Thursday, 3 September 2020

गीता के गलत संदेश।

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यदि कोई पक्का दुराचारी होते हुए भी मेरी पूजा भक्ति सच्चे मन से करता है , तो उसे सदाचारी ही समझना चाहिए , क्योंकि वह मेरी भक्ति जो करता है, उसने ठीक निर्णय लिया है -
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् , 
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ,
        " गीता 9/30 "

यदि यहां पक्के दुराचारी को सदाचारी घोषित किया है तो एक दूसरे श्लोक में महापापी को, सबसे बड़े पापी को ,आश्वस्त किया गया है, कहा है, यदि तुम पापियों में भी महापापी हो , तो भी हमारे ज्ञान की नौका पर सवार होकर तुम पाप -महासागर को पार कर लोगे -
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः , 
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि , 
       "गीता 4/36"

अध्याय-18 के श्लोक 17 में कहा है कि यदि तुम अहंकार को छोड़कर और कर्मों से निर्लिप्त रहकर सारी दुनिया के लोगों को कत्ल कर भी न तुम कातिल कहे जाओगे और न बंधन में पड़ोगे- यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ,
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते , 
        " गीता 18/17 "
ये नैतिक रियायतें गीता में बार - बार क्यों दी जा रही हैं ? क्यों चोर - उचक्के ,बदमाश ,दुराचारी , पापी , हत्यारे आदि इतने प्यारे बन गए हैं ? 

एक ओर तो हमारी परंपरा यह रही है कि ' आचारः परमो धर्मः ' मनुस्मृति 1/108 ( आचरण ही परम धर्म है )। आचार की महिमा गाते हुए मनुस्मृति यह कहती है।

   बुद्धिज्म विविध आयाम-
 बुद्धवाद बनाम गीता-187-188-189-190.


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श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः , परधर्मात् स्वनुष्ठितात् , स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । 
              ' गीता 3/35 '
कि अपना धर्म दोषों से युक्त होते हुए भी दूसरे के भले धर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है, अपने धर्म में रहते हुए मर जाना श्रेयस्कर होता है ,जबकि दूसरे का धर्म अपनाना भयानक होता है।

कुछ हेरफेर के साथ यही श्लोक अध्याय 18 में भी आता है , जबकि पहली पंक्ति हू -ब -हू वही है जो 3/35 में है।

यहां अपने धर्म में बने रहने और दूसरे धर्म में न जाने की बात कही गई है, इस श्लोक में धर्म क्या है ? इसकी व्याख्या गीता के प्राचीनतम उपलब्ध शांकरभाष्य में शंकराचार्य ने नहीं की है, उन्होंने केवल इतना लिखा है - 

स्वो धर्मः स्वधर्मो , स्वधर्मे स्थितस्य निधनं मरणं अपि श्रेयः परधर्मे स्थितस्य जीवितात् , 
परधर्मों भयावहो नरकादिलक्षणं भयमावहति यतः 

( स्व ( अपने ) धर्म को ' स्वधर्म ' कहते हैं ,अपने धर्म में स्थित व्यक्ति का मरना भी परधर्म में स्थित होकर जीवित रहने से अच्छा है ,क्योंकि परधर्म में जाने से नरक रूपी भय पैदा हो जाता है,अतः परधर्म भयानक चीज है  )

शंकर ( मृत्यु 820 ई .) के समय में सारी बात स्पष्ट थी , अतः उन्होंने धर्म की व्याख्या नहीं की कि इससे क्या अभिप्राय है, परन्तु बाद के- ग्यारहवीं शताब्दी के - रामानुज धर्म का अर्थ अपने ' वर्ण के कर्तव्य ' करते हैं यानी उनके अनुसार अपनी जाति के कर्तव्य ही स्वधर्म है,दूसरी जाति के कर्तव्य ही परधर्म है।

बुद्धिज्म विविध आयाम
बुद्धिज्म बनाम गीता-184-185.

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डा.बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं कि यदि कृष्ण किसी कत्ल के केस में बचाव पक्ष के वकील के तौर पर पेश हों ,और गीता में कत्ल के हक में जो कुछ उन्होंने कहा है , उसी को अभियुक्त के हक में तर्क के तौर पर पेश करें तो इसमें ज़रा भी संदेह नहीं कि उन्हें पागलखाने भेज दिया जाएगा : 
If Krishna were to appear as a lawyer acting for a client who is being tried for murder and pleaded the defence set out by him in the Bhagavat Gita , there is not the slightest doubt that he would be sent to the lunatic asylum . ( Dr. Baba Saheb Ambedkar : Writings and speeches ,
Published by Govt . of MaharashtraVol 5 , p . 364 ) 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । 
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ 
            ' गीता 2/19 '

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । 
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 
           " गीता 2/23 " ..
अर्थात आत्मा को कोई सस्त्र काट नहीं सकता,आग जला नहीं सकती,पानी भिगो नहीं सकता,और वायु सुखा नहीं सकती.

 देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । 
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
              - 2 / 30 ॥ 
( सब के शरीर ( देह ) में ( रहने वाला ) शरीर का स्वामी अर्थात आत्मा सर्वदा अवध्य है अर्थात् उसका वध हो ही नहीं सकता ; अतः हे अर्जुन ! किसी भी प्राणी के विषय में शोक करना उचित नहीं ) .

 कृष्ण बराबर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और गीता की समाप्ति पर अर्जुन मान जाता है और कहता है कि हे कृष्ण तुम्हारा कहना मानकर युद्ध करूंगा ( गीता 18/73 ) .
     
 :बुद्धिज्म विविध आयाम, 125 - 128.



अन्तरवर्ण विवाह।


ब्राह्मणवाद ने प्रतिलोम विवाहों अर्थात् उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण के पुरुष के बीच विवाहों पर रोक लगा दी, वह वर्गों के बीच आपसी संबंध को समाप्त करने और उन्हें अलग - अलग करने और उनमें एक -दूसरे के प्रति समाज विरोधी भावना पैदा करने की दिशा में एक शक्तिशाली कदम था, लेकिन जहां एक ओर प्रतिलोम विवाहों द्वारा अंतःसम्बंधों का द्वार बंद कर दिया गया वहीं दूसरी ओर अनुलोम विवाह द्वारा अंतःसम्बंधों का द्वार खुला रखा गया, उसको बंद नहीं किया गया, जैसा कि सोपानी कृत असमानता विषयक खंड में उल्लेख किया गया है, ब्राह्मणवाद ने अनुलोम विवाह , अर्थात उच्च वर्ण के पुरुष और निम्न वर्ण की स्त्री के बीच विवाह जारी रखा, यूँ तो अनुलोम विवाह बहुत अच्छा नहीं कहा गया और यह सिर्फ एक ओर जाने का द्वार था , इसमें दूसरी ओर से नहीं आ सकते थे, फिर भी यह एक -दूसरे को मिलाने वाला द्वार था जिसके माध्यम से वर्गों को एक -दूसरे से बिलकुल अलग -थलग होने से रोकना संभव था,लेकिन ब्राह्मणवाद के घिनौने-प्रतिलोम विवाह का प्रभाव यह हुआ, कि उच्च वर्ण की माताओं के बच्चे निम्न वर्ण के कहलाएंगे जो उनके पिता का वर्ण होगा, अनुलोम विवाह पर इसका प्रभाव उलटा होगा, निम्न वर्ण की माताओं के बच्चे उच्च वर्ण के कहलाएंगे, जो उनके पिता का वर्ण होगा.
  
फलस्वरूप मनु ने प्रतिलोम विवाह को पूर्णतया रोक दिया और इस प्रकार निम्न वर्ण में उच्च वर्ण के आने पर कड़ाई से रोक लगा दी, यह चाहे कितना भी खेदजनक क्यों न हो परंतु जब तक अनुलोम विवाह और पितृ -सावर्ण्य के नियमों का पालन व्यवहार में होता रहा तब तक कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, इन दोनों ने मिलकर एक बहुत ही उपयोगी पद्धति का निर्माण किया, अनुलोम विवाह -पद्धति ने परस्पर संबंध को बनाए रखा और पितृ - सावर्ण्य नियम ने उच्च वर्गों की स्वयं को सुगठित रखने में मदद की, वे निम्न वर्गों में जा नहीं सकते थे लेकिन वे विभिन्न वर्गों की माताओं से जन्म लेते रहे, ब्राह्मणवाद विभिन्न वर्गों के बीच संबंध के इस द्वार को खुला रखने का इच्छुक नहीं था,यह उसे बंद कर देने पर तुला बैठा था,उसने इसे ऐसी रीति से किया जो प्रतिष्ठाजनक नहीं है,सीधा और सच्चा रास्ता अनुलोम विवाह को रोक देना था,लेकिन ब्राह्मणवाद ने ऐसा नहीं किया,उसने अनुलोम विवाह -पद्धति को जारी रखा,उसने बस यह किया कि शिशु की स्थिति का निर्णय करने वाले नियम को पूर्णतया बदल दिया, उसने पितृ -सावर्ण्य नियम के स्थान पर मातृ -सावर्ण्य नियम लागू कर दिया, जिससे शिशु की स्थिति उसकी मां की स्थिति के आधार पर निर्धारित की जाने लगी, इस परिवर्तन से विवाह पारस्परिक सामाजिक संपर्क का वह साधन नहीं रह गया जो वह मुख्य रूप से था, इससे उच्च वर्ण के पुरुष अपने बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से सिर्फ इसलिए मुक्त हो गए कि ये बच्चे निम्न वर्ण की मां से पैदा हुए थे, इसने अनुलोम विवाह को सिर्फ भोग, निम्न वर्णों को सताने और अपमानित करने और उच्च वर्णों को निम्न वर्ण की स्त्रियों के साथ कानूनी रूप में वेश्या कर्म करने का एक साधन बना दिया और व्यापक सामाजिक दृष्टि से इसने वर्गों को पूरी तरह अलग- थलग कर दिया, वर्गों में परस्पर यही अलगाव हिंदू समाज के लिए अभिशाप हो गया है,और अमानवीय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था लागू हो गयी,और इसे निचले स्तर तक लागू किया गया जिसके विध्वंसक परिणाम सामने आए ।

:-प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति - 212 -213


ब्राह्मण भोज, श्राद्ध

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के सर्ग 108 के श्लोक 1 से 17 तक में जाबाली की कथा है जो राम को उपदेश देते हुए कहता है -

"हे राम मैं उन व्यक्तियों के लिए चिंतित हूँ, जो इस लोक की चिंता छोड़ के परलोक की चिंता में डूबे रहते हैं। जो अवैज्ञानिक चिन्तन पर आधारित राजव्यवस्था की कोरी कल्पना, शरीर और आत्मा में भेद मानकर , पुनर्जन्म की कल्पना में जीवन नष्ट करते हैं और आकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं । जो प्रतिवर्ष अपने मरे हुए पितरो को श्राद्ध के नाम पर अन्न नष्ट करते हैं। आप बताइये की क्या मृत व्यक्ति भोजन खा सकता है ? या ब्राह्मणो को भोजन खिलाने से उनके सम्बन्धियो की की भूख शांत हो सकती है ?। यदि ऐसा है तो यात्री अपने साथ भोजन बाँध कर क्यों ले जाता है? क्यों नहीं यात्रियों के संबंधी उनके भूख के समय ब्राह्मणो को भोजन कराकर यात्रियों की भूख शान्तं करते?

वास्तव में ये कहानियां उन चतुर व्यक्तियो द्वारा गढ़ी हैं जो भोले नासमझ लोगो को मुर्ख बना उन्हें लूटने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने जनसाधारण को दान दक्षिणा देने , यज्ञ करने, हवन कथा करने, भूखे व्रत उपवास कराने के तरीके का अविष्कार कर स्वयं बिना मेहनत के धन प्राप्त  करते हैं ।  अत: हे राम !आप बुद्धि से काम लो। इस जीवन के अतरिक्त और कोई जीवन मिलने वाला नहीं है , यह निश्चित माने।"


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हिन्दुओं मे एक मान्यता है कि यदि वो अपने पितरो का श्राद्ध 'गया' मे जाकर करेंगे तो उनकी आत्मा को "मोक्ष" प्राप्त होगा!
ऐसा मानना है कि कोई कितना भी पापी क्यों न हो, सुवर्णचोर हो, गुरूपत्नि गमन का दोषी हो, या ब्रह्म-हत्यारा ही हो... यदि उसका श्राद्ध गया मे किया गया तो भगवान गदाधर (विष्णु) के प्रभाव से वह भोक्षगामी बन जाता है! यही वजह है कि गया एक बड़ा तीर्थ बन गया है और लाखों लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने गया जाते हैं!

गया मे एक श्राद्ध (पिण्ड-दान) के समय एक श्लोक का जाप किया जाता है, जो निम्न है-
"एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन।
परलोकं गते मोक्षमक्षरूयमुपतिष्ठताम्‌।।"

अर्थात- हे जनार्दन! भगवान्‌ विष्णु! मैंने आपके हाथ में यह पिण्ड प्रदान किया है। अतः परलोक में पहुंचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो। 
और मानना है कि ऐसा करने से मनुष्य पितृगणो के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोक प्राप्त करता हैं!

यहाँ सोचना यह है कि गया मे ऐसा क्या है जो मृतात्मा को सीधा मोक्ष दे देती है! इसके पीछे भी एक कहानी गढ़ी गयी है जो विस्तार से "वायुपुराण" मे लिखी गयी है!
इसी कथा का कुछ अंश "अग्निपुराण" के 114वें अध्याय (गया माहात्म्य) मे मिलता है..

प्राचीनकाल मे एक 'गयासुर' नामक असुर था, वह बड़ा धर्मनिष्ठ और तपस्वी था! उसने तप से अपने शरीर को त्रिदेवों की तरह पवित्र बना लिया था!
उसका तपस्वी शरीर इतना पवित्र हो गया था कि जिस तरह प्राणी ईश्वर के दर्शन करने से मोक्ष को प्राप्त करते है, उसी तरह गयासुर के दर्शन-मात्र से वह वैकुण्ठ प्राप्त करने लगे!

अब तो सारे देवता परेशान हो गये और विष्णु के पास जाकर बोले कि- हे हरि! गयासुर अपने तप और आपके आशिर्वाद से पृथ्वी पर मौजूद सभी तीर्थों से पवित्र हो गया है, अतः महापातकी इंसान भी उसका दर्शन करके सीधा आपके धाम वैकुण्ठ आने लगे है! 
हे नारायण! इससे तो सारी धरती के प्राणी वैकुण्ठ-वासी हो जायेगे, फिर यदि पापी लोग भी इसके दर्शन से वैकुण्ठ प्राप्त करेंगे, तो जो महात्मा पुण्य--कर्म करते हैं उनको बड़ी ग्लानि होगी।
देवताओं ने विष्णु से कहा कि प्रभु आप इसका कुछ उपाय करो....
तब विष्णु ने ब्रह्माजी को एक योजना बतायी, और उस योजना के अनुसार ब्रह्मा गयासुर के पास गये और बोले- हे असुरराज! हम सारे देवगण धरती पर एक यज्ञ करना चाहते हैं, आप इस समय इस क्षेत्र के राजा हो, अतः हम आपके पास यज्ञहेतु पवित्र स्थान मांगने आये हैं!
गयासुर ने कृतज्ञता से कहा कि हे पितामह् आपको जो स्थान पवित्र लगे आप मांग लो, मै आपको वह स्थान देने का वचन देता हूँ!
तब ब्रह्मा ने कहा कि हे गयासुर! इस समय धरती पर सबसे पवित्र तुम्हारा शरीर ही है, अतः तुम अपने वचनानुसार इसे हमे दान दे दो, हम इसी पर यज्ञ करेंगे...

गयासुर समझ गया कि उससे छल किया गया है, पर अब वह देवताओं के षणयन्त्र मे फंस चुका था, अतः असुर होते हुये भी उसने अपने वचन का पालन किया और अपना शरीर देवों को सौंप दिया!

इसके बाद गयासुर भूमि पर लेट गया, और उसका शरीर जितने विस्तार मे फैला उसी को गया तीर्थ माना जाता है!
फिर देवों ने उसके शरीर पर यज्ञ किया! यज्ञ की ज्वाला से गयासुर तड़पने लगा, तब देवताओं ने एक बड़ी सी शिला (पत्थर) लाकर उसके ऊपर रख दिया और सारे देवता उसी पर बैठ गये.....   और तो और स्वयं विष्णु भी गदाधर स्वरूप मे उसी शिला पर आरूढ़ हो गये, तथा इस तरह से देवताओं ने एक असुर का छल से विनाश कर दिया।

चूँकि पौराणिकों का मानना है कि गयासुर के पास ब्रह्मा, विष्णु सहित सारे देवता एकत्र हुये थे, अतः यह भूमि बहुत पवित्र है! जो यहाँ अपने पितरों का श्राद्ध करेगा, उसके पितृ तमाम पापकर्मों से च्युत होकर सीधा वैकुण्ठ चले जायेगे!

वैसे यह बड़ा अजीब लगता है कि असुर जब अधर्मी होते थे तब भी देवता छल से उन्हे मार देते थे, और जब वो धर्मनिष्ठ होते थे तब भी इनके छल का शिकार हो जाते थे!

गयासुर और राजा बलि इस छल-कपट के सबसे बड़े उदाहरण है!

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हिन्दुओं मे एक मान्यता है कि यदि वो अपने पितरो का श्राद्ध 'गया' मे जाकर करेंगे तो उनकी आत्मा को "मोक्ष" प्राप्त होगा!
ऐसा मानना है कि कोई कितना भी पापी क्यों न हो, सुवर्णचोर हो, गुरूपत्नि गमन का दोषी हो, या ब्रह्म-हत्यारा ही हो... यदि उसका श्राद्ध गया मे किया गया तो भगवान गदाधर (विष्णु) के प्रभाव से वह भोक्षगामी बन जाता है! यही वजह है कि गया एक बड़ा तीर्थ बन गया है और लाखों लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने गया जाते हैं!

गया मे एक श्राद्ध (पिण्ड-दान) के समय एक श्लोक का जाप किया जाता है, जो निम्न है-
"एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन।
परलोकं गते मोक्षमक्षरूयमुपतिष्ठताम्‌।।"

अर्थात- हे जनार्दन! भगवान्‌ विष्णु! मैंने आपके हाथ में यह पिण्ड प्रदान किया है। अतः परलोक में पहुंचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो। 
और मानना है कि ऐसा करने से मनुष्य पितृगणो के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोक प्राप्त करता हैं!

यहाँ सोचना यह है कि गया मे ऐसा क्या है जो मृतात्मा को सीधा मोक्ष दे देती है! इसके पीछे भी एक कहानी गढ़ी गयी है जो विस्तार से "वायुपुराण" मे लिखी गयी है!
इसी कथा का कुछ अंश "अग्निपुराण" के 114वें अध्याय (गया माहात्म्य) मे मिलता है..

प्राचीनकाल मे एक 'गयासुर' नामक असुर था, वह बड़ा धर्मनिष्ठ और तपस्वी था! उसने तप से अपने शरीर को त्रिदेवों की तरह पवित्र बना लिया था!
उसका तपस्वी शरीर इतना पवित्र हो गया था कि जिस तरह प्राणी ईश्वर के दर्शन करने से मोक्ष को प्राप्त करते है, उसी तरह गयासुर के दर्शन-मात्र से वह वैकुण्ठ प्राप्त करने लगे!

अब तो सारे देवता परेशान हो गये और विष्णु के पास जाकर बोले कि- हे हरि! गयासुर अपने तप और आपके आशिर्वाद से पृथ्वी पर मौजूद सभी तीर्थों से पवित्र हो गया है, अतः महापातकी इंसान भी उसका दर्शन करके सीधा आपके धाम वैकुण्ठ आने लगे है! 
हे नारायण! इससे तो सारी धरती के प्राणी वैकुण्ठ-वासी हो जायेगे, फिर यदि पापी लोग भी इसके दर्शन से वैकुण्ठ प्राप्त करेंगे, तो जो महात्मा पुण्य--कर्म करते हैं उनको बड़ी ग्लानि होगी।
देवताओं ने विष्णु से कहा कि प्रभु आप इसका कुछ उपाय करो....
तब विष्णु ने ब्रह्माजी को एक योजना बतायी, और उस योजना के अनुसार ब्रह्मा गयासुर के पास गये और बोले- हे असुरराज! हम सारे देवगण धरती पर एक यज्ञ करना चाहते हैं, आप इस समय इस क्षेत्र के राजा हो, अतः हम आपके पास यज्ञहेतु पवित्र स्थान मांगने आये हैं!
गयासुर ने कृतज्ञता से कहा कि हे पितामह् आपको जो स्थान पवित्र लगे आप मांग लो, मै आपको वह स्थान देने का वचन देता हूँ!
तब ब्रह्मा ने कहा कि हे गयासुर! इस समय धरती पर सबसे पवित्र तुम्हारा शरीर ही है, अतः तुम अपने वचनानुसार इसे हमे दान दे दो, हम इसी पर यज्ञ करेंगे...

गयासुर समझ गया कि उससे छल किया गया है, पर अब वह देवताओं के षणयन्त्र मे फंस चुका था, अतः असुर होते हुये भी उसने अपने वचन का पालन किया और अपना शरीर देवों को सौंप दिया!

इसके बाद गयासुर भूमि पर लेट गया, और उसका शरीर जितने विस्तार मे फैला उसी को गया तीर्थ माना जाता है!
फिर देवों ने उसके शरीर पर यज्ञ किया! यज्ञ की ज्वाला से गयासुर तड़पने लगा, तब देवताओं ने एक बड़ी सी शिला (पत्थर) लाकर उसके ऊपर रख दिया और सारे देवता उसी पर बैठ गये.....   और तो और स्वयं विष्णु भी गदाधर स्वरूप मे उसी शिला पर आरूढ़ हो गये, तथा इस तरह से देवताओं ने एक असुर का छल से विनाश कर दिया।

चूँकि पौराणिकों का मानना है कि गयासुर के पास ब्रह्मा, विष्णु सहित सारे देवता एकत्र हुये थे, अतः यह भूमि बहुत पवित्र है! जो यहाँ अपने पितरों का श्राद्ध करेगा, उसके पितृ तमाम पापकर्मों से च्युत होकर सीधा वैकुण्ठ चले जायेगे!

वैसे यह बड़ा अजीब लगता है कि असुर जब अधर्मी होते थे तब भी देवता छल से उन्हे मार देते थे, और जब वो धर्मनिष्ठ होते थे तब भी इनके छल का शिकार हो जाते थे!

गयासुर और राजा बलि इस छल-कपट के सबसे बड़े उदाहरण है!


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Tuesday, 1 September 2020

दस्यु।



आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके इन्हें पराजित कर दिया और इन्हें अपना गुलाम बना लिया और दासता के चिह्न के रूप में इन्हें ' दस्यु ' नाम दिया, कहा जाता है कि ' दस्यु ' शब्द दास शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है गुलाम,' ये सारी धारणाएं निराधार हैं,दरअसल असुर और सुर दोनों आर्यों के समान मनुष्य थे,असुर और सुर दोनों के पिता कश्यप थे, कथा है कि दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएं थीं,जिनमें से तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप के साथ हुआ था,कश्यप की तेरह पत्नियों में से एक दिति और दूसरी अदिति थी, दिति से उत्पन्न संतान दैत्य अथवा असुर कहलाए और अदिति से उत्पन्न सुर अथवा देव कहलाए, इन दोनों के बीच बहुत दिनों तक पृथ्वी पर आधिपत्य के लिए भीषण युद्ध हुआ,इसमें संदेह नहीं कि यह एक पौराणिक कथा है, बेशक यह पौराणिक कथा है लेकिन यह भी एक इतिहास है और पौराणिक इतिहास अतिशयोक्ति में कहा गया इतिहास ही होता है -
 
:डा.बी.आर.अम्बेडकर, प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति-364-365. 
     

हिन्दू धर्म की रिडल।


"हिन्दू धर्म की रिडल्ज" बोधिसत्व बाबासाहब डॉ भीमराव अंबेडकर लिखते है:

भारत में प्राचीन आर्य स्त्रियों की सामान्यतः बिक्री होती थी, विवाह की आर्य पद्धति से लड़कियों की विक्री की जाती थी, पिता गो-मिथुन देता था और कन्यादान लेता था मतलब गो मिथुन के लिए कोई भी लड़की बिकती थी, "गो मिथुन का मतलब था एक गाँव और एक बैल जोकि एक लड़की की योग्य कीमत समझी जाती थी". अपनी लड़कियों को उनके पिता तो बेंचते ही थे बल्कि अपनी पत्नियों को उनके पति भी बेंचते थे।

हरिवंश पुराण अपने 79 वें अध्याय में कहता है कि जो पुरोहित संस्कार कराता है एक पुण्यक व्रत उनकी दक्षिणा होनी चाहिए, इसका कहना है कि ब्राम्हण स्त्रियों को उनके पतियों से खरीदा जाय, और ब्राम्हण पुरोहितों को दक्षिणा के तौर पर दान में दे दी जाय, जिससे स्पस्ट होता है कि ब्राम्हण अपनी पत्नियों को भी बेंचते थे.

इसी तरह प्राचीन आर्य अपनी स्त्रियों को सम्भोग के लिए किराए पर भी देते थे, महाभारत के अध्याय 103 से 183 तक माधवी का जीवन चरित्र दिया हुआ है, जिसके अनुसार माधवी राजा ययाति की लड़की थी, ययाति ने उसे किसी को दी जाने वाली दक्षिणा के तौर पर गालब नामक ऋषि को सौंप दिया था,जिसने माधवी को तीन राजाओं को किराए पर दिया था, लेकिन सिर्फ उतने समय के लिए जितने समय में वह मां बन सके,तीनो राजाओं की बारी हो चुकने के बाद गालब ने उसे अपने गुरु विश्वामित्र को सौंप दिया था, विश्वामित्र ने उसे अपने पास रखा और बाद में उसे गालब ऋषि को वापस सौंप दिया अंत में गालब ने उसे उसके पिता ययाति को सौंप दिया. यह तत्कालीन आर्य व्यवस्था है जिसे आज भी सभी को जानने की सख्त जरुरत है.

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हिन्दू धर्म की रिडल्ज बोधिसत्व बाबासाहब डॉ बी आर अम्बेडकर द्वारा दिखाया गया आईना।

वैदिक आर्यों के धर्म में बर्बरता भरी हुई थी और अश्लीलता की भरमार थी,नरबलि देना उनके धर्म का हिस्सा था,जिसे नरमेघ यज्ञ का नाम दिया गया था, लिंग पूजा प्राचीन आर्यों के घर घर प्रचलित थी लिंग पूजा को "स्कन्ध" नाम दिया गया था, अथर्व वेद 8-7 इसका साक्षी है अश्लीलता का भद्दा उदाहरण अश्वमेघ यज्ञ था जिसने प्राचीन आर्यों के धर्म को कुरूप बना दिया था, अश्वमेघ यज्ञ में एक घोड़े के लिंग को यज्ञ कराने वाले यजमान की मुख्य पत्नी के भग में प्रवेश कराना होता था, उस समय ब्राम्हण लंबे लंबे वेद मंत्रों का उच्चारण करते रहते थे, वाजसनेय संहिता के एक मन्त्र से यह बात स्पष्ट होती है कि रानियों में इसके लिए होड़ लगती थी,कि घोड़े के लिंग की प्रवेश विधि का किसे योग्य पात्र माना जाय ( इसके बारे में जो लोग अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं वे यजुर्वेद पर जो महीधर के भाष्य हैं उन्हें देखें ). आर्य जन जुआरियों की एक जाति थे जुवा खेलना उनका प्रमुख व्यसन था ,इसी तरह आर्यजन शराबी भी थे.इसी प्रकार विवाह का कोई कानून नहीं था कोई भी स्वतंत्र होकर स्वच्छन्द सम्भोग कर सकता था इसके लिए भी कोई नियम कानून नही था.

आर्यों में आपस में स्वच्छन्द लैंगिक संबंधों की व्यवस्था थी जिसके लिए कोई नियम कानून नहीं था.

ब्रम्हा ने अपनी पुत्री सतरूपा से सादी की थी पृथु वंश परंपरा का संस्थापक मनु उनका पुत्र था,वशिष्ठ ने भी सतरूपा से विवाह किया था, इसी प्रकार जान्हु और जान्हवी,सूर्य और उषा का है,यही पिता और पुत्री की शादियो से उत्पन्न संतान को भी कुंवारी पुत्र कहकर मान्यता दी गई थी, कुंवारी पुत्र का मतलब है अविवाहित पुत्रियों की संतान,कानूनी भाषा में वे लड़की के पिता की संतान थे.

वहीँ ऐसे भी अनेकों उदाहरण हैं जहाँ पिता और पुत्र एक ही स्त्री से सम्भोग करते थे,जैसे ब्रम्हा मनु का पिता था और सतरूपा उसकी माता थी यही सतरूपा मनु की पत्नी भी थी, वहीँ श्रद्धा विवश्वत की पत्नी थी उसका पुत्र मनु था लेकिन श्रद्धा ही मनु की पत्नी भी थी इससे यह साबित होता है कि पिता और पुत्र एक ही स्त्री के हिस्सेदार थे यही हाल भाई की लड़की से सादी करने का भी था ,जैसे धर्म ने दक्ष की दस बेटियों से सादी की थी जबकि धर्म और दक्ष परस्पर भाई भाई थे, काश्यप की भी तेरह पत्नियां थी जो सभी दक्ष की ही पुत्रियां थीं,दक्ष काश्यप का पिता मारीचि का भाई था.

ऋग्वेद में जो यम और यमी का प्रकरण है वह भाई और बहन की शादी का एक उदाहरण है ...

वैदिक काल में परस्पर लैंगिक संबंधों की किसी को भी पूरी छूट थी, इस प्रकार अगर कोई लड़का अपनी मां के साथ भी सम्भोग करना चाहता था तो उसे पूरी छूट थी,उदाहरणार्थ पूषण और उसकी मां, मनु और शतरूपा, मनु और श्रद्धा ,अर्जुन और उर्वशी , तथा अर्जुन और उत्तरा के लैंगिक सम्बन्ध.

अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का 16 साल की उम्र में ही उत्तरा के साथ विवाह हो गया था,उसी उत्तरा का लैंगिक सम्बन्ध अर्जुन से भी था, महाभारत के अनुसार अर्जुन का विवाह उत्तरा से भी हुआ था, इस तरह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु का विवाह उसकी मां के साथ हुआ था,इस जगह अर्जुन और उर्वशी का उदाहरण एकदम स्पस्ट है.

इंद्र अर्जुन का वास्तविक पिता था और उर्वसी इंद्र की चहेती थी, उर्वशी ने अर्जुन को बहुत सारी शिक्षाएं दी थी इसीलिए उन दोनों में प्रेम हो गया था .

हरिवंश पुराण के अनुसार तत्कालीन बहु पितृत्व की भी प्रथा खूब प्रचलित थी उदाहरणार्थ सोम दस पिताओं का पुत्र था,हर पिता प्रल्हेता कहलाता था सोम की मारिषा नाम की एक बेटी थी, सोम के दस पिताओं और खुद सोम ने मारिषा के साथ सम्भोग किया था,इससे साबित होता है कि पिता पुत्री माँ और बेटों में आपसी लैंगिक सम्बन्ध एक सामान्य बात थी,प्रजापति कथा के अनुसार सोम के पुत्र दक्ष प्रजापति के बारे मे कहा गया है कि उसने अपनी 27 कन्याएं अपने पिता सोम को संतानोत्पत्ति के लिए दी थी, हरिवंश पुराण में लिखा है कि दक्ष ने अपने ही पिता ब्रम्हा को अपनी ही कन्या विवाह करने के लिए दी थी, जिससे एक "नारद"नाम का पुत्र भी हुआ था,जो अत्यन्त प्रसिद्द हुआ, यही सब सपिण्ड पुरुषों की सपिण्ड स्त्रियों से सम्भोग की कथाएं हैं.


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विष्णु पुराण के अनुसार ब्रम्हा ने खुद को स्वयंभू मनु माना था, जिसने अपने ही स्त्रीलिंग वाले शरीर को सतरूपा का भी नाम दिया था जिसे उसने अपनी ही पत्नी बनाया था,इसका मतलब तथाकथित ब्रम्हा उभयलिंगी था, या फिर ब्रम्हा ने अपनी ही बहन से विवाह किया था, अगर यह सत्य है तो कितने आश्चर्य की बात है।

खैर इस ब्रम्हा और सतरूपा से दो लड़के और दो लड़कियां पैदा हुए, जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा प्रसूति और अकुति थे प्रसूति उसने दक्ष को दे दी और अकुति को कुलपिता रूचि को दे दी, अकुति से यज्ञ और दक्षिणा दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए जो बाद में पति पत्नी बन गए (फिर वही भाई बहन की शादी) जिनके बाद में बारह बच्चे पैदा हुए,जो यम नाम के देवतागण हुए.

पहला मनु स्वयंभू था द्वितीय मनु देवतागण कहलाते थे, सप्तऋषि, ऊर्ज, स्तम्भ,प्रण, दत्तोली, रिसभ,निश्चर, अर्वरिवत,चैत्र, किम्पुरुष, और दूसरे और कई मनु के पुत्र हुए,इसके बाद चौथा,पांचवां,छठा मनु चर्चित हुए.

एकबार मनु एकाग्रचित विराजमान थे तब बड़े बड़े ऋषि मुनि उनके पास पहुंचे और चारों वर्णो के बारे में उनसे पूंछा,तब मनु ने उत्तर दिया.. कि.. यह विश्व अन्धकार की शक्ल में विराजमान था तब स्वयंभू मनु की नानाप्रकार के प्राणियों को जन्म देने की इच्छा हुई,तो उसने पहले पानी बनाया फिर उसमें बीज डाला,जो बाद में अंडे में बदल गया ,वह मनु स्वयं लोक के जनक के रूप में उस अंडे से पैदा हुआ,तदनंतर ऋषियों को जन्म दिया जो सृस्टि के स्वामी थे,जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु,प्रचेतस, वशिष्ठ,भृगु और नारद. 

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हिन्दू धर्म की रिडल्ज।

पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को चार नियोग की अनुमति दी थी, व्यूलिस्तव को सात नियोगों की अनुमति थी,और बलि के बारे में जानकारी है कि उसने सत्रह नियोग कराये थे, ग्यारह नियोग पहली पत्नी से और छह नियोग दूसरी पत्नी से, नियोग पति के जीवन काल में भी होता था जब पति संतानोत्पत्ति के अयोग्य हो गया हो तब हो सकता था जहाँ प्रस्ताव पत्नी की तरफ से ही हुआ हो, नियोग कर्ता का चुनाव पत्नी की मर्जी से ही होता था उसे इस बात की पूरी स्वतंत्रता थी कि वह स्वयं तय करे कि उसे नियोग किसके साथ करना है, और कितनी बार करना है आदमी और औरत के साथ जो निषिद्ध सम्भोग हो सकता था उसे ही नियोग कहते थे,जो एक रात के लिए भी हो सकता था और बारह वर्षों के लिए भी चालू रह सकता था, जिसमे उसका पति भी मौन सहयोगी माना जाता था.

दुर्योधन के द्वारा जब द्रोपदी को गौ कहा गया तो उसने जवाब दिया कि उसे अफ़सोस है कि उसके पति ब्राम्हण नही हैं.

महाभारत के 100 वें अध्याय में लिखा है कि विभण्डक ऋषि ने एक हिरनी के साथ सम्भोग था जिससे श्रृंगीऋषी नामक एक पुत्र पैदा हुआ था, महाभारत के आदिपर्व के प्रथम अध्याय और एक सौ अठारहवें अध्याय में व्यास ने लिखा है कि एक बार जब एक दमऋषि एक हिरनी के साथ संभोगरत था तभी पांडु ने दमऋषी को एक तीर मारा था जिससे दमऋषि की उसी समय मृत्यु हो गई लेकिन मरने से पहले उसने पाण्डु को एक श्राप दिया था कि अगर पाण्डु ने अपनी पत्नी को कभी छुआ भी तो वह तुरंत मर जाएगा.
 
इसी तरह महाभारत के आदिपर्व के 63 वें अध्याय में वर्णन है कि एक मछुये की बेटी सत्यव्रती (मत्स्यगंधा) के साथ खुले आम एक ऋषि ने मनोरंजन के तौर पर सम्भोग किया, वहीं आदिपर्व के ही 104 वे अध्याय में लिखा गया है कि दीर्घतमा नामक ऋषि ने लोगों के सामने एक सार्वजनिक जगह पर एक स्त्री के साथ सम्भोग किया,

वही ऋषियों के लिए एक और प्रथा थी कि जब भी जहाँ कहीं कोई यज्ञ चल रहा होता हो तो कोई भी ऋषि वही यज्ञ मंडप में सबके सामने किसी भी स्त्री के साथ सम्भोग करे, ऋषियों की इस अनैतिक हरकत को धार्मिक नाम देकर "वामदेव व्रत" रखा गया जिसका ही आगे चलकर नाम वाम मार्ग दे दिया गया.

गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने क्या किया था यह कृत्य तो जग जाहिर है, 

अगर किसी देवता के साथ संसर्ग से अगर किसी को गर्भ ठहर जाता तो उन्हें सम्मानपूर्वक किसी इंद्र,यम, नस्त्य,अग्नि,वायु और इसी तरह के देवताओं से उत्पन्न पुत्र करार दिया जाता था,इस तरह की संतानोत्पत्ति सामान्य बात थी.

देवता का मतलब था संरक्षण के बदले उगाही (रिश्वत) लेने वाला था ,बाद में इसी देवता शब्द को जमातपरक न रखकर ईस्वरपरक बना दिया।

देवताओं ने आर्यों से माँगा था कि आर्यजनों की स्त्रियों को भोगने की उन्हें प्राथमिकता दी जाय, जो कि आरंभिक काल में ही साकार हो गया था, इसका उल्लेख ऋग्वेद (१०-८५-४०) में है, जिसके अनुसार आर्य देवी पर पहला हक "सोम" का था, दूसरा "गन्धर्व" का तीसरा "अग्नि" का और सबसे अंत में आर्यजन का..
         
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हिन्दू धर्म की रिडल्ज बोधिसत्व बाबासाहब डॉ बी आर अम्बेडकर द्वारा दिखाया गया आइना:
   
तथाकथित हिन्दू धर्म में देवी देवताओं को खुश रखने के लिए पशु,पक्षियों और इंसानों की बलि पर विशेष बल दिया गया है. और बताया गया है कि जो बलि देने वाला है उसे इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि देवी को खराब रक्त और मांस न चढ़ाया जाय अन्यथा देवी नाराज हो सकती है.कच्ची पक्की शराब देवी को उतने ही समय के लिए खुश रखती है जितने समय के लिए बकरी का बलिदान.
     
चन्द्रहास या गायत्री द्वारा पशु का जो बध किया जाता है वह सर्वश्रेष्ठ विधि मानी जाती है चाक़ू या छुरे के साथ दी जाने वाली बलि मध्यम दर्जे की बलि और फावड़े जैसी किसी चीज से दी जानेवाली बलि निक्रस्टतम विधि मानी जाती है . तीर जैसे हथियार से की गई बलि देवता स्वीकार नहीं करते हैं ,दुर्गा और कामाख्या देवी को बलि चढ़ाते समय वैदिक मंत्रों का उच्चार करना ही चाहिए.
 
अब आप उपरोक्त तथ्यों के आधार पर आप स्वतः निर्णय कीजिये कि आप कैसे रक्तरंजित देवी देवताओं से अपेक्षा कर सकते है जो खुद निरीह पशु पक्षी तथा इंसानों के रक्त के प्यासे हों....
(अभी तक उल्लेख चालू है निरीह पशु पक्षी और इंसानों की नृसंश ह्त्या (बलि) का....
जिस बर्तन में बलि का रक्त संचय किया जाय वह किसी की सामर्थ्य के अनुसार हो सकता है पर लोहे का नहीं होना चाहिए.
     
अश्वमेघ छोड़कर किसी भी अवसर पर घोड़े की बलि नहीं दी जानी चाहिए,इसी प्रकार गजमेघ को छोड़कर किसी भी अवसर पर हाथी की बलि नहीं दी जानी चाहिए,किसी ब्राम्हण को किसी शेर या चीते या अपने रक्त या शराब की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए,यदि ब्राम्हण कोई बलि चढ़ाता है तो उसे ब्राम्हह्त्या जैसा पाप लगता है ,इसी प्रकार किसी क्षत्रिय को किसी बारहसिंघे की बलि नही चढ़ानी चाहिए,और यदि किसी शेर चीते या आदमी की बलि चढ़ाना आवश्यक ही हो तो मक्खन आदि पदार्थों से उसके स्थानापन्न बना लेने चाहिए तब बलि देनी चाहिए.
 
किसी आदमी की बलि देने के लिए राजा की आज्ञा लेना जरूरी है ,किसी विशेष अवसर या खतरों के समय नरबलि केवल राजा या उसके मंत्री ही दे सकते हैं नरबलि देने से पूर्व उसे एक दिन पहले अभिमंत्रित कर तैयार कर लेना चाहिए. नरबलि देने वाले व्यक्ति को मन्त्रों और रस्सियों से बांधकर उसका सिर काट देना चाहिए और फिर देवी को अर्पित कर देना चाहिए.उक्त विधि विधान के साथ जो यज्ञों का कर्ता धर्ता  बलि चढ़ाता है उसकी अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है.
     
यही वह धर्म है जिसका कलि पुराण में खूब प्रचार प्रसार किया गया है.सदियों तक मनु के अनंतर अब भी यहाँ हिंसा तंत्रों की हिंसा नंगा नाच कर रही है जिसमे पशुओं की हिंसा ही नहीं नर बलि भी है। कलि पुराण के खुनी परिच्छेद में वर्णित हिंसा भारत में प्रचुर मात्रा में फैली हुई थी, जहाँ तक पशु हिंसा की बात है तो कलकत्ते का काली मंदिर किसी कसाई खाने में तब्दील हो चुका है क्योंकि काली माई को प्रसन्न करने के लिए सैकड़ों बकरियों की रोज बलि चढ़ाई जाती है जो किसी पुराण पर किसी कलंक से कम नहीं है हालांकि आज कालीमाई मंदिर में नरबलि नही होती है पर एक समय यहाँ बकरे बकरियों की तरह नरबलि भी दी जाती थी, वैसे पशुबलि और नरबलि अब भी भारत के हर कोने में बदस्तूर चालू है. यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि काली तो शिव की पत्नी है फिर शिव अहिंसक और काली हिंसक कैसे, यह बात विचारणीय है और वही बता सकते हैं जिन्होंने काली और शिव का निर्माण किया.

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चंडिका तथा भैरवी के लिए पक्षियों की बलि,कछुओं की बलि,मगरमच्छों की बलि,मछलियों की,नौ प्रकार के जानवरों की बलि,भैंसों की,वृषभों की,बकरों की,जंगली सुवरों की,गैंडों की,बारहसिंघों की,ग्वाना पच्छी की,जंगली हिरनों की,शेरों की,चीतों की,और आदमियों की,तथा बलि चढाने वाले का अपना खून भी बलि के लिए योग्य है बलि देने से राजकुमारों को परमानंद स्वर्ग और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है.

मछली और कछुवे की बलि चढाने से देवी एक माह तक प्रसन्न रहती है,मगरमच्छ की बलि चढाने से तीन महीने,जंगली जानवरों की बलि से नौ महीने,जबकि जंगली वृषभ का रक्त देवी को एक वर्ष तक खुश रखता है ,बारहसिंघे और जंगली सुवर का बलिदान बारह वर्षों तक देवी को प्रष्न रखता है ,सरभस का रक्त देवी को पच्चीस वर्षों तक खुस रखता है और भैसे का रक्त सौ वर्षों तक देवी को खुश रखता है,लेकिन शेर और आदमी का बलिदान देवी को ऐसी प्रसन्नता प्रदान करता है जो एक हजार वर्ष तक चलती है,इन जानवरों का मांस भी इतने ही दिनों तक देवी को प्रसन्नता प्रदान करता है जितना कि उनका रक्त,बारहसिंघों का मांस देवी को पांच सौ वर्षों तक प्रसन्नचित बनाये रखता है रोहित मछली की बलि काली को तीन सौ वर्षों तक प्रसन्न बनाये रखती है. ऐसी साफ़ बकरी जो चौबीस घंटो में केवल दो बार पानी पीती हो और जो बकरियों में श्रेष्ठ हो उसकी बलि देवताओं को दी जाने वाली श्रेष्ठ बलि मानी जाती है.ऐसा पक्षी जिसका कंठ नीला और सिर लाल तथा टाँगे काली हो उसकी बलि विष्णु को विशेष प्रिय है.
   
विधिवत दी गई नर बलि से देवी एक हजार साल तक प्रसन्न रहती है और तीन आदमियों की एक साथ बलि देने से देवी इक लाख वर्ष तक प्रसन्न रहती है. पवित्र धर्म ग्रंथों के पाठ द्वारा पवित्र बनाये गए रक्त की बलि अमृत के समान है सिर की बलि देने से चंडिका विशेष प्रसन्न होती है इसलिए जब भी विद्वजन बलि चढ़ाएं तो सिर और रक्त की ही बलि दें और जब यज्ञ करें तो उनके मांस की आहुति दें.
  
तथाकथित हिन्दू धर्म में देवी देवताओं को खुश रखने के लिए पशु,पक्षियों और इंसानों की बलि पर विशेष बल दिया गया है.और बताया गया है कि जो बलि देने वाला है उसे इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि देवी को खराब रक्त और मांस न चढ़ाया जाय अन्यथा देवी नाराज हो सकती है. कच्ची पक्की शराब देवी को उतने ही समय के लिए खुश रखती है जितने समय के लिए बकरी का बलिदान.
    
चन्द्रहास या गायत्री द्वारा पशु का जो बध किया जाता है वह सर्वश्रेष्ठ विधि मानी जाती है चाक़ू या छुरे के साथ दी जाने वाली बलि मध्यम दर्जे की बलि और फावड़े जैसी किसी चीज से दी जानेवाली बलि निक्रस्टतम विधि मानी जाती है .  तीर जैसे हथियार से की गई बलि देवता स्वीकार नहीं करते हैं ,दुर्गा और कामाख्या देवी को बलि चढ़ाते समय वैदिक मंत्रों का उच्चार करना ही चाहिए.
    
अश्वमेघ छोड़कर किसी भी अवसर पर घोड़े की बलि नहीं दी जानी चाहिए, इसी प्रकार गजमेघ को छोड़कर किसी भी अवसर पर हाथी की बलि नहीं दी जानी चाहिए,किसी ब्राम्हण को किसी शेर या चीते या अपने रक्त या शराब की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए,यदि ब्राम्हण कोई बलि चढ़ाता है तो उसे ब्राम्हह्त्या जैसा पाप लगता है ,इसी प्रकार किसी क्षत्रिय को किसी बारहसिंघे की बलि नही चढ़ानी चाहिए,और यदि किसी शेर चीते या आदमी की बलि चढ़ाना आवश्यक ही हो तो मक्खन आदि पदार्थों से उसके स्थानापन्न बना लेने चाहिए तब बलि देनी चाहिए.
    
किसी आदमी की बलि देने के लिए राजा की आज्ञा लेना जरूरी है ,किसी विशेष अवसर या खतरों के समय नरबलि केवल राजा या उसके मंत्री ही दे सकते हैं नरबलि देने से पूर्व उसे एक दिन पहले अभिमंत्रित कर तैयार कर लेना चाहिए.
   
नरबलि देने वाले व्यक्ति को मन्त्रों और रस्सियों से बांधकर उसका सिर काट देना चाहिए और फिर देवी को अर्पित कर देना चाहिए.उक्त विधि विधान के साथ जो यज्ञों का कर्ता धर्ता  बलि चढ़ाता है उसकी अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है.
    
यही वह धर्म है जिसका कलि पुराण में खूब प्रचार प्रसार किया गया है. सदियों तक मनु के अनंतर अब भी यहाँ हिंसा तंत्रों की हिंसा नंगा नाच कर रही है जिसमे पशुओं की हिंसा ही नहीं नर बलि भी है। कलि पुराण के खूनी परिच्छेद में वर्णित हिंसा भारत में प्रचुर मात्रा में फैली हुई थी,जहाँ तक पशु हिंसा की बात है तो कलकत्ते का काली मंदिर किसी कसाई खाने में तब्दील हो चुका है क्योंकि काली माई को प्रसन्न करने के लिए सैकड़ों बकरियों की रोज बलि चढ़ाई जाती है जो किसी पुराण पर किसी कलंक से कम नहीं है हालांकि आज कालीमाई मंदिर में नरबलि नही होती है पर एक समय यहाँ बकरे बकरियों की तरह नरबलि भी दी जाती थी,वैसे पशुबलि और नरबलि अब भी भारत के हर कोने में बदस्तूर चालू है.यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि काली तो शिव की पत्नी है फिर शिव अहिंसक और काली हिंसक कैसे,यह बात विचारणीय है और वही बता सकते हैं जिन्होंने काली और शिव का निर्माण किया.
    
विष्णु पुराण के अनुसार ब्रम्हा ने खुद को स्वयंभू मनु माना था,जिसने अपने ही स्त्रीलिंग वाले शरीर को सतरूपा का भी नाम दिया था जिसे उसने अपनी ही पत्नी बनाया था,इसका मतलब तथाकथित ब्रम्हा उभयलिंगी था,या फिर ब्रम्हा ने अपनी ही बहन से विवाह किया था,अगर यह सत्य है तो कितने आश्चर्य की बात है, खैर, इस ब्रम्हा और सतरूपा से दो लड़के और दो लड़कियां पैदा हुए,जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा प्रसूति और अकुति थे प्रसूति उसने दक्ष को दे दी और अकुति को कुलपिता रूचि को दे दी,अकुति से यज्ञ और दक्षिणा दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए जो बाद में पति पत्नी बन गए (फिर वही भाई बहन की शादी) जिनके बाद में बारह बच्चे पैदा हुए,जो यम नाम के देवतागण हुए.

पहला मनु स्वयंभू था द्वितीय मनु देवतागण कहलाते थे,सप्तऋषि, ऊर्ज, स्तम्भ,प्रण, दत्तोली, रिसभ,निश्चर, अर्वरिवत,चैत्र, किम्पुरुष, और दूसरे और कई मनु के पुत्र हुए,इसके बाद चौथा ,पांचवां,छठा मनु चर्चित हुए. एकबार मनु एकाग्रचित विराजमान थे तब बड़े बड़े ऋषि मुनि उनके पास पहुंचे और चारों वर्णो के बारे में उनसे पूंछा,तब मनु ने उत्तर दिया कि यह विश्व अन्धकार की शक्ल में विराजमान था तब स्वयंभू मनु की नानाप्रकार के प्राणियों को जन्म देने की इच्छा हुई,तो उसने पहले पानी बनाया फिर उसमें बीज डाला, जो बाद में अंडे में बदल गया ,वह मनु स्वयं लोक के जनक के रूप में उस अंडे से पैदा हुआ,तदनंतर ऋषियों को जन्म दिया जो सृस्टि के स्वामी थे,जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरस,पुलस्त्य,पुलह,क्रतु,प्रचेतस,वशिष्ठ,भृगु और नारद.
 

: डा.बी.आर.अम्बेडकर, हिन्दू धर्म की रिडल्ज, पृष्ठ-83-84-85-86


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रामायण का कहना है कि दक्ष की पुत्री और काश्यप की पत्नी मनु ने चारों वर्णो को जन्म दिया,जिसके अनुसार प्रजापति दक्ष के 60 पुत्रियां थीं उनमे से काश्यप ने आठ सुंदरियों से विवाह कर लिया जिनके नाम थे, अदिति, दिति,दनु,कलक, तम्र,क्रोधवशा,मनु तथा अनला. प्रसन्नचित काश्यप ने तब इन सुंदरियों से कहा कि तुम्हें मेरे जैसे ही पुत्रों को जन्म देना होगा,जिसे अदित ,दिति ,दनु और कलक ने स्वीकार किया,पर दूसरी अन्य सुंदरियाँ इसके लिए तैयार नहीं हुईं, अकेली अदिति ने आदित्यों,वशुओं,रुद्रों तथा दो आश्विनों सहित कुल मिलाकर 33 देवताओं को जन्म दिया,काश्यप की पत्नी मनु ने,ब्राम्हणों ,क्षत्रियों वैश्यों तथा शूद्रों को जन्म दिया ,ब्राम्हणों का जन्म मुंह से हुआ ,क्षत्रियों का छाती से,वैश्यों का जाँघों से तथा शूद्रों का पाँव से. यह वेदों का कथन है जबकि अनुला ने मधुर फलों से लदे हुए वृक्षों को जन्म दिया।

वेदों के अनुसार परस्पर लैंगिक संबंधों की किसी को भी पूरी छूट थी,इस प्रकार अगर कोई लड़का अपनी मां के साथ भी सम्भोग करना चाहता था तो उसे पूरी छूट थी, उदाहरणार्थ पूषण और उसकी मां, मनु और शतरूपा, मनु और श्रद्धा , अर्जुन और उर्वशी, तथा अर्जुन और उत्तरा के लैंगिक सम्बन्ध. अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का 16 साल की उम्र में ही उत्तरा के साथ विवाह हो गया था,उसी उत्तरा का लैंगिक सम्बन्ध अर्जुन से भी था,महाभारत के अनुसार अर्जुन का विवाह उत्तरा से भी हुआ था,इस तरह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु का विवाह उसकी मां के साथ हुआ था,इस जगह अर्जुन और उर्वशी का उदाहरण एकदम स्पस्ट है.

इंद्र अर्जुन का वास्तविक पिता था और उर्वसी इंद्र की चहेती थी,उर्वशी ने अर्जुन को बहुत सारी शिक्षाएं दी थी इसीलिए उन दोनों में प्रेम हो गया था .
हरिवंश पुराण के अनुसार तत्कालीन बहु पितृत्व की भी प्रथा खूब प्रचलित थी उदाहरणार्थ सोम दस पिताओं का पुत्र था,हर पिता प्रल्हेता कहलाता था सोम की मारिषा नाम की एक बेटी थी,सोम के दस पिताओं और खुद सोम ने मारिषा के साथ सम्भोग किया था,इससे साबित होता है कि पिता पुत्री माँ और बेटों में आपसी लैंगिक सम्बन्ध एक सामान्य बात थी,प्रजापति कथा के अनुसार सोम के पुत्र दक्ष प्रजापति के बारे मे कहा गया है कि उसने अपनी 27 कन्याएं अपने पिता सोम को संतानोत्पत्ति के लिए दी थी, हरिवंश पुराण में लिखा है कि दक्ष ने अपने ही पिता ब्रम्हा को अपनी ही कन्या विवाह करने के लिए दी थी,जिससे एक "नारद"नाम का पुत्र भी हुआ था,जो अत्यन्त प्रसिद्द हुआ,यही सब सपिण्ड पुरुषों की सपिण्ड स्त्रियों से सम्भोग की कथाएं हैं.
 
भारत में प्राचीन आर्य स्त्रियों की बिक्री होती थी,विवाह की आर्य पद्धति से लड़कियों की विक्री की जाती थी,पिता गो मिथुन देता था और कन्यादान लेता था मतलब गो मिथुन के लिए कोई भी लड़की बिकती थी,"गो मिथुन का मतलब था एक गाँव और एक बैल जोकि एक लड़की की योग्य कीमत समझी जाती थी".अपनी लड़कियों को उनके पिता तो बेंचते ही थे बल्कि अपनी पत्नियों को उनके पति भी बेंचते थे, हरिवंश पुराण अपने 79 वें अध्याय में कहता है कि जो पुरोहित संस्कार कराता है एक पुण्यक व्रत उनकी दक्षिणा होनी चाहिए, इसका कहना है कि ब्राम्हण स्त्रियों को उनके पतियों से खरीदा जाय,और ब्राम्हण पुरोहितों को दक्षिणा के तौर पर दान में दे दी जाय,जिससे स्पस्ट होता है कि ब्राम्हण अपनी पत्नियों को बेंचते थे.
    
इसी तरह प्राचीन आर्य अपनी स्त्रियों को सम्भोग के लिए किराए पर भी देते थे, महाभारत के अध्याय 103 से 183 तक माधवी का जीवन चरित्र दिया हुआ है,जिसके अनुसार माधवी राजा ययाति की लड़की थी,ययाति ने उसे किसी को दी जाने वाली दक्षिणा के तौर पर गालब नामक ऋषि को सौंप दिया था,जिसने माधवी को तीन राजाओं को किराए पर दिया था,लेकिन सिर्फ उतने समय के लिए जितने समय में वह मां बन सके,तीनो राजाओं की बारी हो चुकने के बाद गालब ने उसे अपने गुरु विश्वामित्र को सौंप दिया था,विश्वामित्र ने उसे अपने पास रखा और बाद में उसे गालब ऋषि को वापस सौंप दिया अंत में गालब ने उसे उसके पिता ययाति को सौंप दिया.
   
जैसा कि विदित हो प्राचीन आर्य जनों में बहुपितृत्व या बहुपत्नीत्व की प्रथा चालू थी,जहाँ स्वच्छन्द सम्भोग एक आम बात थी,जिसे नियोग कहा जाता था,नियोग आर्यों की एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके आधीन कोई भी विवाहित स्त्री किसी भी ऐसे आदमी को जो उसका पति नहीं संतानोत्पत्ति के निमित्ति नियोग करने के लिए कह सकती थी इस पद्धति का परिणाम यह हुआ कि सम्भोग को लेकर संपूर्ण स्वच्छन्दता ,क्योंकि यह अमर्यादित थी पहली बात तो यह कि स्त्री मन चाहे नियोग करा सकती थी संख्या के विषय में कोई नियम था ही नहीं,पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को चार नियोग की अनुमति दी थी,व्यूलिस्तव को सात नियोगों की अनुमति थी,और बलि के बारे में जानकारी है कि उसने सत्रह नियोग कराये थे,ग्यारह नियोग पहली पत्नी से और छह नियोग दूसरी पत्नी से, नियोग पति के जीवन काल में भी होता था जब पति संतानोत्पत्ति के अयोग्य न हुआ हो तब हो सकता है प्रस्ताव पत्नी की तरफ से ही हुआ हो,नियोग कर्ता का चुनाव उसी की मर्जी से होता हो उसे इस बात की पूरी स्वतंत्रता थी कि वह स्वयं तय करे कि उसे नियोग किसके साथ करना है,और कितनी बार करना है आदमी और औरत के साथ जो निषिद्ध सम्भोग हो सकता था उसे ही नियोग कहते थे,जो एक रात के लिए हो सकता था और बारह वर्षों के लिए भी चालू रह सकता था,जिसमे उसका पति भी मौन सहयोगी माना जाता था.
  
इनके बीच अनैतिक व्यवहार इस तरह के थे कि दुर्योधन के द्वारा जब द्रोपदी को गौ कहा गया तो उसने जवाब दिया कि उसे अफ़सोस है कि उसके पति ब्राम्हण नही हैं.

ऋषियों में भी पशुता की कोई कमी नहीं थी,महाभारत के 100 वें अध्याय में लिखा है कि विभण्डक ऋषि ने एक हिरनी के साथ सम्भोग किया है,जिससे श्रृंगी ऋषी नामक एक पुत्र पैदा हुआ था,महाभारत के आदिपर्व के प्रथम अध्याय और एक सौ अठारहवें अध्याय में व्यास ने लिखा है कि एकबार जब एक दमऋषि एक हिरनी के साथ संभोगरत था तभी पांडु ने दमऋषी को एक तीर मारा था जिससे दमऋषि की उसी समय मृत्यु हो गई लेकिन मरने से पहले उसने पाण्डु को एक श्राप दिया था कि अगर पाण्डु ने अपनी पत्नी को कभी छुआ तो वह तुरंत मर जाएगा.
   
इसी तरह महाभारत के आदिपर्व के 63 वें अध्याय में वर्णन है कि एक मछुये की बेटी सत्यव्रती (मत्स्यगंधा) के साथ खुले आम एक ऋषि ने मनोरंजन के तौर पर सम्भोग किया,वही आदिपर्व के ही 104 वे अध्याय में लिखा गया है कि दीर्घतमा नामक ऋषि ने लोगों के सामने एक सार्वजनिक जगह पर एक स्त्री के साथ सम्भोग किया,इसी तरह महाभारत में ढेरों सारे ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जिसमें ऋषियों की उद्दंडता और पशुता उजागर की गई है,सबके सामने किये गए सम्भोग से उत्पन्न पुत्र को अयोनिज कहा गया था मतलब सभी के सामने सार्वजनिक जगह पर किये गए सम्भोग से उत्पन्न संतान.
   
वही ऋषियों के लिए एक और प्रथा थी कि जब भी जहाँ कहीं कोई यज्ञ चल रहा होता हो तो कोई भी ऋषि वही यज्ञ मंडप में सबके सामने किसी भी स्त्री के साथ सम्भोग करे,ऋषियों की इस अनैतिक हरकत को धार्मिक नाम देकर "वामदेव व्रत" रखा गया जिसका ही आगे चलकर नाम वाम मार्ग दे दिया गया.

ऋषि भी कितने भाग्यवान थे कि राजा भी अपनी रानियों को अच्छी नश्ल की संतानोत्पत्ति के लिए ऋषियों के पास भेजते थे.
    
वहीँ देवतागण भी उच्चश्रृंखल और शक्तिशाली जाति के थे,वे ऋषि पत्नियों तक पर भी हाथ साफ कर जाते थे,गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने क्या किया था यह कृत्य तो जग जाहिर है,देवताओं का स्वामित्व तो सायद इतना विकृत हो गया था कि वे आर्यजनों की देवियों को देवताओं की कामुकता को संतुष्ट करने के लिए वैश्या तक बनना पड़ता था,लेकिन आर्य जनों को यह बात अभिमानजनक लगती थी कि उनकी पत्नी किसी देवता के साथ संसर्ग करती है,और ख़ास बात यह है कि अगर किसी देवता के साथ संसर्ग से अगर किसी को गर्भ ठहर जाता तो उन्हें सम्मानपूर्वक किसी इंद्र,यम, नस्त्य,अग्नि,वायु और इसी तरह के देवताओं से उत्पन्न पुत्र करार दिया जाता था,इस तरह की संतानोत्पत्ति सामान्य बात थी.
   
समय उपरान्त देवताओं और आर्य जनों के सम्बन्ध स्थिर हो गए,जिसने अंत में सामंतशाही का रूप धारण कर लिया,और देवताओं ने आर्यो से दो वर लिए ,पहला-यज्ञ जो देवताओं के लिए एक प्रीतिभोज थे यह भोज इसलिए दिए जाते थे कि देवतागण आर्यो को आवश्यक्तानुसार राक्षसों,दैत्यों,और दानवों के विरुद्ध युद्ध में संरक्षण प्रदान कर सकें,इसतरह देवता का मतलब था संरक्षण के बदले उगाही (रिश्वत)लेने वाला ,बाद में इसी देवता शब्द को जमातपरक न रखकर इस्वरपरक बना दिया,जोकि एकदम ही गलत है.
   
वहीँ दूसरा वरदान देवताओं ने आर्यों से माँगा था कि आर्यजनों की स्त्रियों को भोगने की उन्हें प्राथमिकता दी जाय,जो कि आरंभिक काल में ही साकार हो गया था,इसका उल्लेख ऋग्वेद (१०-८५-४० )में है,जिसके अनुसार आर्य देवी पर पहला हक "सोम" का था,दूसरा "गन्धर्व" का तीसरा "अग्नि"का और सबसे अंत में आर्यजन का.

आपने देखा कि आर्यो की स्त्रियों पर क्रमशः पहला ,दूसरा और तीसरा हक़ सोम,गन्धर्व और अग्नि का होता था और सबसे अंत में खुद आर्य का..मतलब साफ था कि आर्यो को उनकी ही स्त्रियों पर अधिकार देवताओं की मेहरबानी पर निर्भर था क्योंकि बदले में देवता आर्यों की राक्षसों,दैत्यों,और दानवों से सुरक्षा करते थे...अब आगे....
     
इस तरह हर आर्य देवी (नाबालिग कन्या ) पर किसी न किसी देवता का ऋण चढ़ा रहता था, और जब भी वह बालिग़ हो जाती थी तो उस पर उसी देवता की हो जाती थी,और अगर इस दायरे से विवाह हेतु कन्या को बाहर करना होता था तो उसे उचित दक्षिणा देकर उसे देवता के अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाता था.
   
आस्वालायन ग्रहसूत्र के प्रथम अध्याय की सातवीं अण्डिका में इस विवाह विधि का जो वर्णन दिया है वह इस पद्धति के अस्तित्व का अकाट्य प्रमाण है,जिसके अनुसार विवाह के समय तीन देवता उपस्थित होते थे,आर्यमान,वरुण तथा पुशन ,इसलिए क्योंकि आर्य देवी पर सबसे पहला हक़ इन्ही तीनो का होता था.इससे साबित होता है कि आर्यजन देवताओं द्वारा कितनी जघन्य अवस्था को पहुंचा दिए गए थे,और न केवल देवता बल्कि आर्यजन भी नैतिक दृष्टि से कितने पतित हो चुके थे...  

:- डा.बी.आर.अम्बेडकर, हिन्दुधर्म की रिडल्ज पृष्ठ- 93-94-95-96-97-98
    


सिंधुघाटी सभ्यता विनाश।

सिंधुघाटी सभ्यता के विनाश की कहानी ऋग्वेदिक आर्यो की जुबानी।

विश्व की उत्कृष्ट सिंधुघाटी सभ्यता के विनाश का कारण ऋग्वेदिक आर्य थे जिसे आर्यों नें अपनें धर्मग्रंथ "वेदों" में लिखकर रखा हैं, आर्यों के वेद और कुछ नहीं बल्कि विदेशी आर्य और सिंधुघाटी सभ्यता के सृजनकर्ता अनार्य के बीच हुए नरसंहार और विध्वंस के लिखित दस्तावेज हैं आर्यो को डर था कि आने वाली सदियों में उनके इस कुकृत्य को कोई जान न जाय इसीलिये उन्होंने अन्य किसी को वेदों के पढ़ने पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया, वेदों का पन्ना पन्ना इस अमानवीय अत्याचार की खुली गवाही दे रहा है-जानिए कैसे-

वेदों में आर्य इंद्र के जिन विरोधियों का बार बार जिक्र किया गया है उन्हें दस्यु तथा दास कहकर संबोधित किया गया है, आर्यो नें इन्ही सिंधुघाटी सभ्यता के मुलनिवाशियों दस्यु तथा दासों को लंबे संघर्ष के बाद उन्हें पराजित कर पूर्णतया नष्ट कर दिया गया और सिंधुघाटी सभ्यता को सदैव के लिये दफन कर दिया गया इसी दमनात्मक अत्याचार की कहानी आज भी वेदों में लिखित है- 

ऋग्वेद-V-29-10-
प्रन्यच्चक्रैमवृह: सूर्यस्य कुत्सात्यान्य द्वरिवो यातबैअक: !
अन्नासो दस्युवं रमृणो वधेनि दुर्योंण आब्रणाड़ मृघृवाच: !!
अर्थात- है इंद्र तूने सूर्य के एक चक्र को पृथक किया तथा कुत्स को धन देने के लिए दूसरा चक्र बनाया, तूने छोटी नाक वाले दस्युओं को शस्त्र से मारा तथा संग्राम में बोलने वालों को भी मारा. (अनार्य द्रविड़ दस्युओं को वेदों में काले चपटी नाक वाले बताया गया है).

ऋग्वेद -lV- 16-13-
त्वं विप्ररुम मृगयं शूशुवान्स मृजिशवनेवैद्नाय रंधी: !
पंचाशत कृष्णा निवप:  सहस्रसात्कम न पुरौ जरिमाविदर्द: !!
अर्थात हे इंद्र विदथि के पुत्र ऋजिश्वी के लिए तूने विपरुम तथा अति बलशाली मृगया को मारा, तूने पांच हजार काले वर्ण के असुरों को भी मारा, तथा जैसे लोग जीर्णशीर्ण कपड़ों को फाड़ डालते हैं उसी तरह तूने शत्रुओं के नगरों को तोड़ डाला.

ऋग्वेद-l-138-8-
हे इंद्र तूने ज्ञानी मनुष्य के लिए नियम तोड़ने वाले को दण्ड दिया तथा काली त्वचा वाले शत्रुओं (दस्युओं) को विनष्ट किया.

ऋग्वेद-Vll-5-3-
त्वद भिया विश आर्यन्नर्सिर्की रसमना जहतीर्भोजनानि !
वैस्वानर पूरवे शोशुचान: पुरो यदगनें दर्यन्नदीदै: !!
अर्थात -है अग्ने, जब तूने पुरु राजा के लिए प्रज्वलित होकर शत्रु के नगरों को जला दिया,तो भयभीत हो शत्रु की काले रंग की प्रजा भोजनादि त्यागकर भाग उठी.

ऋग्वेद-lX-41-1-
प्रये गावो न भूर्णा यस्तवेषा आयासो अक्रमु: ! घ्नंत: क्रभणामप त्वचम !!
अर्थात हे स्तोता, काले रंग के असुरों को मारकर विचरण करने वाले जल के समान द्रव्य तेजयुक्त निष्पन्न सोम की भली प्रकार स्तुति करो.
 
इस प्रकार ऋग्वेदिक आर्यों नें अपनें शत्रुओं दस्यु और दासों को काले रंग का बताया है। ऋग्वेद में स्वयं लिखा गया है कि सोम, अदिति, इंद्र के आर्य अनुयायियों को सिंधुघाटी सभ्यता (भारत) के काले लोगों के साथ लड़ना पड़ा, यहां इससे एक बात और साफ हो जाती है कि नार्डिक आर्य गौर वर्ण के थे, जबकि अनार्य दस्यु तथा दासों का रंग काला था,यही वजह है ईरानियों नें भारत के लोगों को काला (हिन्दू) कहा है.

ऋग्वेद-Vl-18-13-
व्यानवस्य तृतसवे गयं भा अंजेशम पुरं मृघ्रवाचं 
अर्थात इंद्र नें अपनी शक्ति से दस्युओं के नगरों को तोड़ डाला और अनुपुत्र तुत्सु को दे दिया,इसलिए हे इंद्र हम पर अब ऐसी कृपा करो कि हम इन मृघृवाचों पर विजय पा सकें.

ऋग्वेद-X-12-8- स्पष्ट कहा गया है, कि हम दस्युओं के बीच रहते हैं ये दस्यु यज्ञ नहीं करते, और किसी में भक्ति नहीं रखते, इनकी रीतियाँ ही प्रथक हैं, ये मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं, इसलिए शत्रुओं का नाश करने वाले हे इंद्र इनका नाश कीजिये-

(यहां यह बात ध्यान देने वाली है कि नार्डिक आर्यों नें सिंधुघाटी सभ्यता के अनार्यो को मृघ्रवाच भाषा वाला बताया है यह वही द्रविण भाषा है जो आर्यो के समझ में नहीं आती थी).

जिस प्रकार उत्तर भारत की आर्य भाषाओं का संबंध हिंदी, पंजाबी तथा बंगाली से है ठीक उसी प्रकार दक्षिण भारत की द्रविण भाषाओं तमिल,मलयालम,तथा कन्नड़ आदि का सम्बंध उस भाषा से है, जो सिंधुलिपि में लिखी जाती थी, इस हकीकत नें सारी दुनियाँ को हकीकत में डाल दिया और बतला दिया कि सिंधुघाटी सभ्यता के सृजन में जिन लोगों का हाथ था, वे आज के द्रविणो के ही पूर्वज द्रविण थे, जिनका रंग काला,छोटा कद,
घुंघराले बाल,छोटी चपटी नाक तथा वे आर्यों द्वारा न समझी जाने वाली द्रविण भाषा बोलते थे,जिनका दस्यु तथा दासों के रूप में ऋग्वेद में बार बार वर्णन आया है,जिनका आर्यों के साथ लगातार युद्ध हुआ था।

:- सिंधुघाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक- पृष्ठ--57-58-59-60. 

वैदिक धर्म बर्बर और अश्लील।

वैदिक आर्यों का धर्म बर्बर और अश्लील ।

वैदिक आर्यों का धर्म बर्बर और अश्लील था मानव बली उनके धर्म का अंग था और उसे नरमेध यज्ञ कहा जाता था,इसका यजुर्वेद संहिता,यजुर्वेद ब्राह्मण, सांख्यायन और वैतानसूत्र में सविस्तार वर्णन है, प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे, लिंग पूजा को स्कम कहते थे , जो आर्य धर्म का अंग थी जैसा कि अथर्ववेद के मंत्र 10 .7 में वर्णित है।

एक और अश्लीलता प्रथा थी ,जिसने प्राचीन आर्य धर्म को विकृत किया हुआ था ,वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि,अश्वमेध यज्ञ का एक आवश्यक हिस्सा यह था कि मेधित ( मृत अश्व ) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में ब्राह्मणों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था।। वासनेयी संहिता का एक मंत्र 23 .18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है ? 

जो इस विषय में और अधिक जानना चाहते हैं , वे यजुर्वेद की महीधर की टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं, जहां वह इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं जो आर्य धर्म का अंग थी.

आर्य संस्कृति क्या .?.आर्य एक जुआरी प्रजाति के थे ? आर्य सभ्यता के प्रारंभकाल में जुआ एक विज्ञान के रूप में विकसित हो चुका था,यहां तक कि कई तकनीकी शब्द भी गढ़े गए , हिंदू चार युगों को मृत , त्रेता , द्वापर और कलि के नाम से जानते हैं , जिसके अनुसार इतिहास का काल -विभाजन किया गया था दरअसल ये आर्यों द्वारा जुए में खेले जाने वाले दांव थे सबसे सौभाग्यशाली दांव कृत कहलाता था और दुर्भाग्यपूर्ण दांव को कलि कहते थे, त्रेता और द्वापर इनके बीच के थे, यह बात नहीं थी कि प्राचीन आर्यों में घूतक्रीड़ा भली - भांति विकसित थी, अपितु बाजियां भी ऊंची -ऊंची हुआ करती थीं, बड़ी -बड़ी धनराशि की बाजियां भी हुआ करती थीं, ऐसी बड़ी -बड़ी बाजियां तो अन्यत्र भी थीं , परंतु आर्यों से बढ़कर नहीं थीं।

आर्य जुए में अपने राज्य, यहां तक कि पत्नियों को भी दांव पर लगा दिया करते थे, राजा नल अपना राज्य ही हार बैठे थे, पांडव इससे भी बढ़कर थे, उन्होंने न केवल अपना राज्य बल्कि अपनी पत्नी द्रौपदी तक को दांव पर लगा दिया और दोनों को हार गए केवल धनवान आर्य ही जुआ नहीं खेलते थे बल्कि यह बहुतेरों का व्यसन था, प्राचीन आर्यों में घूतक्रीड़ा इतनी व्याप्त थी कि धर्मसूत्रों ( शास्त्रों ) के लेखकों को राजाओं को सलाह देनी पड़ती थी कि कठोर नियम बनाकर उस पर नियंत्रण की सख्त जरूरत है.
   
आर्यों में मैथुन के संबंध में स्वच्छन्दता विद्यमान थी, एक समय था ,जब वे विवाह को स्त्री - पुरुष के बीच स्थायी नहीं मानते थे, यह महाभारत से स्पष्ट है , जहां पांडुपत्नी कुंती पांडु के यह कहने पर कि वह किसी अन्य से पुत्र प्राप्त करें , वह बताती है कि उसको पहले ही एक पुत्र की प्राप्ति हो चुकी है, 

ऐसे भी उदाहरण हैं कि बहन -भाई , मां - बेटे , पिता - पुत्री और नाना , दादा - पौत्रियों तथा नातिनों के बीच शारीरिक संबंध थे, स्त्रियों में स्वच्छंदता थी, यह खुली स्वच्छंदता थी, जहां कई पुरुष एक स्त्री को भोगते थे और उस पर किसी का निजी अधिकार नहीं था ऐसी स्त्रियां गणिकाएं कहलाती थीं, आर्यों की स्त्रियों में स्वच्छंद मान्यता और भी थी,बइसके अनुसार एक स्त्री कई पुरुषों से बंधी होती थी और प्रत्येक का दिन निर्धारित होता था, वह स्त्री वारांगना कहलाती थी, यही वजह थी कि वेश्यावृत्ति खूब फली -फूली हुई थी और सार्वजनिक मैथुन का प्रचलन था, परंतु यह प्रथा प्राचीन आर्यों में थी, प्राचीन आर्यों में पशुगमन ( मैथुन ) भी प्रचलित था और ऐसे महारथियों में अधिकांशतः कुछ सम्मानित ऋषि सम्मिलित थे।

प्राचीन आर्य मद्यसेवी ( शराबी ) भी थे, मदिरा उनके धार्मिक कृत्यों का अनिवार्य अंग थी, वैदिक देवता मदिरा पीते थे , दैवी मदिरा सोम कहलाती थी क्योंकि आर्यों के देवता ही मद्यपान करते थे , इसलिए आर्यों को मदिरापान में कोई नैतिक संकोच की बात नजर नहीं आती थी, दरअसल शराब पीना आर्यों का धार्मिक कर्तव्य था आर्यों में इतने सोम यज्ञ होते थे कि कोई बिरला दिन ही मद्यपान से बच पाता होगा, सोम - यज्ञ केवल तीन उच्च वर्गो - ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्यों तक सीमित था,बइसका अर्थ यह नहीं कि शूद्र मदिरापान से मुक्त थे, उनके लिए सोमपान निषिद्ध था , वे सुरा पीते थे जो घटिया पेय था, घटिया शराब बाजार में मिलती थी,केवल आर्य पुरुषों को ही शराब की लत नहीं थी बल्कि उनकी स्त्रियों को भी यह लत थी।

कौशीतकि गृह्यसूत्र 1 . 11 - 12 में परामर्श दिया गया है कि चार अथवा आठ ऐसी स्त्रियां जो विधवा न हों ,भोजन के साथ मदिरापान कर , विवाह - संस्कार की पूर्व रात्रि में नृत्य के लिए बुलाई जाएं, नशीली शराब पीने की प्रवृत्ति केवल गैर - ब्राह्मण स्त्रियों तक ही सीमित नहीं थी, ब्राह्मण स्त्रियों में भी उसकी आदतें थीं, मदिरापान कोई पाप नहीं , बल्कि एक व्यसन था जोकि आर्यों की एक सम्मानजनक प्रथा थी-
     
   "डा.बी.आर.अम्बेडकर"
बा .अ .सं .वा .ख - 8 -पृ -117 - 118- 296.


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1...पेड़ की आड़ में छिपकर बाली का बध करने वाले "राम "को हम अपना आराध्य देव नहीं मान सकते.
2...जिसके भाई लक्ष्मण ने शुर्पनखा के नाक कान काट डाले थे उस" राम" को वे अपना आराध्य देव नहीं मान सकते.
3...दो दो बार अग्नि परीक्षा लेकर भी सीता को त्याग देने वाले "राम" को वे अपना आराध्य देव नहीं मान सकते.
4...तपस्या कर रहे संबूक को केवल इसलिए कि वह शूद्र था और तपस्या कर रहा था उसे मार डालने वाले "राम"' को वे अपना आराध्य देव नहीं मान सकते.
    
1...पूतना नाम की स्त्री को बचपन में ही जान से मार डालने वाला" कृष्ण" उनका भगवान् नहीं हो सकता है.
2...स्नान कर रही गोपियों के कपडे उठा ले जाने वाला और उन्हें नग्नावस्था में ही बाहर आने के लिए मजबूर करने वाला "कृष्ण"उनका भगवान् नहीं हो सकता है.
3...रुक्मिणी का त्याग कर राधा के साथ रमण करनेवाला "कृष्ण" उनका भगवान् नहीं हो सकता है.
     

नारी का अपमान।


स्वकीयाम च सुताम ब्रम्हा, विष्णु देवा स्वमातरम
भगनी भगवान शम्भूरगृतीतवाम, श्रेष्ठताम गात
- भविष्य पुराण प्रतिसर्ग-खंड 4 ,अध्याय 18 ,श्लोक -23
अर्थात ब्रम्हा अपनी पुत्री को , शिव अपनी बहन को, विष्णु अपनी माता को पत्नी बनाकर ही श्रेष्ठता को प्राप्त हुए हैं.

ऋग्वेद के दसवें मंडल सूक्त 10 मंत्र 1 से 15 तक यम और यमी दो सगे भाई बहनों के प्रेम प्रसंग का विस्तृत वर्णन है, ऋग्वेद में पिता द्वारा पुत्री की इज्जत लूटने का कई जगह वर्णन है-
पिता दुहि तुरगर्भ माधात -
ऋग्वेद-1-,164-33.
अर्थात पिता ने पुत्री को गर्भ स्थापित किया.

पितामत्र दुहितः सेकम्रजन-
ऋग्वेद-3-31-1
अर्थात पिता ने पुत्री में वीर्य सींचा.
  
महानिर्वाण तंत्र लिखता है-
मात्र योनि क्षिपेत लिंगम, भगनिया स्तन मर्दनम
गुरुर मूर्धनया पदम दत्वा, पुनर्जन्म न विधते
अर्थात- माँ की योनि में लिंग प्रविष्ट करो,बहन के स्तन को मसलो -तो ऐसा करने से गुरु पद की प्राप्ति होती है, और पुनर्जन्म नहीं होता है.

कालितंत्र लिखता है-
मात्र योनि परित्यज्य, विहरेतु सर्वेशु योनिशु-
अर्थात मां की योनि को छोड़कर सभी योनियों में भ्रमण करो, अर्थात मां को छोड़कर चाहे बहन बेटी ही क्यों न हो उनके साथ विहार करो.

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद सरस्वती लिखते हैं-कि संतान की इच्छुक स्त्री ग्यारह पुरुषों तक से यौन संबंध स्थापित कर सकती है.

रुद्र यामल तंत्र में तो मूलनिवासी स्त्रियों की इज्जत लूटने वाले व्यक्ति को तो स्वर्ग का रास्ता दिखाया गया है- 
रजस्वला पुष्करम तीर्थ चांडाली तू काशिका ।
चर्मकारी तू परायागह स्याद्रज की मथुरा मता ।
अयोध्या वर वधु प्रोक्ता माया तू नापित स्त्रियः ।
अर्थात -रजस्वला स्त्री के साथ संभोग करना पुष्कर तीर्थ के समान है,चांडाल स्त्री के साथ सम्भोग करना काशी तीर्थ के समान है, चमारिन के साथ संभोग करना प्रयागराज तीर्थ के समान है, धोबन के साथ संभोग करना मथुरा तीर्थ के समान है, वैश्या के साथ संभोग करना अयोध्या तीर्थ के समान है, और नाई स्त्री के साथ संभोग करना हरिद्वार तीर्थ के समान है.

स्त्री, शूद्रों विद्या न धियताम
अर्थात स्त्री और शूद्रों को शिक्षा मत दो.

रामचरित मानस में नारी अपमान नस्लभेद का परिणाम-पृष्ठ-29-30-31

सीता त्याग, सच्ची रामायण, शम्बूक।

रावण को मारने के पश्चात राम सीता से  कहते है, उसके कुछ अंश-

भद्रे ! समरागणमें (युद्ध) में शत्रुको पराजित करके मैंने तुम्हें उसके चंगुलसे छुड़ा लिया। पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब मैंने किया। मुझ पर जो कलंक लगा था, उसका मैंने मार्जन कर दिया। जब तुम आश्रम में अकेली थी, उस समय वह चंचल चित्त वाला राक्षस तुम्हें हर ले गया। वह दोष मेरे ऊपर दैव वश प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने मानव साध्य पुरुषार्थ के द्वारा मार्जन कर दिया। जो पुरुष प्राप्त हुए अपमान का अपने तेज या बलसे मार्जन नही कर देता है, उस मन्दबुद्धि मानव के महान पुरुषार्थ से भी क्या लाभ हुआ ? अपने तिरस्कार का बदला चुकाने के लिए मनुष्य का जो कर्त्तव्य है, वह सब मैंने अपनी मानरक्षा की अभिलाषा से रावण का वध करके पूर्ण किया। तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम उठाया है तथा इन मित्रों के पराक्रमसे  जो इसमें विजय पायी है, यह सब तुम्हें पाने के  लिये नही किया गया है। तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो, जैसे आँखों के रोगी को दीमक की ज्योति नही सुहाती, उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो। अतः जनक कुमारी ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ! ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिये खुली है। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नही है।

कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्रीको, केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा। रावण तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान् बताया हुआ मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ।
अतः जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था, वह सिद्ध हो गया । मेरे कुल के कलंक का मार्जन हो गया। अब मेरी तुम्हारे प्रति ममता या आशक्ति नही है, अतः तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो। तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के संरक्षण में सुख पूर्वक रहने का विचार कर सकती है। सीते ! तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण के पास भी रह सकती हो। जहाँ तुम्हें सुख मिले, वही अपना मन लगाओ। सीते ! तुम जैसी दिव्यरुप सौन्दर्यसे सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में स्थित देखकर रावण चिर काल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नही सह सका होगा।

सीताने रामसे कहा---

वीर ! आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रुखी बात मुझे क्यों सुना रहे है। जैसे कोई निम्न श्रेणीका पुरुष निम्न कोटि की ही स्त्रीसे न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे है। नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही संदेह करते है तो यह उचित नही है। नृपश्रेष्ठ ! आपने ओछे मनुष्य की भाँति केवल रोषका ही अनुसरण करके मेरे शील-स्वभाव का विचार छोड़कर केवल निम्न कोटि की स्त्रियोंके स्वभाव को ही अपने सामने रखा है ।

श्रीमद्वाल्मीकीरामायणे द्वितीय खण्ड- पृ-620-622 तक । गीताप्रेस, गोरखपुर


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सच्ची रामायण 

पेरीयार रामास्वामी अपनी किताब "सच्ची रामायण " मे लिखते है... राम सीता कोई आदर्श पात्र नही है... राम और सीता बहुत व्यभिचारी (अश्लील) है.  हनुमान कोई ब्रह्मचारी व्यक्ती नही था. राम और हनुमान मे सौदा हुआ था. उस सौदे मे
हनुमान सीता से संभोग की मांग करता है. यह सौदा छुपाने के लिये "राम सागर प्रस्तुत " रामायण मे हनुमान को ब्रह्मचारी व्यक्ती दिखाया गया है....!!!

पेरीयार रामास्वामी की किताब " सच्ची रामायण " पर उ.प. हायकोर्ट के मुकदमा दर्ज हुआ... पेरीयार रामास्वामी के तरफ से " ललई सिंह यादव " इन्होने मुकदमा लडा और मुल रामायण के श्लोको का उदाहरण देके यह सिद्ध किया की " सच्ची रामायण " किताब मे पेरीयार रामास्वामीजी ने जो भी लिखा है वो " शत प्रतिशत सत्य" है और मुकदमा जीत भी लिया... मुकदमे का निर्णय जो की पेरीयार रामास्वामी के पक्ष मे था वह किताब के आखरी पृष्ठ पर छापा हुआ है.

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बाल्मीकि रामायण में राम द्वारा शम्बूक के वध की कथा इसके रचनाकाल के दौरान वैदिक ब्राह्मणों के वर्चस्व की झलक तो देती ही है, यह शूद्रों के प्रति उनके क्रूर तथा अन्यायपूर्ण व्यवहार को भी प्रदर्शित करती है। ठीक वैसा ही जैसा उनका व्यवहार बौद्ध, तथागत, लोकायत व नास्तिकों के प्रति दिखाई देता है।
    यह कथा बाल्मीकि रामायण में उत्तरकाण्ड के तिहत्तरवें सर्ग से प्रारंभ होकर छियत्तरवें सर्ग पर समाप्त होती है।
 कथा संक्षिप्त में इस प्रकार है- 
    शत्रुघन को मथुरा भेजकर राम भरत और लक्ष्मण के साथ धर्मपूर्वक राज्य करते हुए सुख और आनंद से रहने लगे।
    कुछ दिनों बाद उस जनपद में रहने वाला एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुए बालक का शव लेकर राजद्वार पर आया।वह स्नेह और दुःख से व्याकुल होकर रो रहा था और बार-बार "बेटा-बेटा"  पुकारता हुआ विलाप कर रहा था।
    वह विलाप करते हुए कहने लगा-" हाय! मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पाप किया था, जो इन आँखों से अपने इकलौते बेटे की मृत्यु देख रहा हूँ। बेटा अभी तो तू बच्चा था केवल पाँच हजार दिन की तेरी उम्र थी। तेरे दुःख से मैं और तेरी माँ थोड़े ही दिनों में भर जाएँगे। मुझे याद नहीं कि कभी मैंने झूठ बोला हो।किसी प्राणी की हिंसा की हो या कष्ट पहुँचाया हो। किस पाप से यह बेटा बिना पितृकर्म किये बचपन में ही यमराज के घर चला गया।रामराज्य में अकाल मृत्यु की ऐसी भयावह घटना न देखी न सुनी गई थी। निश्चय ही यह राम का कोई महान दुष्कर्म है। इसलिए इनके राज्य में यह घटना हुई है । मृत्युपाश में पड़े इस बालक को जीवित कर दो अन्यथा मैं अपनी पत्नी सहित इस राजद्वार पर अनाथ की तरह प्राण दे दूँगा। हे राम ! फिर ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना ।"
     इस तरह वह ब्राह्मण बार-बार विलाप कर रहा था।
     उसका विलाप सुनकर दुःखी राम ने वसिष्ठ, वामदेव, मंत्रियों और महाजनों को बुलाया और उनसे कहा-" यह ब्राह्मण राजद्वार पर धरना दिये पड़ा है।" राम ने उन्हें पूरी घटना बताई और समाधान चाहा।
     यह सुनकर नारद ने कहा-" राजन! बालक की अकाल मृत्यु का कारण बताता हूँ। सुनिए। पहले सतयुग में ब्राह्मण ही तपस्वी थे, अन्य कोई तपस्या में प्रवृत्त नहीं होता था। तब ब्राह्मण उत्कृष्ट थे और क्षत्रिय अपकृष्ट थे, लेकिन त्रेतायुग में आकर ये समान शक्तिशाली हो गए। तब मनु आदि प्रवर्तकों ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था बनाई। सतयुग में कृषिकर्म आदि अधर्म थे, किन्तु त्रेतायुग में इनका विस्तार हुआ। इनके कुपरिणाम से बचने के लिये यह व्यवस्था बनाई गई। इस त्रेतायुग में ब्राह्मण व क्षत्रिय ही तपस्या के अधिकारी हैं। उन चारों वर्णों में से वैश्य और शूद्र को सेवारूपी उत्कृष्ट धर्म स्वधर्म के रूप में प्राप्त हुआ। वैश्य कृषि आदि कर्म से इन दो वर्ण की व शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करने लगे। इस युग में ब्राह्मण-क्षत्रिय का वैश्य-शूद्र के संसर्ग से दूसरी बार अधर्म का दूसरा पैर पड़ता है।इसलिए अगले युग का नाम द्वापर है। इस युग में वैश्यों को भी तपस्या का अधिकार है।शूद्र को इन तीनों ही युग में यह अधिकार नहीं है। कलयुग में हीन वर्ण अर्थात शूद्र योनि के मनुष्यों में तपस्या बढ़ेगी। जब द्वापर युग में ही यह महान अधर्म है तो इस त्रेतायुग में शूद्र का तप में प्रवृत्त होना तो होगा ही। राजन ! कोई खोटी बुद्धि वाला शूद्र आपके राज्य में तपस्या कर रहा है , उस कारण इस बालक की मृत्यु हुई है। शूद्र का यह कार्य राज्य को दरिद्र बनाता है व राजा नरक जाता है। हे नरशार्दूल! जो प्रजा के कर्मों के छठे भाग का उपभोक्ता है, वह प्रजा की रक्षा कैसे नहीं करेगा? आप अपने राज्य में ऐसे दुष्कर्म को रोकने का प्रयत्न कीजिए । इससे धर्म वृद्धि होगी, प्रजा की आयु बढ़ेगी तथा यह बालक जीवित हो जाएगा।"
    नारद की बात सुनकर प्रसन्न हुए राम ने लक्ष्मण से कहा-"सौम्य द्विज को सान्त्वना दो और उस बालक के शरीर को विकृत होने से पहले ही उसे गन्ध-सुगंध सहित तेल से युक्त काष्ठ के बड़े कठौते में रखवा दो।" 
    इसके बाद दोनों भाइयों को नगर की रक्षा में नियुक्त करके वे अस्त्र-शस्त्र सहित पुष्पक विमान में सवार होकर दुष्कर्मी की खोज में निकल पड़े । सभी जगह खोजते हुए उन्हें दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर में एक बड़े सरोवर के तट पर नीचे को मुख लटकाए एक तपस्वी भारी तपस्या करता मिला ।             
     रघुनाथ राम ने उसके पास जाकर कहा-" उत्तम वृत का पालन करने वाले तापस। तुम धन्य हो। तपस्या में बढ़े-चढ़े सुदृढ़ पराक्रमी पुरूष । तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथपुत्र राम तुम्हारा परिचय जानने की उत्सुकता से ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें क्या पाने की इच्छा है, जिसके लिये यह कठोर तप कर रहे हो? तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो अथवा शूद्र? ठीक ठीक बताना ।"
     यह सुनकर नीचे मस्तक किये लटका हुआ वह तथाकथित तपस्वी बोला-" मैं शूद्र योनि में उत्पन्न हुआ हूँ और सदेह स्वर्गलोक जाकर देवत्व पाना चाहता हूँ। मैं देवलोक पर विजय पाना चाहता हूँ । इस इच्छा से तपस्यारत हूँ। आप मुझे शूद्र समझिये। मेरा नाम शम्बूक है।"
     वह इस प्रकार कह ही रहा था कि राम ने तलवार खींच ली और शम्बूक का सिर काट डाला। इन्द्र , वायु सहित देवताओं ने राम की प्रशंसा करते हुए कहा-" आपने देवताओं का कार्य सम्पन्न किया है, जिससे यह शूद्र सशरीर स्वर्गलोक नहीं जा सका । आप जो वर चाहें मांग लें।"    
     राम ने इन्द्र से ब्राह्मणपुत्र के जीवित होने का वर मांगा।  देवताओं ने वर दिया तथा वह मृत ब्राह्मण पुत्र जीवित हो गया तथा अपने भाई बन्धुओं से जा मिला--
वाल्मीकि रामायण-पृष्ठ-1142- से-1147.

लिंगपूजा, अश्मेध।

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प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे, लिंग पूजा को स्कम्भ कहा जाता था, जो आर्य धर्म का प्रमुख अंग थी, जैसा कि अथर्व वेद के मंत्र 10.7 में है,वैदिक आर्यों में एक और अश्लील प्रथा थी,जिसने ही प्राचीन आर्य वैदिक धर्म को विकृत किया हुआ था, वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि, अश्वमेध यज्ञ का अनावश्यक हिस्सा एक यह था कि मेघित (मृत अश्व) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में पुरोहितों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र 23.18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है,जो इस विषय मे और अधिक जानना चाहते हैं वे यजुर्वेद की महीधर टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं,जहां वे इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं-

बाबासाहब अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्गमय खंड 8 पृष्ठ-296

(बाबासाहब डा.अम्बेडकर के विचार--यशवंत सोनटक्के-पृष्ठ-76).



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दशरथ के अश्वमेध यज्ञ में अश्व को मारकर तीनों रानियाँ रात भर अश्व के साथ रहती हैं तब होता, अध्वर्यु और उद्गाता तीनों रानियों को मरे हुए अश्व के पास (साथ) नियोजित करते हैं,

शब्दों का खेल है ग्रुप सेक्स छिपाने के लिए ! खीर का प्रसंग है ईश्वर शक्ति दिखाने के लिए !!


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`अश्वमेध-यज्ञ का सच’
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अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ होता था, और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। आपस्तम्ब: में लिखा है: सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं। अर्थात जब कोई राजा अपने साम्राज्य व आस-पास के अन्य राजा-महाराजाओं को युद्ध में परास्त कर देता और उसे बंदी या हत्या कर उनकी रानियों, दासियों और परास्त राजा के महलों की समस्त धन संपदा लूटकर अपने साथ ले आता तब वह राजा स्वयं को समस्त भूमि का मालिक अर्थात “भूपति” मानकर गौरान्वित हो जाता |इस अवसर पर उनके राजपुरोहित-ब्राहमण आदि उसे “अश्वमेध” यज्ञ की सलाह देते ताकि वह “दिग्विजयी राजा” की उपाधि से अलंकृत हो सके |इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक अधिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्थ आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रोत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया।
-यज्ञ का प्रारम्भ-
यज्ञ का प्रारम्भ बसन्त अथवा ग्रीष्म ॠतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्राय: एक वर्ष का समय लगता था। सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व (घोड़ा) चुना जाता था। यज्ञ स्तम्भ में बाँधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी। इसके सिर पर जय-पत्र बाँधकर छोड़ा जाता था। एक सौ राजकुमार, एक सौ राज सभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिये सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था। यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुन: की जाती थी।

-दिग्विजय-यात्रा-

जब यह अश्व दिग्विजय-यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतिक्षा करते थे।
जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था।
वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशु-यज्ञ होते थे, जिनमें सैकड़ों पशुओं यथा अश्व, भेड़-बकरों तथा अन्य हजारों जानवरों की बलीयां दी जाती एवं सोमरस (मदिरापान ) किया जाता था।
दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णावरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में बाँधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता (यजमान, हवन करने वाला) एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्म करते थे।
पुन: अश्व एक बकरे के साथ यज्ञ स्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिये अलग-अलग स्तम्भों (खूंटों) में बाँधे जाते थे। कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था ताकि मर सके ।
पुन: मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रा-वरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी, अर्थात जहाँ मुख्य अश्व बंधा हुआ होता वहाँ चारों तरफ कपड़े से पर्दा कर दिया जाता ताकि अन्य लोग देख न सकें ।इस परदे के भीतर बंधे हुए अश्व के साथ मुख्य रानी और एक पुरोहित ही रहता था |यह पुरोहितादि-ब्राह्मण रानी के साथ प्रमोद्पूर्वक (अश्लील) प्रश्नोत्तर करते थे ताकि रानी को कामवासना से जागृत किया जा सके ।
साथ ही ये पुरोहित-ब्राह्मण अपने वाक-चातुर्य से ऐसे द्विअर्थी छंदवाचन के साथ रानी के लिए आदेशात्मक वाक्य बोलते और रानी उनके कहेनुसार करती जाती इस प्रकार अंत में रानी एक-एक कर सारे वस्त्र ऊतार कर निर्वस्त्र हो जाती, साथ ही पुरोहित-ब्राहमण भी |
इस कार्य में उस अश्व को इस प्रकार से बांधा जाता व लकड़ियों से इस प्रकार प्रबंध किया जाता की घोड़ा अपने स्थान से हिल-डुल न सके ताकि रानी उसके नीचे आराम से सो सके |कुछ समय पश्चात् रानी घोड़े के नीचे सोकर सहवास का प्रयास करती, अगर कारणवश अश्व द्वारा ऐसा न हो पाता तो उसकी बलि देने के पश्चात् मरे हुए अश्व के लिंग से इस रश्म की अदायगी रानी को करनी होती |इससे पूर्व ब्राहमण के प्रमोद-प्रश्नोत्तरों के साथ निर्वस्त्र व पहले से ही वासना से जागृत रानी के साथ स्वयं ब्राहमण (पुरोहित) सम्भोग भी करता |कुछ समय बाद ज्यों-ही मुख्य रानी उठ खड़ी होती, त्यों-ही चातुरीपूर्वक यज्ञ-अश्व काट दिया जाता था |”

(देखें, महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित, डॉ.बाबासाहब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज़ खंड ३ के पृष्ठ १५३-१५७)
स्वामी दयानंद ने, यजुर्वेद भाष्य (पृष्ठ ७८८) में लिखा है: अश्विम्याँ छागेन सरस्वत्यै मेशेगेन्द्रय ऋषमें (यजुर्वेद २१/ ६०) अर्थात: प्राण और अपान के लिए दु:ख विनाश करने वाले छेरी आदि पशु से, वाणी के लिए मेढ़ा से, परम ऐश्वर्य के लिए बैल से-भोग करें.)

अबोधगम्य कृत्यों के पश्चात, जिसमें सभी पुरोहित एवं यज्ञ करने वाले सम्मिलित होते थे, अश्व के विभिन्न भागों को भूनकर प्रजापति को आहुति दी जाती थी। तीसरे दिन यज्ञकर्ता को विशुद्धि-स्नान कराया जाता, जिसके बाद वह यज्ञ कराने वाले पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान देता था।
दक्षिणा जीते हुए देशों से प्राप्त धन का एक भाग होती थी। जिसमें दासियों सहित रानियों को भी उपहार सामग्री के रूप में दिये जाने का उल्लेख पाया जाता है।
इस प्रकार के अश्लील यज्ञ “अश्वमेध” को ब्रह्म-हत्या आदि पापक्षय, स्वर्ग प्राप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित किया जाता रहा था।
ये आर्य पुरोहितादी-ब्राहमण इस प्रकार यज्ञ-भूमि पर धार्मिक रश्मों के नाम पर खुले आम मैथुन करते थे.
इसके अलावा ब्राहमण कुछ धार्मिक रीतियाँ जिन्हें वामदेव-विरत कहा जाता था, ये रीतियाँ यज्ञ-भूमि पर ही की जाती थी. यदि कोई स्त्री पुरोहित के सामने सम्भोग करने की इच्छा प्रकट करती थी तो वह उसके साथ वहीँ बलि के जानवरों के साथ परदे में मैथुन किया जाता था | ऐसा करना उस स्त्री के लिए सोभाग्य माना जाता था |

इस प्रकार इन विदेशी यूरेशियन आर्य-ब्राहमणों ने “अश्वमेघ-यज्ञ”, “पुत्रेष्ठी-यज्ञ” और वामदेव-विरत के साथ ही अनेकों प्रकार के यज्ञादि कार्यों से मुफ्तखोरी व “धार्मिक-मैथुन” परम्परा के रूप में अपनी श्रेष्ठता कायम कर हजारों सालों से वैदिक परम्परा द्वारा भारत में लूट मचाये रखी |

‘हालत को सबसे पहले महात्मा बुद्ध ने समझा और बौद्ध धर्म की स्थापना कर अहिंसावादी और समतावादी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी । ताकि सभी लोग अन्धविश्वासी परम्पराओं और जाति-पाति को छोड़कर समता, समानता, बंधुत्व और न्याय के शासन में शांति और प्रेम से रह सके। बहुत से लोगों ने महात्मा बुद्ध की बात को समझा और मोर्य वंश के उत्थान तक भारत में बहुत से लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए। लोगों का जीवन स्तर सुधरने लगा। ब्राह्मणवाद देश के हर कोने से समाप्त होने लगा।
सम्राट अशोक ने इस कार्य में विशेष योगदान दिया और बुद्ध धर्म को देश के कोने कोने में पहुँचाया। यहाँ तक बुद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार देश से बाहर बहुत से देशों में किया। यहीं नहीं सम्राट अशोक ने तो ऐसे यज्ञों पर पुर्णतः पाबन्दी लगा दी जो हिंसक व अश्लील होते थे |

इधर इन ब्राह्मणवादी आर्यों द्वारा लोगों को ठगने और मुफ्त में ऐश करने की आदत पड़ चुकी थी। देश का कोई भी मूलनिवासी ब्राह्मण व्यवस्था को मानने को तैयार नहीं था और ब्राह्मणों को दान देना भी लोगों ने बंद कर दिया था। ब्राह्मणवादी आर्यों के भूखे मरने के दिन आने लगे थे तो आर्यों ने फिर से एक बार मंत्रणा की और अपने आपको फिर से स्थापित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए।

सम्राट अशोक के पौत्र बृहदत के दरबार में पुष्यमित्र शुंग नामक एक आर्य सेनापति था। ब्राह्मणवादी आर्यों ने पुष्यमित्र शुंग जो स्वयं ब्राहमण था मगर परम्परागत आजीविका बंद होने के बाद मोर्य सम्राट वृह्दत्त की सेना में सेनापति बन गया, को अपनी ओर मिला लिया। ब्राह्मणवादी आर्यों ने एक षड्यंत्र रचा और उस षड्यंत्र के तहत पुष्यमित्र शुंग के हाथों भरे दरबार में बृहदत की हत्या करवा दी। हत्या के बाद पुष्यमित्र शुंग ने स्वयं को पाटलिपुत्र का राजा घोषित कर दिया। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धर्म को समाप्त करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। बहुत से बौद्ध भिक्षुयों को मार दिया गया। बौद्ध धर्म के मंदिरों और स्तूपों को नष्ट कर दिया गया। बहुत से बौद्ध भिक्षु भारत छोड़ कर भाग गए। इस षड्यंत्र से एक बार फिर से भारत में ब्राह्मणवादी आर्यों का शासन स्थापित हो गया।
यही वो पुष्यमित्र शुंग है जिसको आज के सभी ब्राह्मणवादी हिन्दू “राम” भगवान के नाम से याद कर पूजते है। पुष्यमित्र शुंग को भगवान बनाने का श्रेय वाल्मीकि को जाता है, जो पुष्यमित्र शुंग के दरबार में राजकवि हुआ करता था। जिसने कल्पित रामायण की रचना कर ब्राह्मणों के लिए फिर से “आराम” के दिन लौटाने वाले को “राम” बना दिया |
यही से इन यूरेशियन आर्य ब्राह्मणों के लिए पुष्यमित्र शुंग के द्वारा एक बार फिर से “राम-राज्य” लौट आता है |
पुष्यमित्र शुंग ने दो बार “अश्वमेध-यज्ञ” भी किया | यहाँ विचार करने योग्य बात है की अगर राम नाम का कोई अन्य वास्तविक भगवान था तो क्या उस राम भगवान ने इस प्रकार के “अश्वमेध-यज्ञ” किये ?
आज हम हिन्दू लोग जिस राम को ‘भगवान’ मानकर पूजा व आदर करते है असल में वो भगवान और कोई नहीं बल्कि ‘पुष्यमित्र शुंग’ नमक ब्राहमण राजा ही था, जिसने ब्राहमणों के लिए मुफ्तखोरी के दिन पुनः लाकर भागवत-धर्म का प्रचार-प्रसार कर बोद्ध धर्म को ख़त्म करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी |

वही ‘पुष्यमित्र शुंग’ ब्राहमणों के (हिन्दू) ग्रंथों में ब्राह्मणों की शक्ति का स्वरूप दर्शाने के लिए ‘परशुराम’ नामक मिथक भी गढ़ा गया !
धीरे-धीरे समय के साथ यज्ञ कार्यों में बलि व मैथुन-प्रथा में कमी आने लगी जिसका मुख्य कारण पवित्र बोद्ध-धम्म की मान्यता व व्यापकता रही |
आर्यों ने अहिंसावादी बोद्ध धम्म के पुनः बढ़ते प्रभाव की वजह से अपने यज्ञादि-कर्म-कांडों में परिवर्तन शुरू कर दिया, हालाँकि बलि-प्रथा आज भी विद्यमान है मगर आज अगर आधुनिक-यज्ञों की तुलना प्राचीन यज्ञों से करे तो कोई यह मानने को तैयार ही नहीं होगा की प्राचीन “वैदिक-यज्ञ” ऐसे भी होते थे !!!
यही वजह है की अगर आज किसी ब्राह्मणवादी से आर्यों के प्राचीन अश्लील कर्म-काण्डों और ऐसे यज्ञों का जिक्र करे तो वह काट-खाने आयेगा |
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“संस्‍कृति की अलगनी पर यह जो टंगा है, क्‍या अश्‍लील है ?”
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गालियों पर भड़कने वाले शब्‍द-चेतन सामाजिक प्राणियों को मालूम होना चाहिए कि अंदर की वेदना कई बार असभ्‍य तरीके से भी बाहर आती है। और इस असभ्‍यता को हमेशा नैतिकता के डंडे से हांकना उचित नहीं है। इस मामले में भारत की महान संस्‍कृति की दुहाई देने वाले पाठकों और विद्वानों के लिए यहां हम ‘अश्‍वमेध-यज्ञ’ में किये जाने वाले अश्‍लील नाटक का एक अंश दे रहे हैं, जिससे पता चलता है कि गाली और अश्‍लीलता किस तरह भारतीय समाज में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। जंगलयुग से लेकर आज तक सभ्‍यता के विकास की एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया रही है।
जो लोग भारतीय संस्‍कृति और सभ्‍यता को सिर्फ अपने रंगीन चश्‍मे से देखने के आदी रहे हैं और जिन्‍हें अतीत में सब कुछ हरा ही हरा दिखाई देता है, उन्‍हें यह पाठ सोचने पर मजबूर करेगा।
स्‍वांग का यह पाठ ‘कृष्‍ण यजुसंहिता’ तथा ‘शुक्‍ल यजुसंहिता’ में थोड़ा भिन्‍न रूप में है। यहां कृष्‍ण यजुसंहिता का अंश दिया जा रहा है। उक्‍त अंश को हमने प्रसिद्ध समाजशास्‍त्री विश्‍वनाथ काशीनाथ राजवाड़े की पुस्‍तक ‘भारतीय विवाह संस्‍था का इतिहास’ पीपीएच प्रकाशन, नयी दिल्‍ली, संस्‍करण 1988, की पृष्‍ठ संख्‍या 124-125 से साभार लिया है।
पाठ के साथ ही लेखक की टिप्‍पणी को भी यथावत रखा गया है, जिससे कि भारतीय समाज की विकास-यात्रा को समझने में सहायता मिलती है :

– मॉडरेटर…

“अश्‍वमेध-यज्ञ में किया जाने वाला अश्‍लील नाटक” :-

“साम्राज्‍य, राष्‍ट्र, संपत्ति वीर्यवान प्रजा की प्राप्ति हेतु ‘अश्‍वमेध-यज्ञ’ करने की प्रथा थी। यज्ञ में स्‍त्री-पुरुष मिश्रित सब प्रकार के समूह रहते थे। वहां अध्‍वर्यु, उद्गातृ, होता जैसे ऋत्विज पुरुष हुआ करते थे और महिषी, यजमान-पत्‍नी आदि स्त्रियां रहती थीं। वहां वीर्यवान प्रजा उत्‍पन्‍न हो, इस कामना की पूर्ति के लिए निम्‍न प्रकार का नाटक खेला जाता था।”
(अश्‍वमेध के घोड़े की बली के पश्चात्के यज्ञ स्थल पर उनके ‘मृत’ होकर गिर जाने के बाद वहां राजपत्नियों को बुलाकर लाया जाता था। )
राजपत्नियों में से पटरानी अपनी माता या सपत्नियों को संबोधित करके कहती थी :–

“मां और सपत्नियों, यह मुआ घोड़ा ही मेरे साथ सोएगा ! क्‍योंकि मुझे अभिगमन (सम्भोग) के लिए दूसरा कोई भी नहीं ले जा रहा है।”
पटरानी की यह शिकायत सुनकर घोड़ा (अध्वर्यु के रूप में ब्राहमण) हड़बड़ा कर जाग उठता है और पटरानी से कहता है :–

“आओ, हम यहां क्षौमवस्‍त्र (धुला हुआ वस्‍त्र) शरीर पर ओढ़कर सोएं।
इस सुझाव को सम्‍मति देकर पटरानी कहती है :–

“मैं तुम्‍हारे पास गर्भधारणार्थ आयी हूं, तुम भी मेरे पास बीज डालने के लिए आओ; आओ हम पैर फैलाकर सोएं।”
(घोड़ा तथा पटरानी के एक-दूसरे के पास लेटने के बाद प्रतिप्रस्‍थाता कहता है – यह घोड़ा वीर्यसिंचन करे और तुम्‍हारी योनि उस रेत को धारण करे।)
इस प्रकार का मंत्र कहकर, ऋत्विज घोड़े का लिंग, रानी की योनि के पास लाता है और कहता है – जांघ पर जांघ रख, और लिंग योनि में डाल। स्त्रियों को लिंग जान से भी प्‍यारा होता है क्‍योंकि वह योनि को कुचलता है, और योनि के काले छेद में रहने वाले बीज को मारता है।
यह नाटक होने के बाद रानी कहती है –

“महिलाओ, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।”
इस पर अन्‍य स्त्रियां कहती हैं :–

“जंगल में घास का गट्ठर उठाते समय जिस तरह कूल्‍हे आगे करते हैं, उसी तरह तुम अपनी योनि आगे उठाओ और उसका मध्‍य भाग बढ़ाओ।”
पटरानी यह सब करती है, तब घोड़ा सो जाता है। फिर रानी अन्‍य स्त्रियों से पुन: कहती है :–

“नारियो, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता, इसलिए मैं घोड़े के पास सोती हूं।”
इस पर एक स्‍त्री यह टिप्‍पणी करती है :–

“हिरनी रोज ही जंगल की घास छोड़कर खेत की घास चुराकर खाती है, परंतु उससे उसका पेट भरता नहीं लगता। शूद्र स्‍त्री वैश्‍य के साथ रमण होती है परंतु उस प्रेम के खेल में उसको संतोष नहीं होता।”
इस टिप्‍पणी पर रानी उत्‍तर देती है कि :–

“घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है कि अन्‍य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।”
इस पर दूसरी स्‍त्री कहती है :–

“तुम्‍हारी यह योनि किसी चिड़ि‍या के समान धीरे-धीरे हिल रही है, उसमें वीर्य पड़ा है और यह गुलगुल की आवाज कर रही है, फिर शिकायत करने की कहां जगह है? “
इस टिप्‍पणी का भी रानी उत्‍तर देती है :–

“शिकायत न करूं तो क्‍या करूं? मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूं।”
इस पर एक तीसरी कहती है :–

“तूं यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी मां को तो यह भी नहीं मिला। तेरी मां और तेरा बाप पेड़ पर चढ़ते थे और फिर तेरे बाप से योनि छिलने के कारण तेरी मां योनि में अपने हाथ की मुट्ठी ही ठूंसती थी। इससे तो घोड़ा अच्‍छा है या नहीं?”

उपरोक्‍त पाठ पर लेखक विश्‍वनाथ काशीनाथ राजवाडे की टिप्‍पणी :-
‘कृष्‍ण यजुसंहिता’ तथा शुक्‍ल युजुर्संहिता में वर्णित यह पाठ कुल मिलाकर एक नाटक और नकल है। यह नकल क्षुद्र, अधम तथा वीभत्‍स है, यह बात अश्‍वमेघ करने वाले राजा लोग और ऋत्विज जानते थे। दधिक्राव्‍णो अकारिषं मंत्र में वे यह स्‍पष्‍ट रूप से स्‍वीकार करते हैं, उन्‍होंने जो नाटक किया वह वीभत्‍स था। परंतु यह वीभत्‍स व्‍यवहार पूर्व परंपरा के अनुसार करना आवश्‍यक होने के कारण उनका यह पक्‍का विश्‍वास था कि यज्ञ पुरुष अपना कुछ अच्‍छा ही करेगा, बुरा नहीं। वीभत्‍स भाषण करने से यज्ञ याजक का जो कुछ भी कल्‍याण करता होगा, वह करता रहे, किंतु समाजशास्त्रियों का तो इस वीभत्‍स नाटक से एक फायदा निश्चित रूप से होता है। उन्‍हें वैदिक ऋषियों के वन्‍य पूर्वजों के रीति-रिवाज का ज्ञान होता है। और ये वीभत्‍स भाषण लिखकर रखने के लिए संहिताकारों के वे बहुत ऋणी हैं। यज्ञभूमि पर मैथुन से संबंधित वीभत्‍स नाटक वैदिक ब्राह्मण, क्षत्रिय पूर्वजों के समय से चलती आयी परंपरा के रूप में करते थे, नित्‍य व्‍यवहार के परिपाठ के रूप में नहीं। वेदकाल में राजा और ब्राह्मण सभ्‍य और शिष्‍ट थे, वे असभ्‍य भाषा का प्रयोग करने से डरते थे। परंतु यज्ञ कार्य में धार्मिक परंपरा के रूप में वीभत्‍स शब्‍द कहना, वीभत्‍स हाव-भाव और बर्ताव करना उन्‍हें श्रेयस्‍कर तथा हितप्रद प्रतीत होता था। परंपरा के रूप में समाज में इस प्रकार की प्रथाएं अवशेषस्‍वरूप रहती हैं और बर्दाश्‍त की जाती हैं, इसका यह उदाहरण है। उदाहरण के लिए यह बताया जा सकता है कि विवाह के समय दूल्‍हे के बदन पर पदत्राण फेंकने की कई यूरोपीय लोगों में प्रचलित प्रथा तथा होली के दिन अश्‍लील शब्‍द बोलने की ब्राह्मणादि हिंदुओं की रूढ़ि‍ अथवा पास-पास के दो गांवों की लड़कियों द्वारा गांव की सीमा पर जाकर एक दूसरी के बाप-दादाओं और मां-बहनों को गाली-गलौज करने की गांववालों की प्रथा – ये सब प्रथाएं… परंपरा के रूप में चलती आयी हैं, और समाज उन्‍हें बर्दाश्‍त करता है !

…अस्‍तु।

मनु।


मनुस्मृति का वास्तविक रचनाकार सुमति भार्गव है।
मनुस्मृति को ईश्वरीय कृति कहा जाता है, यह कहा जाता है कि इसे स्वयंभू (अर्थात ब्रम्हा) नें मनु को सुनाया था और बाद में मनु नें इसे मनुष्यों को बताया,यह दावा स्वयं मनुस्मृति में किया गया है। प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु की आदरसूचक संज्ञा थी, इस संहिता को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को ही इसका रचयिता कह दिया गया, 

भृगु की इस कृति का वास्तविक नाम मनु की धर्म संहिता है, भृगु का नाम इस संहिता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जोड़ दिया गया है, इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है,लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था, लगभग चौथी शताब्दी में नारदस्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था, नारद के अनुसार सुमति भार्गव नाम के एक व्यक्ति था, जिसने मनुसंहिता की रचना की, सुमति भार्गव कोई काल्पनिक नाम नहीं है, बल्कि यह कोई एक ऐतिहासिक व्यक्ति रहा होगा, इसका कारण यह है कि मनुस्मृति के महान टीकाकार मेघातिथे का यह मत था कि मनु निश्चित ही कोई व्यक्ति था, इस प्रकार मनु नाम दरअसल सुमति भार्गव का एक छद्म नाम था और वह ही इसका इसका वास्तविक रचयिता था,इसके अलावा न तो कोई ब्रम्हा था और न ही कोई मनु था।

:- डा.बी.आर.अम्बेडकर- बाबासाहब अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्गमय- खण्ड- 7- पृष्ठ -150-151, बाबासाहब अम्बेडकर के विचार-पृष्ठ- 368.

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9 .225 जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं . राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे.
9 .226 राजा के साम्राज्य में रहने वाले छद्मवेश में ये डाकू अपने कुकृत्यों से संघात जगत को अनवरत हानि पहुंचाते हैं. 12 .95 वे सभी परम्पराएं और वे सभी दर्शन की हेय पद्धतियां ,जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं.
12 .96 वे सभी सिद्धान्त जो वेद से विमुख हैं ,उत्पन्न होते और शीघ्र ही मिट जाते हैं ,वे व्यर्थ हैं और झूठे हैं क्योंकि वे नवीन हैं अर्थात् इस समय के रचे हुए हैं.

मनु के शब्दों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलंबी हैं और वेदों से भिन्न आधुनिक युग का दर्शन जिसे निस्सार कहा गया है , बौद्ध धर्म है। मनुस्मृति के एक अन्य टीकाकार कुल्लुक भट्ट स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनु के इन श्लकों में विधर्मियों से तात्पर्य बौद्ध धर्मावलंबियों और बौद्ध धर्म से है।

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इसी प्रकार इस देश को गुलाम रखने में ब्राह्मण ग्रंथों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उदाहरण के लिए- ऐतरेय ब्राह्मण (3/24/27) - वही नारी उत्तम है जो पुत्र को जन्म दे। (35/5/2/47) पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे। आपस्तब (1/10/51/52) बोधयान धर्म सूत्र (2/4/6) शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) जो नारी अपुत्रा है उसे त्याग देना चाहिए। तैत्तिरीय संहिता (6/6/4/3) पत्नी आजादी की हकदार नहीं है। शतपथ ब्राह्मण (9/6) केवल सुन्दर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी है। बृहदारण्यक उपनिषद् (6/4/7) यदि पत्नी सम्भोग के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीट कर वश में करो। मैत्रायणी संहिता (3/8/3) नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए। अर्थात् नारी और शूद्र कुत्ते के समान हैं। (1/10/11) नारी तो एक पात्र (बरतन) समान है। महाभारत (12/40/1) नारी से बढ़कर अशुभ कुछ नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए। (6/33/32) पिछले जन्मों के पाप से नारी का जन्म होता है । मनुस्मृति (100) पृथ्वी पर जो भी कुछ है वह ब्राह्मण का है। मनुस्मृति (101) दूसरे लोग ब्राह्मणों की दया के कारण सब पदार्थों का भोग करते हैं। मनुस्मृति (11-11-127) मनु ने ब्राह्मण को संपत्ति प्राप्त करने के लिए विशेष अधिकार दिया है। वह तीनों वर्णों से बलपूर्वक धन छीन सकता है अथवा चोरी कर सकता है। मनुस्मृति (4/165 - 4/166) जान बूझकर क्रोध से जो ब्राह्मण को तिनके से भी मारता है वह इक्कीस जन्मों तक बिल्ली योनि में पैदा होता है। मनुस्मृति (5/35) जो मांस नहीं खाएगा वह इक्कीस बार पशु योनि में पैदा होगा । मनुस्मृति (64 श्लोक) अछूत जातियों के छूने पर स्नान करना चाहिए। गौतम धर्म सूत्र (2-3-4) यदि शूद्र किसी वेद को पढ़ते सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ शीशा या लाख डाल देनी चाहिए। मनुस्मृति (8/21-22) ब्राह्मण चाहे अयोग्य हो उसे न्यायाधीश बनाया जाए नहीं तो राज मुसीबत में फंस जाएगा। मनुस्मृति (8/267) यदि कोई ब्राह्मण को दुर्वचन कहेगा तो वह मृत्युदण्ड का अधिकारी हैं। मनुस्मृति (8/270) यदि कोई ब्राह्मण पर आक्षेप करे तो उसकी जीभ काट कर दण्ड दें। मनुस्मृति (5/157) विधवा का विवाह करना घोर पाप है। विष्णु स्मृति में स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है तो ‘शंख स्मृति’ में दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है। ‘देवल स्मृति’ में किसी को भी बाहर देश जाने की मनाही है। ‘बृहदहरित स्मृति’ में बौद्ध भिक्षु तथा मुण्डे हुए सिर वालों को देखने की मनाही है। ‘गरुड़ पुराण’ पूरे का पूरा अंधविश्वास का पुलिंदा है जिसमें ब्राह्मण को गाय दान करने तथा उसके हाथ मृतकों का गंगा में पिण्डदान करने के लिए कहा गया है।  

 (पुस्तक - हिस्ट्री एण्ड स्टडी आफ दी जाट्स)


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मनु का दंड विधान वर्णवाद पर आधारित।

मनु ने न केवल बहुजनों को शिक्षा और सम्पत्ति के अधिकार से वंचित किया बल्कि उनके लिये कठोर दंड विधान भी बनाया,मनु का दंड विधान जाति पर आधारित था,एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य तथा शूद्र के लिये अलग -अलग दंड का प्रावधान था, ब्राह्मण को मृत्युदंड से पूर्णतया मुक्त रखा गया,भले ही वह कईयों की हत्या कर दे, मनु के अनुसार कोई भी राजा किसी भी ब्राह्मण का वध कभी नहीं करेगा, चाहे उसने कितने ही भयंकर अपराध किए हो ( मनु . 8 /35 ), इस पृथ्वी पर ब्राह्मण वध के समान कोई दूसरा पाप नहीं है , अत : राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी कभी ना लाये ( मनु - 8/581 ), राजा आर्थिक दण्ड की राशि ब्राह्मण को दे ( मनु - 8/336 ), कोई शूद्र ब्राह्मणी स्त्री के साथ व्यभिचार करे तो उसका लिंग कटवाकर राजा उसकी सारी सम्पत्ति ले ले , वैश्य को इसी अपराध के लिए एक वर्ष की कारावास और सारी संपत्ति से बदेखल कर दंड दे, परन्तु इसी अपराध के लिए क्षत्रिय और ब्राह्मण को सिर्फ 1 हजार पण का आर्थिक दंड दे कर छोड़ दे - ( मनु - 8/ 374 / 383 ) ब्राह्मण की संपत्ति राजा कभी न ले ( मनु 9/189 ), शूद्र ऊँचे वर्ण की आजीविका कभी न अपनावे , ऐसा करने पर राजा उसकी संपत्ति ब्राम्हण को दान कर उसे देश से निष्कासित कर दे ( मन - 1 /96 ), अगर कोई शूद्र अहंकारवश ब्राह्मण को उपदेश दे तो राजा उसके मुंह और कान में खौलता हुआ तेल डलवाये ( मनु - 8 /272 ), शूद्र यदि ब्राह्मण की निन्दा करे , कठोर वचन कहे तो उसकी जिव्हा काट कर फेंक देनी चाहिए क्योंकि वह जन्म से ही नीच है।
                
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सुमति भार्गव ने इस संहिता की रचना ईसा पूर्व 170 और ईसा पूर्व 150 के मध्य में की और इसका नाम जान -बूझकर मनुस्मृति रखा।। वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रंथ भी विद्यमान थे, इनमें से एक ग्रंथ मानव अर्थशास्त्र, मानव राजशास्त्र अथवा मानव राजधर्म शास्त्र के नाम से बताया जाता था , एक अन्य पुस्तक मानव - गृह्य - सूत्र के नाम से जानी जाती थी, 

9.225 . जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं .... राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दें.
9.226 . राजा के साम्राज्य में रहने वाले छद्मवेश में ये डाकू अपने कुकृत्यों से संभ्रात जगत को अनवरत हानि पहुंचाते हैं,
5.89-जल से तर्पण उन लोगों ( आत्माओं ) को अर्पित नहीं किया जाएगा जो ( निर्धारित अनुष्ठानों की अवहेलना करते हैं और जिनके लिए यह कहा जाता है कि ) उनका जन्म व्यर्थ ही हुआ है, ऐसे लोगों का भी तर्पण नहीं किया जाएगा जो जातियों के अवैध समागम से उत्पन्न हुए हैं, उन लोगों का भी तर्पण नहीं किया जाएगा ,जो संन्यासी ( विधर्मी वर्गों के लोग ) हैं और उन लोगों का भी तर्पण नहीं किया जाएगा जिन्होंने आत्महत्या की है,
5.90 . विधर्मी पंथ में सम्मिलित हो गई महिलाओं की आत्माओं का जल-तर्पण नहीं किया जाएगा.
4.30 . वह ( गृहस्थ ) वचन से भी विधर्मी तार्किक ( जो वेद के विरुद्ध तर्क करे )को सम्मान न दे. 
12.95 -वे सभी परंपराएं और वे सभी दर्शन हेय हैं जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद उनका कोई फल नहीं मिलता क्योंकि उनके विषय में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं.
12.96 . वे सभी ( सिद्धांत ) जो ( वेद ) से विमुख हैं ,उत्पन्न होते हैं और ( शीघ्र ही ) मिट जाते हैं,वे व्यर्थ और झूठे हैं क्योंकि वे आधुनिक समय के रचे हुए हैं.
 
मनु के शब्दों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलंबी है और वेदों से भिन्न आधुनिक युग का दर्शन जिसे निस्सार कहा गया है , वह बुद्ध -धम्म है, मनुस्मृति के एक अन्य टीकाकार कुल्लुक भट्ट स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनु के इन श्लोकों में विधर्मियों से तात्पर्य बौद्ध धर्मावलंबियों और बुद्ध - धम्म से है।

1.93 . ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण ,ज्येष्ठ होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही संपूर्ण सृष्टि का स्वामी है.
1.96 . समस्त सृष्टि में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ हैं,प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ हैं ,बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं.
1.100 . पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह सब ब्राह्मणों का है अर्थात् ब्राह्मण अच्छे कुल में जन्म लेने के कारण इन सभी वस्तुओं का स्वामी है.
1.101 . ब्राह्मण अपना ही खाता है ,अपना ही पहनता है ,अपना ही दान करता है तथा दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की कृपा से ही इन सबका भोग करते हैं. 
10.3 . जाति की विशिष्टता से , उत्पत्ति -स्थान की श्रेष्ठता से , अध्ययन एवं व्याख्यान आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत -संस्कार आदि की श्रेष्ठता से ब्राह्मण ही सब वर्गों का स्वामी है .
11.35 . ब्राह्मण के बारे में यह योषित है कि वह विश्व का सर्जक ,दंडदाता और अध्यापक है  इसलिए वह सभी सृजित मानवों का उपकारक है ,कोई भी व्यक्ति उसे अहितकारी नहीं कह सकता और न उसके विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग कर सकता है,मनु ने ब्राह्मणों को असंतुष्ट करने के विरोध में राजा को यह चेतावनी दी है.
9.313 . ( राजा ) को घोरतम विपत्ति में भी ब्राह्मणों को क्रुद्ध होने के लिए उत्तेजित नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण क्रोधित होने पर उस राजा को ,उसकी सेना ,हाथियों ,घोड़ों ,और वाहनों को नष्ट कर सकते हैं,मनु ने इससे आगे कहा है -
11.31 . नियमों के ज्ञाता ब्राह्मण को किसी दुखदायी आघात की स्थिति में भी राजा से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अपनी शक्ति द्वारा ही उस व्यक्ति को दंड दे सकता है. 
11.32 . ब्राह्मण की व्यक्तिगत शक्ति केवल उसी पर निर्भर करती है,वह उस राजकीय शक्ति से प्रबल होती है ,जो दूसरे व्यक्तियों पर निर्भर है, इस प्रकार ब्राह्मण अपनी शक्ति से ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।

:-प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति- 158-159-160-161-162.

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मनुवाद का अमानवीय काला कलंक ...

अध्याय-१

[१] पुत्री, पत्नी, माता या कन्या, युवा, व्रुद्धा किसी भी स्वरुप में नारी स्वतंत्र नही होनी चाहिए। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-२ से ६ तक)
[२] पति पत्नी को छोड सकता हैं, सुद (गिरवी) पर रख सकता हैं, बेच सकता हैं, लेकिन स्त्री को इस प्रकार के अधिकार नही हैं। किसी भी स्थिती में, विवाह के बाद, पत्नी सदैव पत्नी ही रहती हैं। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-४५)
[३] संपति और मिल्कत के अधिकार और दावो के लिए, शूद्र की स्त्रिया भी 'दास' हैं, स्त्री को संपति रखने का अधिकार नही हैं, स्त्री की संपति का मालिक उसका पति, पूत्र या पिता हैं। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-४१६)
[४] ढोर, गंवार, शूद्र और नारी, ये सब ताडन के अधिकारी हैं, यानी नारी को ढोर की तरह मार सकते हैं। तुलसीदास पर भी इसका प्रभाव दिखने को मिलता हैं, वह लिखते हैं। 'ढोर,गवार और नारी, ताडन के अधिकारी' (मनुस्मुर्तिःअध्याय-८ श्लोक-२९)
[५] असत्य जिस तरह अपवित्र हैं, उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं, यानी पढने का, पढाने का, वेद-मंत्र बोलने का या उपनयन का स्त्रियो को अधिकार नही हैं। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-२ श्लोक-६६ और अध्याय-९ श्लोक-१८)
[६] स्त्रियां नर्कगामीनी होने के कारण वह यग्यकार्य या दैनिक अग्निहोत्र भी नही कर सकती.(इसी लिए कहा जाता है-'नारी नर्क का द्वार') (मनुस्मुर्तिःअध्याय-११ श्लोक-३६ और ३७)
[७] यग्यकार्य करने वाली या वेद मंत्र बोलने वाली स्त्रियो से किसी ब्राह्मण भी ने भोजन नही लेना चाहिए, स्त्रियो ने किए हुए सभी यग्य कार्य अशुभ होने से देवो को स्वीकार्य नही हैं। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-४ श्लोक-२०५ और २०६)
[८] मनुस्मुर्ति के मुताबिक तो, स्त्री पुरुष को मोहित करने वाली। (अध्याय-२ श्लोक-२१४)
[९] स्त्री पुरुष को दास बनाकर पदभ्रष्ट करने वाली हैं। (अध्याय-२ श्लोक-२१४)
[१०] स्त्री एकांत का दुरुपयोग करने वाली। (अध्याय-२ श्लोक-२१५)
[११] स्त्री संभोग के लिए उमर या कुरुपताको नही देखती। (अध्याय-९ श्लोक-११४)
[१२] स्त्री चंचल और ह्रदयहीन,पति की ओर निष्ठारहित होती हैं। (अध्याय-२ श्लोक-११५)
[१३] स्त्री केवल शैया, आभुषण और वस्त्रो को ही प्रेम करने वाली, वासनायुक्त, बेईमान, इर्षाखोर, दुराचारी हैं। (अध्याय-९ श्लोक-१७)
[१४] सुखी संसार के लिए स्त्रीओ को कैसे रहना चाहिए ? इस प्रश्न के उतर में मनु कहते हैं.

- स्त्रीओ को जीवन भर पति की आग्या का पालन करना चाहिए। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-५ श्लोक-११५)

- पति सदाचारहीन हो, अन्य स्त्रीओ में आसक्त हो, दुर्गुणो से भरा हुआ हो, नंपुसंक हो, जैसा भी हो फ़िर भी स्त्री को पतिव्रता बनकर उसे देव की तरह पूजना चाहिए। (मनुस्मुर्तिःअध्याय-५ श्लोक-१५४)


अध्याय-२

[१] वर्णानुसार करने के कार्य :
- महा तेजस्वी ब्रह्मा ने सृष्टी की रचना के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भिन्न-भिन्न कर्म करने को तय किया हैं।

- पढ्ना, पढाना, यज्ञ करना-कराना, दान लेना यह सब ब्राह्मण को कर्म करना हैं। (अध्यायः१:श्लोक:८७)

- प्रजा रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, पढ्ना यह सब क्षत्रिय को करने के कर्म हैं। (अध्यायः१:श्लोक:८९)

- पशु-पालन, दान देना, यज्ञ करना, पढ्ना, सूद (ब्याज) लेना यह वैश्य को करने का कर्म हैं। 
(अध्यायः१:श्लोक:९०)

- द्वेष-भावना रहित, आनंदित होकर उपर्युक्त तीनो-वर्गो की नि:स्वार्थ सेवा करना, यह शूद्र का कर्म हैं। 
(अध्यायः१:श्लोक:९१)

[२] प्रत्येक वर्ण की व्यक्तिओ के नाम कैसे हो ? :
- ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक - उदा. शर्मा या शंकर
- क्षत्रिय का नाम शक्ति सूचक - उदा. सिंह
- वैश्य का नाम धनवाचक पुष्टियुक्त - उदा. शाह
- शूद्र का नाम निंदित या दास शब्द युक्त - उदा. मणिदास,देवीदास। (अध्यायः२:श्लोक:३१-३२)

[३] आचमन के लिए लेनेवाला जल :
- ब्राह्मण को ह्रदय तक पहुचे उतना।
- क्षत्रिय को कंठ तक पहुचे उतना।
- वैश्य को मुहं में फ़ैले उतना।
- शूद्र को होठ भीग जाये उतना, आचमन लेना चाहिए। 
(अध्यायः२:श्लोक:६२)

[४] व्यक्ति सामने मिले तो क्या पूछे ? :
- ब्राह्मण को कुशल विषयक पूछे।
- क्षत्रिय को स्वाश्थ्य विषयक पूछे।
- वैश्य को क्षेम विषयक पूछे
- शूद्र को आरोग्य विषयक पूछे। 
(अध्यायः२:श्लोक:१२७)

[५] वर्ण की श्रेष्ठा का अंकन :
- ब्राह्मण को विद्या से।
- क्षत्रिय को बल से।
- वैश्य को धन से।
- शूद्र को जन्म से ही श्रेष्ठ मानना यानी वह जन्म से ही शूद्र हैं।
 (अध्यायः२:श्लोक:१५५)

[६] विवाह के लिए कन्या का चयन :
- ब्राह्मण सभी चार वर्ण की कन्याये पंसद कर सकता हैं।
- क्षत्रिय - ब्राह्मण कन्या को छोडकर सभी तीनो वर्ण की कन्याये पंसद कर सकता हैं।
- वैश्य - वैश्य की और शूद्र की ऎसे दो वर्ण की कन्याये पंसद कर सकता हैं।
- शूद्र को शूद्र वर्ण की ही कन्याये विवाह के लिए पंसद कर सकता हैं यानी शूद्र को ही वर्ण से बाहर अन्य वर्ण की कन्या से विवाह नही कर सकता। (अध्यायः३:श्लोक:१३)

[७] अतिथि विषयक :
- ब्राह्मण के घर केवल ब्राह्मण ही अतिथि गिना जाता हैं और वर्ण की व्यक्ति नही
- क्षत्रिय के घर ब्राह्मण और क्षत्रिय ही ऎसे दो ही अतिथि गीने जाते थे।
- वैश्य के घर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनो द्विज अतिथि हो सकते हैं
- शूद्र के घर केवल शूद्र ही अतिथि कहेलवाता हैं और कोइ वर्ण का आ नही सकता। 
(अध्यायः३:श्लोक:११०)

[८] पके हुए अन्न का स्वरुप :
- ब्राह्मण के घर का अन्न अम्रुतमय
- क्षत्रिय के घर का अन्न पय (दुग्ध) रुप।
- वैश्य के घर का अन्न जो है यानी अन्नरुप में।
- शूद्र के घर का अन्न रक्तस्वरुप हैं यानी वह खाने योग्य ही नही हैं।
(अध्यायः४:श्लोक:१४)

[९] शव को कौन से द्वार से ले जाए ? :
- ब्राह्मण के शव को नगर के पूर्व द्वार से ले जाए।
- क्षत्रिय के शव को नगर के उतर द्वार से ले जाए।
- वैश्य के शव को पश्र्चिम द्वार से ले जाए।
- शूद्र के शव को दक्षिण द्वार से ले जाए।
 (अध्यायः५:श्लोक:९२)

[१०] किस के सौगंध लेने चाहिए ? :
- ब्राह्मण को सत्य के।
- क्षत्रिय वाहन के।
- वैश्य को गाय, व्यापार या सुवर्ण के।
- शूद्र को अपने पापो के सोगन्ध दिलवाने चाहिए।
 (अध्यायः८:श्लोक:११३)

[११] महिलाओ के साथ गैरकानूनी संभोग करने हेतू :
- ब्राह्मण अगर अवैधिक (गैरकानूनी) संभोग करे तो सिर पे मुंडन करे।
- क्षत्रिय अगर अवैधिक (गैरकानूनी) संभोग करे तो १००० भी दंड करे।
- वैश्य अगर अवैधिक (गैरकानूनी) संभोग करे तो उसकी सभी संपति को छीन ली जाये और १ साल के लिए कैद और बाद में देश निष्कासित।
- शूद्र अगर अवैधिक (गैरकानूनी) संभोग करे तो उसकी सभी संपति को छीन ली जाये, उसका लिंग काट लिआ जाये।
- शूद्र अगर द्विज-जाती के साथ अवैधिक (गैरकानूनी) संभोग करे तो उसका एक अंग काटके उसकी हत्या कर दे। 
(अध्यायः८:श्लोक:३७४,३७५,३७९)

[१२] हत्या के अपराध में कौन सी कार्यवाही हो ? :
- ब्राह्मण की हत्या यानी ब्रह्महत्या महापाप (ब्रह्महत्या करने वालो को उसके पाप से कभी मुक्ति नही मिलती)
- क्षत्रिय की हत्या करने से ब्रह्महत्या का चौथे हिस्से का पाप लगता हैं।
- वैश्य की हत्या करने से ब्रह्महत्या का आठ्वे हिस्से का पाप लगता हैं।
- शूद्र की हत्या करने से ब्रह्महत्या का सोलह्वे हिस्से का पाप लगता हैं यानी शूद्र की जिन्दगी बहुत सस्ती हैं।
 (अध्यायः११:श्लोक:१२)...



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#विरोधाभासी_मनु

मनुस्मृति कितनी पुरानी पुस्तक है यह तो मै शायद नही बता सकता, पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि यह ग्रंथ रामायण और महाभारत से प्राचीन है!

मनुस्मृति मे कहीं भी राम और कृष्ण का कोई उल्लेख नही है, परन्तु रामायण के किष्किंधाकाण्ड मे राम ने स्वयं मनुस्मृति की प्रशंसा की है, तो महाभारत के शान्तिपर्व और अनुशासन पर्व मे भीष्म पितामह ने इस ग्रंथ का गुणगान किया है!

मनुस्मृति निश्चित ही किसी काल मे सनातन धर्म की सबसे मान्य पुस्तक थी, लेकिन इस किताब मे मनु ने कई श्लोक ऐसे लिखे हैं, जो उन्ही के अन्य श्लोकों का ठीक उलट है!

आइऐ, कुछ ऐसे ही श्लोकों पर नजर डालते हैं-
मनुस्मृति-3/56 मे मनु ने नारियों के सम्मान मे यह बड़ी बात कही है-

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।"
अर्थात- जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है, और जहाँ नारियाँ कष्ट पाती है, वहाँ समृद्धि नही होती!

यहाँ तो मनु ने बड़ी उत्तम बात लिखी, पर नौवां अध्याय शुरू होते ही मनु कहते हैं कि नारियों को स्वतंत्रता मत दो, नारियां कामुक होती है!

यही नही मनु ने अध्याय-8/371 मे लिखा है-
"भर्तारं लङ्घयेद्या स्त्री ज्ञाति गुणदर्पिता।
तां श्वाभिः खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंस्थिते।।"
अर्थात- अपनी सुन्दरता और बाप-दादा के धन पर यदि स्त्री घमण्ड करे तो उसे सबके सामने कुत्ते से नोचवा डालें।

जरा सोचो कि पहले नारियों को पूजने की बात करने वाले मनु अब कुत्ते से नोचवाने की सलाह दे रहे है!

मनु का दूसरा विरोधाभास यह है कि उन्होने अध्याय-9/104 मे कहा है कि-
"ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम् ।
भजेरन्पैतृकं रिक्थमनीशास्ते हि जीवतोः।।"
अर्थात- माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी भाई धन-सम्पत्ति को बराबर-बराबर बांट लें, माता-पिता के जीते जी उन्हे धन बांटने का कोई अधिकार नही। 

इस श्लोक मे मनु पैतृक सम्पत्ति मे सभी भाइयों को बराबर को अधिकार बता रहे हैं, पर इसका ठीक अगला ही श्लोक उन्होने  लिखा और मनु अध्याय-9/105 मे लिखते हैं-

"ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयान्पित्र्यं धनमशेषतः।
शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा।।"
अर्थात- भाइयों मे जो सबसे श्रेष्ठ हो, वो पिता की सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति को ग्रहण करे, शेष भाई उसे पितातुल्य मानकर उसके अधीन रहें! 

अब ये पागलपन देखो.... पहले तो उन्होने सम्पत्ति मे सभी भाइयों का बराबर अधिकार बताया, पर अगले ही श्लोक मे कहा कि सारी सम्पत्ति बड़े भाई की है!

आगे मनु  ने मनुस्मृति-8/123-124 मे लिखा है कि राजा केवल क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र को दण्ड दे, क्योंकि स्वायम्भायु मनु ने जो दण्ड विधान बताया है, वह केवल इन्ही तीन वर्णों के लिये है, ब्राह्मण के लिये नही।

लेकिन कुछ आगे बढ़ते ही मनु की अक्ल फिर ठिकाने आयी और इसी आठवें अध्याय के श्लोक-337/338 मे मनु लिखते हैं कि यदि शूद्र चोरी करे तो उससे आठ गुना, वैश्य करे तो सोलह गुना, क्षत्रिय करे तो बत्तीस गुना और ब्राह्मण करे तो उसे चौंसठ गुना या एक सौ अट्ठाइस गुना दण्ड दें!

मनु केवल इतने ही विरोधाभासी नही थे! मनु के अनुसार मांस नही खाना चाहिये, अतः मांस खाने से रोकने के लिये मनु ने लोगों को डराया है और मनुस्मृति-5/55 मे लिखा है-
"मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्व प्रवदन्ति मनीषिणः।।"
अर्थात- जो मनुष्य इस लोक मे जिसका मांस खाता है, परलोक मे वह उसका भी मांस खाता है, यही मांस का मांसत्व है।

लेकिन इसी अध्याय मे उन्होने मांस खाना अनिवार्य भी कहा है!
इसी अध्याय के श्लोक-5/35 मे मनु कहते हैं-
"नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः।
स प्रेत्य पशुतां याति संभावनेकविंशशतिम् ।।"
अर्थात- जो विधि नियुक्त होने पर भी मांस नही खाता, वह मरने के बाद इक्कीस जन्म तक पशु होता है!

सोचों! कि मनु कैसे आदमी थे, पहले कह रहे हैं कि मांस नही खाओगे तो पशुयोनि मे जाओगे, और बाद बता रहे हैं कि तुम जिसका मांस खाओगे, वो तुम्हारा भी मांस खायेगा!

मनु ने इतनी ही नही, और भी कई विरोधाभासी बातें कही हैं, जैसे-
मनु ने मनुस्मृति-10/65 मे लिखा है-
"शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।"
अर्थात- अपने कर्मो से ब्राह्मण शूद्र और शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है!

पर इसी अध्याय के श्लोक 10/73 मे मनु लिखते हैं कि ब्राह्मण और शूद्र कभी समान नही हो सकते, अर्थात यहाँ उन्होने वर्ण-परिवर्तन को नकार दिया है।

मनु के ऐसा लिखने के पीछे  क्या कारण हो सकते है-

क्या वो बड़े भुलक्कड़ थे, पीछे क्या लिखा है, उसे भूलकर आगे ठीक उसका विपरीत लिख देते थे!

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मनुस्‍मृति का सबसे ज्‍यादा आपत्तिजनक अध्याय

मनुस्‍मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अधयाय 10 के श्‍लोक संख्‍या 11 से 50 के बीच समस्‍त द्विज को छोड़कर समस्‍त हिन्‍दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। 

मनु के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।

अनुलोम संतान – उच्‍च वर्णीय पुरूष का निम्‍न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान

प्रतिलाेम संतान – उच्‍च वर्णीय महिला का निम्‍न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्‍पन्‍न संतान


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(भाग 1 )
 मनुस्मृति में  ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए नियम 

25 दिसंबर 1927 को डॉ अंबेडकर ने पहली बार मनुस्मृति में दहन का कार्यक्रम किया था।

 उनका कहना था कि भारतीय समाज में जो कानून चल रहा है। वह मनुस्मृति के आधार पर है। यह एक ब्राम्‍हण, पुरूष सत्‍तात्‍मक, भेदभाव वाला कानून है। इसे खत्म किया जाना चाहिए इसीलिए वे मनुस्मृति का दहन कर रहे हैं।

आईये  जाने आ‍खिर मनुस्‍मृति में ऐसा है क्‍या?

(1) नीच वर्ण का जो मनुष्य अपने से ऊँचे वर्ण के मनुष्य की वृत्ति को लोभवश ग्रहण कर जीविका – यापन करे तो राजा उसकी सब सम्पत्ति छीनकर उसे तत्काल निष्कासित कर दे।10/95-98

(2) ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है । इसके अतिरक्त वह शूद्र जो कुछ करता है , उसका कर्म निष्फल होता है।10/123-124

(3) शूद्र धन संचय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करें क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है। 10/129-130

(4) जिस देश का राजा शूद्र अर्थात पिछड़े वर्ग का हो , उस देश में ब्राह्मण निवास न करें क्योंकि शूद्रों को राजा बनने का अधिकार नही है। 4/61-62

(5) राजा प्रातःकाल उठकर तीनों वेदों के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मणों की सेवा करें और उनके कहने के अनुसार कार्य करें। 7/37-38

(6) जिस राजा के यहां शूद्र न्यायाधीश होता है उस राजा का देश कीचड़ में धँसी हुई गाय की भांति दुःख पाता है। 8/22-23

(7) ब्राह्मण की सम्पत्ति राजा द्वारा कभी भी नही ली जानी चाहिए, यह एक निश्चित नियम है, मर्यादा है, लेकिन अन्य जाति के व्यक्तियों की सम्पत्ति उनके उत्तराधिकारियों के न रहने पर राजा ले सकता है। 9/189-190

(8) यदि शूद्र तिरस्कार पूर्वक उनके नाम और वर्ण का उच्चारण करता है, जैसे वह यह कहे देवदत्त तू नीच ब्राह्मण है, तब दस अंगुल लम्बी लोहे की छड़ उसके मुख में कील दी जाए। 8/271-272

(9) यदि शूद्र गर्व से ब्राह्मण पर थूक दे, उसके ऊपर पेशाब कर दे तब उसके होठों को और लिंग को और अगर उसकी ओर अपान वायु निकाले तब उसकी गुदा को कटवा दे।  8/281-282

(10) यदि कोई शूद्र ब्राह्मण के विरुद्ध हाथ या लाठी उठाए, तब उसका हाथ कटवा दिया जाए और अगर शूद्र गुस्से में ब्राह्मण को लात से मारे, तब उसका पैर कटवा दिया जाए। 8/279-280

(11)इस पृथ्वी पर ब्राह्मण–वध के समान दूसरा कोई बड़ा पाप नही है। अतः राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी लाए। 8/381

(12) शूद्र यदि अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश करे तो उस शूद्र के मुँह और कान में राजा गर्म तेल डलवा दें। 8/271-272

(13) शूद्र को भोजन के लिए झूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फ़टे पुराने वस्त्र देना चाहिए ।10/125-126

(14) बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू, कौआ किसी एक की हिंसा का प्रायश्चित शूद्र की हत्या के प्रायश्चित के बराबर है अर्थात शूद्र की हत्या कुत्ता बिल्ली की हत्या के समान है। 11/131-132

(15) यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है तब उसकी जीभ काट देनी चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्मा के निम्नतम अंग से पैदा हुआ है।

(16) निम्न कुल में पैदा कोई भी व्यक्ति यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के व्यक्ति के साथ मारपीट करे और उसे क्षति पहुंचाए, तब उसका क्षति के अनुपात में अंग कटवा दिया जाए।

(17) ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक मात्र कर्म निश्चित किया है, वह है – गुणगान करते हुए ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना।

(18) शूद्र यदि ब्राह्मण के साथ एक आसन पर बैठे, तब राजा उसकी पीठ को तपाए गए लोहे से दगवा कर अपने राज्य से निष्कासित कर दे।

(19) राजा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले अनेक यज्ञ करें और धर्म के लिए ब्राह्मणों को स्त्री, गृह शय्या, वाहन आदि भोग साधक पदार्थ तथा धन दे।

(20) जान बूझकर क्रोध से यदि शूद्र ब्राह्मण को एक तिनके से भी मारता है, वह 21 जन्मों तक कुत्ते-बिल्ली आदि पाप श्रेणियों में जन्म लेता है।

(21) ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है।
शूद्र लोग बस्ती के बीच में मकान नही बना सकते। गांव या नगर के समीप किसी वृक्ष के नीचे अथवा श्मशान पहाड़ या उपवन के पास बसकर अपने कर्मों द्वारा जीविका चलावें ।

(22) ब्राह्मण को चाहिए कि वह शूद्र का धन बिना किसी संकोच के छीन ले क्योंकि शूद्र का उसका अपना कुछ नही है। उसका धन उसके मालिक ब्राह्मण को छीनने योग्य है।

(23) राजा वैश्यों और शूद्रों को अपना अपना कार्य करने के लिए बाध्य करने के बारे में सावधान रहें, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्य से विचलित हो जाते हैं तब वे इस संसार को अव्यवस्थित कर देते हैं ।

(24) शूद्रों का धन कुत्ता और गदहा ही है। मुर्दों से उतरे हुए इनके वस्त्र हैं। शूद्र टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करें। शूद्र महिलाएं लोहे के ही गहने पहने।

(25) यदि यज्ञ अपूर्ण रह जाये तो वैश्य की असमर्थता में शूद्र का धन यज्ञ करने के लिए छीन लेना चाहिए ।

(26) दूसरे ग्रामवासी पुरुष जो पतित, चाण्डाल, मूर्ख और धोबी आदि अंत्यवासी हो, उनके साथ द्विज न रहें। 

(27) लोहार, निषाद, नट, गायक के अतिरिक्त सुनार और शस्त्र बेचने वाले का अन्न वर्जित है।

(28) शूद्रों के साथ ब्राह्मण वेदाध्ययन के समय कोई सम्बन्ध नही रखें, चाहे उस पर विपत्ति ही क्यों न आ जाए।

(29) स्त्रियों का वेद से कोई सरोकार नही होता। यह शास्त्र द्वारा निश्चित है। अतः जो स्त्रियां वेदाध्ययन करती हैं, वे पापयुक्त हैं और असत्य के समान अपवित्र हैं, यह शाश्वत नियम है।

(30) अतिथि के रूप में वैश्य या शूद्र के आने पर ब्राह्मण उस पर दया प्रदर्शित करता हुआ अपने नौकरों के साथ भोज कराए।

(31) शूद्रों को बुद्धि नही देनी चाहिए। अर्थात उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नही है। शूद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश न करें।

(32) जिस प्रकार शास्त्र विधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही श्रेष्ठ देवता हैं , उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान दोनों ही रूपों में श्रेष्ठ देवता है।

(33) शूद्र की उपस्थिति में वेद पाठ नहीं करनी चाहिए।
ब्राह्मण का नाम शुभ और आदर सूचक, क्षत्रिय का नाम वीरता सूचक, वैश्य का नाम सम्पत्ति सूचक और शूद्र का नाम तिरस्कार सूचक हो।

(34) दस वर्ष के ब्राह्मण को 90 वर्ष का क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पिता समान समझ कर उसे प्रणाम करे।

(35) 
न शूद्रराज्ये निवसेन्नाधार्मिकजनावृते ।

न पाषण्डिगणाक्रान्ते नोपसृष्टेऽन्त्यजैर्नृभिः ॥

(मनुस्मृति, अध्याय 4, श्लोक 61)

अर्थ – (व्यक्ति को) शूद्र से शासित राज्य में, धर्म-कर्म से विरत जनसमूह के मध्य, पाखंडी लोगों से व्याप्त स्थान में, और अन्त्यजों के निवासस्थल में नहीं वास नहीं करना चाहिए।

(36)
न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्।

न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत्॥

(मनुस्मृति, अध्याय 4, श्लोक 80)

अर्थ – किसी प्रयोजन की सिद्धि को ध्यान में रखते हुए दिया जाने वाला उपदेश शूद्र को न दिया जाये। उसे जूठा यानी बचा हुआ भोजन न दे और न यज्ञकर्म से बचा हविष्य प्रदान करे। उसे न तो धार्मिक उपदेश दिया

मनु के इन कानूनों से अनुमान लगाया जा सकता है कि शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं पर किस प्रकार और कितने अमानवीय अत्याचार हुए हैं।

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जब मै धार्मिक पाखण्डों पर लेख लिखता हूँ तो कई धार्मिक मुझसे कहते हैं कि- "तुम नास्तिक हो, और अगर ईश्वर को नही मानते तो यह बताओ कि दुनिया मे पहले मुर्गी आयी, या पहले अण्डा आया"

वैसे तो विज्ञान इस मूर्खतापूर्ण सवाल का जवाब दे चुका है, पर मै धार्मिकों को धार्मिकस्तर का ही जवाब देता हूँ!

मनुस्मृति मे लिखा है कि ब्रह्मा का जन्म एक अण्डे से हुआ!
वर्षों तक ब्रह्माजी अण्डे मे रहे, फिर अण्डे को फोड़कर बाहर आये...
यह सब वैसा ही है, जैसे आज मुर्गी का चूजा अण्डे को निकलता है!

मनुस्मृति का यह श्लोक देखो-
"यत्तत्कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कथ्यते।।
तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् ।
स्वयमेवाऽऽत्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा।।"
                                        (मनुस्मृति-1/11-13)

अर्थात- सम्पूर्ण सृष्टि के कारण, अव्यक्त, नित्य, सत्-असत् स्वरूप से जो पुरुष उत्पन्न हुआ, उसे संसार 'ब्रह्मा' कहता है! अपने से वर्षो पर्यन्त उस अण्डे मे रहकर, ब्रह्मा ने स्वयं अपने ही ध्यान से उस अण्डे का दो खण्ड कर दिया।

अब जरा धार्मिक लोग मुझे यह बताऐं कि ब्रह्मा जिस अण्डे से पैदा हुये, उस अण्डे को किसने दिया?
शिव अथवा विष्णु ने...
क्योंकि लगभग तमाम पुराण यही कहते हैं कि ब्रह्मा से पहले सृष्टि मे केवल शिव और विष्णु ही थे! इसका जवाब जो धार्मिक महापुरुष देगा, वही मुझसे "पहले मुर्गी या पहले अण्डे" सवाल पूँछे।



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मनुस्मृति में कुछ हास्यास्पद नियम

बहुत से लोग केवल मनुस्मृति के बारे में जानते हैं कि इसमें स्त्री-विरोधी और शूद्र-विरोधी श्लोक हैं लेकिन जब आप 2685 श्लोकों की पूरी मनुस्मृति को देखते हैं तो आपको पता चलता है कि इसमें कई अजीब नियम भी हैं

बकरी और बकरी बांधने की रस्सी को पार नहीं करना चाहिए, पानी में अपना प्रतिबिंब नहीं देखना चाहिए।
(मनुस्मृति 4/38)

यदि आप मिट्टी, गाय, भगवान की मूर्ति, ब्राह्मण देखते हैं, तो आपको उनके दाहिनी ओर जाना चाहिए
(मनुस्मृति 4/39)

अपनी पत्नी के साथ खाना मत खाओ, उसे झिड़कते हुए.....
(मनुस्मृति 4/43)

एक ही कपड़े (सिर्फ धोती या पैंट) पर भोजन न करें, पूरी तरह से नंगा नहाएं, खड़े होकर पेशाब न करें, वायु अग्नि ब्राह्मण सुर्य गाई को देख के पेशाब न करें
(मनुस्मृति 4 / 45,46,47,48)

अपने सिर पर एक कपड़ा रखें और शांति से शौचालय में जाएं, दिन हो या शाम आपको दक्षिण की ओर स्थित शौचालय में जाना चाहिए, रात में आपको उत्तर की ओर स्थित शौचालय में जाना चाहिए, यदि अंधेरा अधिक है, तो वे किसी भी दिशा में बना सकते हैं। गाय ब्राह्मण, सूर्य........
(मनुस्मृति 4 / 49,50,51,52)

 घर पर अकेले न सोएं, मासिक धर्म वाली महिला से बात न करें
 (मनुस्मृति 4/57)

खाने से पहले अपने पैर धो लें, गीले पैरों के साथ भोजन करना जीवन को लम्बा खींचता है
 (मनुस्मृति 4/76)

अमावस्या पर पढ़ाने पर गुरु की मृत्यु होती है, चतुर्दशी पर पढ़ाने से शिष्य की मृत्यु होती है
(मनुस्मृति 4/114)

गुरु, राजा, ब्राह्मण (आचार्य), गाय की छाया पर कदम रखकर भगवान की छवि को पार नहीं किया जाना चाहिए
(मनुस्मृति 4/130)

तो यह है कि हम देख सकते हैं कि 21 वीं सदी में मनुस्मृति एक पुरानी कॉमेडी पुस्तक है

मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...