पहुँचाया हो। किस पाप से यह बेटा बिना पितृकर्म किये बचपन में ही यमराज के घर चला गया।रामराज्य में अकाल मृत्यु की ऐसी भयावह घटना न देखी न सुनी गई थी। निश्चय ही यह राम का कोई महान दुष्कर्म है। इसलिए इनके राज्य में यह घटना हुई है । मृत्युपाश में पड़े इस बालक को जीवित कर दो अन्यथा मैं अपनी पत्नी सहित इस राजद्वार पर अनाथ की तरह प्राण दे दूँगा। हे राम ! फिर ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना ।"
इस तरह वह ब्राह्मण बार-बार विलाप कर रहा था।
उसका विलाप सुनकर दुःखी राम ने वसिष्ठ, वामदेव, मंत्रियों और महाजनों को बुलाया और उनसे कहा-" यह ब्राह्मण राजद्वार पर धरना दिये पड़ा है।" राम ने उन्हें पूरी घटना बताई और समाधान चाहा।
यह सुनकर नारद ने कहा-" राजन! बालक की अकाल मृत्यु का कारण बताता हूँ। सुनिए। पहले सतयुग में ब्राह्मण ही तपस्वी थे, अन्य कोई तपस्या में प्रवृत्त नहीं होता था। तब ब्राह्मण उत्कृष्ट थे और क्षत्रिय अपकृष्ट थे, लेकिन त्रेतायुग में आकर ये समान शक्तिशाली हो गए। तब मनु आदि प्रवर्तकों ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था बनाई। सतयुग में कृषिकर्म आदि अधर्म थे, किन्तु त्रेतायुग में इनका विस्तार हुआ। इनके कुपरिणाम से बचने के लिये यह व्यवस्था बनाई गई। इस त्रेतायुग में ब्राह्मण व क्षत्रिय ही तपस्या के अधिकारी हैं। उन चारों वर्णों में से वैश्य और शूद्र को सेवारूपी उत्कृष्ट धर्म स्वधर्म के रूप में प्राप्त हुआ। वैश्य कृषि आदि कर्म से इन दो वर्ण की व शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करने लगे। इस युग में ब्राह्मण-क्षत्रिय का वैश्य-शूद्र के संसर्ग से दूसरी बार अधर्म का दूसरा पैर पड़ता है।इसलिए अगले युग का नाम द्वापर है। इस युग में वैश्यों को भी तपस्या का अधिकार है।शूद्र को इन तीनों ही युग में यह अधिकार नहीं है। कलयुग में हीन वर्ण अर्थात शूद्र योनि के मनुष्यों में तपस्या बढ़ेगी। जब द्वापर युग में ही यह महान अधर्म है तो इस त्रेतायुग में शूद्र का तप में प्रवृत्त होना तो होगा ही। राजन ! कोई खोटी बुद्धि वाला शूद्र आपके राज्य में तपस्या कर रहा है , उस कारण इस बालक की मृत्यु हुई है। शूद्र का यह कार्य राज्य को दरिद्र बनाता है व राजा नरक जाता है। हे नरशार्दूल! जो प्रजा के कर्मों के छठे भाग का उपभोक्ता है, वह प्रजा की रक्षा कैसे नहीं करेगा? आप अपने राज्य में ऐसे दुष्कर्म को रोकने का प्रयत्न कीजिए । इससे धर्म वृद्धि होगी, प्रजा की आयु बढ़ेगी तथा यह बालक जीवित हो जाएगा।"
नारद की बात सुनकर प्रसन्न हुए राम ने लक्ष्मण से कहा-"सौम्य द्विज को सान्त्वना दो और उस बालक के शरीर को विकृत होने से पहले ही उसे गन्ध-सुगंध सहित तेल से युक्त काष्ठ के बड़े कठौते में रखवा दो।"
इसके बाद दोनों भाइयों को नगर की रक्षा में नियुक्त करके वे अस्त्र-शस्त्र सहित पुष्पक विमान में सवार होकर दुष्कर्मी की खोज में निकल पड़े । सभी जगह खोजते हुए उन्हें दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर में एक बड़े सरोवर के तट पर नीचे को मुख लटकाए एक तपस्वी भारी तपस्या करता मिला ।
रघुनाथ राम ने उसके पास जाकर कहा-" उत्तम वृत का पालन करने वाले तापस। तुम धन्य हो। तपस्या में बढ़े-चढ़े सुदृढ़ पराक्रमी पुरूष । तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथपुत्र राम तुम्हारा परिचय जानने की उत्सुकता से ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें क्या पाने की इच्छा है, जिसके लिये यह कठोर तप कर रहे हो? तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो अथवा शूद्र? ठीक ठीक बताना ।"
यह सुनकर नीचे मस्तक किये लटका हुआ वह तथाकथित तपस्वी बोला-" मैं शूद्र योनि में उत्पन्न हुआ हूँ और सदेह स्वर्गलोक जाकर देवत्व पाना चाहता हूँ। मैं देवलोक पर विजय पाना चाहता हूँ । इस इच्छा से तपस्यारत हूँ। आप मुझे शूद्र समझिये। मेरा नाम शम्बूक है।"
वह इस प्रकार कह ही रहा था कि राम ने तलवार खींच ली और शम्बूक का सिर काट डाला। इन्द्र , वायु सहित देवताओं ने राम की प्रशंसा करते हुए कहा-" आपने देवताओं का कार्य सम्पन्न किया है, जिससे यह शूद्र सशरीर स्वर्गलोक नहीं जा सका । आप जो वर चाहें मांग लें।"
राम ने इन्द्र से ब्राह्मणपुत्र के जीवित होने का वर मांगा। देवताओं ने वर दिया तथा वह मृत ब्राह्मण पुत्र जीवित हो गया तथा अपने भाई बन्धुओं से जा मिला--
वाल्मीकि रामायण-पृष्ठ-1142- से-1147.
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