Thursday, 3 September 2020
गीता के गलत संदेश।
अन्तरवर्ण विवाह।
ब्राह्मणवाद ने प्रतिलोम विवाहों अर्थात् उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण के पुरुष के बीच विवाहों पर रोक लगा दी, वह वर्गों के बीच आपसी संबंध को समाप्त करने और उन्हें अलग - अलग करने और उनमें एक -दूसरे के प्रति समाज विरोधी भावना पैदा करने की दिशा में एक शक्तिशाली कदम था, लेकिन जहां एक ओर प्रतिलोम विवाहों द्वारा अंतःसम्बंधों का द्वार बंद कर दिया गया वहीं दूसरी ओर अनुलोम विवाह द्वारा अंतःसम्बंधों का द्वार खुला रखा गया, उसको बंद नहीं किया गया, जैसा कि सोपानी कृत असमानता विषयक खंड में उल्लेख किया गया है, ब्राह्मणवाद ने अनुलोम विवाह , अर्थात उच्च वर्ण के पुरुष और निम्न वर्ण की स्त्री के बीच विवाह जारी रखा, यूँ तो अनुलोम विवाह बहुत अच्छा नहीं कहा गया और यह सिर्फ एक ओर जाने का द्वार था , इसमें दूसरी ओर से नहीं आ सकते थे, फिर भी यह एक -दूसरे को मिलाने वाला द्वार था जिसके माध्यम से वर्गों को एक -दूसरे से बिलकुल अलग -थलग होने से रोकना संभव था,लेकिन ब्राह्मणवाद के घिनौने-प्रतिलोम विवाह का प्रभाव यह हुआ, कि उच्च वर्ण की माताओं के बच्चे निम्न वर्ण के कहलाएंगे जो उनके पिता का वर्ण होगा, अनुलोम विवाह पर इसका प्रभाव उलटा होगा, निम्न वर्ण की माताओं के बच्चे उच्च वर्ण के कहलाएंगे, जो उनके पिता का वर्ण होगा.
फलस्वरूप मनु ने प्रतिलोम विवाह को पूर्णतया रोक दिया और इस प्रकार निम्न वर्ण में उच्च वर्ण के आने पर कड़ाई से रोक लगा दी, यह चाहे कितना भी खेदजनक क्यों न हो परंतु जब तक अनुलोम विवाह और पितृ -सावर्ण्य के नियमों का पालन व्यवहार में होता रहा तब तक कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, इन दोनों ने मिलकर एक बहुत ही उपयोगी पद्धति का निर्माण किया, अनुलोम विवाह -पद्धति ने परस्पर संबंध को बनाए रखा और पितृ - सावर्ण्य नियम ने उच्च वर्गों की स्वयं को सुगठित रखने में मदद की, वे निम्न वर्गों में जा नहीं सकते थे लेकिन वे विभिन्न वर्गों की माताओं से जन्म लेते रहे, ब्राह्मणवाद विभिन्न वर्गों के बीच संबंध के इस द्वार को खुला रखने का इच्छुक नहीं था,यह उसे बंद कर देने पर तुला बैठा था,उसने इसे ऐसी रीति से किया जो प्रतिष्ठाजनक नहीं है,सीधा और सच्चा रास्ता अनुलोम विवाह को रोक देना था,लेकिन ब्राह्मणवाद ने ऐसा नहीं किया,उसने अनुलोम विवाह -पद्धति को जारी रखा,उसने बस यह किया कि शिशु की स्थिति का निर्णय करने वाले नियम को पूर्णतया बदल दिया, उसने पितृ -सावर्ण्य नियम के स्थान पर मातृ -सावर्ण्य नियम लागू कर दिया, जिससे शिशु की स्थिति उसकी मां की स्थिति के आधार पर निर्धारित की जाने लगी, इस परिवर्तन से विवाह पारस्परिक सामाजिक संपर्क का वह साधन नहीं रह गया जो वह मुख्य रूप से था, इससे उच्च वर्ण के पुरुष अपने बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से सिर्फ इसलिए मुक्त हो गए कि ये बच्चे निम्न वर्ण की मां से पैदा हुए थे, इसने अनुलोम विवाह को सिर्फ भोग, निम्न वर्णों को सताने और अपमानित करने और उच्च वर्णों को निम्न वर्ण की स्त्रियों के साथ कानूनी रूप में वेश्या कर्म करने का एक साधन बना दिया और व्यापक सामाजिक दृष्टि से इसने वर्गों को पूरी तरह अलग- थलग कर दिया, वर्गों में परस्पर यही अलगाव हिंदू समाज के लिए अभिशाप हो गया है,और अमानवीय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था लागू हो गयी,और इसे निचले स्तर तक लागू किया गया जिसके विध्वंसक परिणाम सामने आए ।
:-प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति - 212 -213
ब्राह्मण भोज, श्राद्ध
Tuesday, 1 September 2020
दस्यु।
हिन्दू धर्म की रिडल।
चंडिका तथा भैरवी के लिए पक्षियों की बलि,कछुओं की बलि,मगरमच्छों की बलि,मछलियों की,नौ प्रकार के जानवरों की बलि,भैंसों की,वृषभों की,बकरों की,जंगली सुवरों की,गैंडों की,बारहसिंघों की,ग्वाना पच्छी की,जंगली हिरनों की,शेरों की,चीतों की,और आदमियों की,तथा बलि चढाने वाले का अपना खून भी बलि के लिए योग्य है बलि देने से राजकुमारों को परमानंद स्वर्ग और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है.
मछली और कछुवे की बलि चढाने से देवी एक माह तक प्रसन्न रहती है,मगरमच्छ की बलि चढाने से तीन महीने,जंगली जानवरों की बलि से नौ महीने,जबकि जंगली वृषभ का रक्त देवी को एक वर्ष तक खुश रखता है ,बारहसिंघे और जंगली सुवर का बलिदान बारह वर्षों तक देवी को प्रष्न रखता है ,सरभस का रक्त देवी को पच्चीस वर्षों तक खुस रखता है और भैसे का रक्त सौ वर्षों तक देवी को खुश रखता है,लेकिन शेर और आदमी का बलिदान देवी को ऐसी प्रसन्नता प्रदान करता है जो एक हजार वर्ष तक चलती है,इन जानवरों का मांस भी इतने ही दिनों तक देवी को प्रसन्नता प्रदान करता है जितना कि उनका रक्त,बारहसिंघों का मांस देवी को पांच सौ वर्षों तक प्रसन्नचित बनाये रखता है रोहित मछली की बलि काली को तीन सौ वर्षों तक प्रसन्न बनाये रखती है. ऐसी साफ़ बकरी जो चौबीस घंटो में केवल दो बार पानी पीती हो और जो बकरियों में श्रेष्ठ हो उसकी बलि देवताओं को दी जाने वाली श्रेष्ठ बलि मानी जाती है.ऐसा पक्षी जिसका कंठ नीला और सिर लाल तथा टाँगे काली हो उसकी बलि विष्णु को विशेष प्रिय है.
विधिवत दी गई नर बलि से देवी एक हजार साल तक प्रसन्न रहती है और तीन आदमियों की एक साथ बलि देने से देवी इक लाख वर्ष तक प्रसन्न रहती है. पवित्र धर्म ग्रंथों के पाठ द्वारा पवित्र बनाये गए रक्त की बलि अमृत के समान है सिर की बलि देने से चंडिका विशेष प्रसन्न होती है इसलिए जब भी विद्वजन बलि चढ़ाएं तो सिर और रक्त की ही बलि दें और जब यज्ञ करें तो उनके मांस की आहुति दें.
तथाकथित हिन्दू धर्म में देवी देवताओं को खुश रखने के लिए पशु,पक्षियों और इंसानों की बलि पर विशेष बल दिया गया है.और बताया गया है कि जो बलि देने वाला है उसे इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि देवी को खराब रक्त और मांस न चढ़ाया जाय अन्यथा देवी नाराज हो सकती है. कच्ची पक्की शराब देवी को उतने ही समय के लिए खुश रखती है जितने समय के लिए बकरी का बलिदान.
चन्द्रहास या गायत्री द्वारा पशु का जो बध किया जाता है वह सर्वश्रेष्ठ विधि मानी जाती है चाक़ू या छुरे के साथ दी जाने वाली बलि मध्यम दर्जे की बलि और फावड़े जैसी किसी चीज से दी जानेवाली बलि निक्रस्टतम विधि मानी जाती है . तीर जैसे हथियार से की गई बलि देवता स्वीकार नहीं करते हैं ,दुर्गा और कामाख्या देवी को बलि चढ़ाते समय वैदिक मंत्रों का उच्चार करना ही चाहिए.
अश्वमेघ छोड़कर किसी भी अवसर पर घोड़े की बलि नहीं दी जानी चाहिए, इसी प्रकार गजमेघ को छोड़कर किसी भी अवसर पर हाथी की बलि नहीं दी जानी चाहिए,किसी ब्राम्हण को किसी शेर या चीते या अपने रक्त या शराब की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए,यदि ब्राम्हण कोई बलि चढ़ाता है तो उसे ब्राम्हह्त्या जैसा पाप लगता है ,इसी प्रकार किसी क्षत्रिय को किसी बारहसिंघे की बलि नही चढ़ानी चाहिए,और यदि किसी शेर चीते या आदमी की बलि चढ़ाना आवश्यक ही हो तो मक्खन आदि पदार्थों से उसके स्थानापन्न बना लेने चाहिए तब बलि देनी चाहिए.
किसी आदमी की बलि देने के लिए राजा की आज्ञा लेना जरूरी है ,किसी विशेष अवसर या खतरों के समय नरबलि केवल राजा या उसके मंत्री ही दे सकते हैं नरबलि देने से पूर्व उसे एक दिन पहले अभिमंत्रित कर तैयार कर लेना चाहिए.
नरबलि देने वाले व्यक्ति को मन्त्रों और रस्सियों से बांधकर उसका सिर काट देना चाहिए और फिर देवी को अर्पित कर देना चाहिए.उक्त विधि विधान के साथ जो यज्ञों का कर्ता धर्ता बलि चढ़ाता है उसकी अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है.
यही वह धर्म है जिसका कलि पुराण में खूब प्रचार प्रसार किया गया है. सदियों तक मनु के अनंतर अब भी यहाँ हिंसा तंत्रों की हिंसा नंगा नाच कर रही है जिसमे पशुओं की हिंसा ही नहीं नर बलि भी है। कलि पुराण के खूनी परिच्छेद में वर्णित हिंसा भारत में प्रचुर मात्रा में फैली हुई थी,जहाँ तक पशु हिंसा की बात है तो कलकत्ते का काली मंदिर किसी कसाई खाने में तब्दील हो चुका है क्योंकि काली माई को प्रसन्न करने के लिए सैकड़ों बकरियों की रोज बलि चढ़ाई जाती है जो किसी पुराण पर किसी कलंक से कम नहीं है हालांकि आज कालीमाई मंदिर में नरबलि नही होती है पर एक समय यहाँ बकरे बकरियों की तरह नरबलि भी दी जाती थी,वैसे पशुबलि और नरबलि अब भी भारत के हर कोने में बदस्तूर चालू है.यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि काली तो शिव की पत्नी है फिर शिव अहिंसक और काली हिंसक कैसे,यह बात विचारणीय है और वही बता सकते हैं जिन्होंने काली और शिव का निर्माण किया.
विष्णु पुराण के अनुसार ब्रम्हा ने खुद को स्वयंभू मनु माना था,जिसने अपने ही स्त्रीलिंग वाले शरीर को सतरूपा का भी नाम दिया था जिसे उसने अपनी ही पत्नी बनाया था,इसका मतलब तथाकथित ब्रम्हा उभयलिंगी था,या फिर ब्रम्हा ने अपनी ही बहन से विवाह किया था,अगर यह सत्य है तो कितने आश्चर्य की बात है, खैर, इस ब्रम्हा और सतरूपा से दो लड़के और दो लड़कियां पैदा हुए,जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा प्रसूति और अकुति थे प्रसूति उसने दक्ष को दे दी और अकुति को कुलपिता रूचि को दे दी,अकुति से यज्ञ और दक्षिणा दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए जो बाद में पति पत्नी बन गए (फिर वही भाई बहन की शादी) जिनके बाद में बारह बच्चे पैदा हुए,जो यम नाम के देवतागण हुए.
पहला मनु स्वयंभू था द्वितीय मनु देवतागण कहलाते थे,सप्तऋषि, ऊर्ज, स्तम्भ,प्रण, दत्तोली, रिसभ,निश्चर, अर्वरिवत,चैत्र, किम्पुरुष, और दूसरे और कई मनु के पुत्र हुए,इसके बाद चौथा ,पांचवां,छठा मनु चर्चित हुए. एकबार मनु एकाग्रचित विराजमान थे तब बड़े बड़े ऋषि मुनि उनके पास पहुंचे और चारों वर्णो के बारे में उनसे पूंछा,तब मनु ने उत्तर दिया कि यह विश्व अन्धकार की शक्ल में विराजमान था तब स्वयंभू मनु की नानाप्रकार के प्राणियों को जन्म देने की इच्छा हुई,तो उसने पहले पानी बनाया फिर उसमें बीज डाला, जो बाद में अंडे में बदल गया ,वह मनु स्वयं लोक के जनक के रूप में उस अंडे से पैदा हुआ,तदनंतर ऋषियों को जन्म दिया जो सृस्टि के स्वामी थे,जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरस,पुलस्त्य,पुलह,क्रतु,प्रचेतस,वशिष्ठ,भृगु और नारद.
: डा.बी.आर.अम्बेडकर, हिन्दू धर्म की रिडल्ज, पृष्ठ-83-84-85-86
रामायण का कहना है कि दक्ष की पुत्री और काश्यप की पत्नी मनु ने चारों वर्णो को जन्म दिया,जिसके अनुसार प्रजापति दक्ष के 60 पुत्रियां थीं उनमे से काश्यप ने आठ सुंदरियों से विवाह कर लिया जिनके नाम थे, अदिति, दिति,दनु,कलक, तम्र,क्रोधवशा,मनु तथा अनला. प्रसन्नचित काश्यप ने तब इन सुंदरियों से कहा कि तुम्हें मेरे जैसे ही पुत्रों को जन्म देना होगा,जिसे अदित ,दिति ,दनु और कलक ने स्वीकार किया,पर दूसरी अन्य सुंदरियाँ इसके लिए तैयार नहीं हुईं, अकेली अदिति ने आदित्यों,वशुओं,रुद्रों तथा दो आश्विनों सहित कुल मिलाकर 33 देवताओं को जन्म दिया,काश्यप की पत्नी मनु ने,ब्राम्हणों ,क्षत्रियों वैश्यों तथा शूद्रों को जन्म दिया ,ब्राम्हणों का जन्म मुंह से हुआ ,क्षत्रियों का छाती से,वैश्यों का जाँघों से तथा शूद्रों का पाँव से. यह वेदों का कथन है जबकि अनुला ने मधुर फलों से लदे हुए वृक्षों को जन्म दिया।
वेदों के अनुसार परस्पर लैंगिक संबंधों की किसी को भी पूरी छूट थी,इस प्रकार अगर कोई लड़का अपनी मां के साथ भी सम्भोग करना चाहता था तो उसे पूरी छूट थी, उदाहरणार्थ पूषण और उसकी मां, मनु और शतरूपा, मनु और श्रद्धा , अर्जुन और उर्वशी, तथा अर्जुन और उत्तरा के लैंगिक सम्बन्ध. अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का 16 साल की उम्र में ही उत्तरा के साथ विवाह हो गया था,उसी उत्तरा का लैंगिक सम्बन्ध अर्जुन से भी था,महाभारत के अनुसार अर्जुन का विवाह उत्तरा से भी हुआ था,इस तरह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु का विवाह उसकी मां के साथ हुआ था,इस जगह अर्जुन और उर्वशी का उदाहरण एकदम स्पस्ट है.
इंद्र अर्जुन का वास्तविक पिता था और उर्वसी इंद्र की चहेती थी,उर्वशी ने अर्जुन को बहुत सारी शिक्षाएं दी थी इसीलिए उन दोनों में प्रेम हो गया था .
हरिवंश पुराण के अनुसार तत्कालीन बहु पितृत्व की भी प्रथा खूब प्रचलित थी उदाहरणार्थ सोम दस पिताओं का पुत्र था,हर पिता प्रल्हेता कहलाता था सोम की मारिषा नाम की एक बेटी थी,सोम के दस पिताओं और खुद सोम ने मारिषा के साथ सम्भोग किया था,इससे साबित होता है कि पिता पुत्री माँ और बेटों में आपसी लैंगिक सम्बन्ध एक सामान्य बात थी,प्रजापति कथा के अनुसार सोम के पुत्र दक्ष प्रजापति के बारे मे कहा गया है कि उसने अपनी 27 कन्याएं अपने पिता सोम को संतानोत्पत्ति के लिए दी थी, हरिवंश पुराण में लिखा है कि दक्ष ने अपने ही पिता ब्रम्हा को अपनी ही कन्या विवाह करने के लिए दी थी,जिससे एक "नारद"नाम का पुत्र भी हुआ था,जो अत्यन्त प्रसिद्द हुआ,यही सब सपिण्ड पुरुषों की सपिण्ड स्त्रियों से सम्भोग की कथाएं हैं.
भारत में प्राचीन आर्य स्त्रियों की बिक्री होती थी,विवाह की आर्य पद्धति से लड़कियों की विक्री की जाती थी,पिता गो मिथुन देता था और कन्यादान लेता था मतलब गो मिथुन के लिए कोई भी लड़की बिकती थी,"गो मिथुन का मतलब था एक गाँव और एक बैल जोकि एक लड़की की योग्य कीमत समझी जाती थी".अपनी लड़कियों को उनके पिता तो बेंचते ही थे बल्कि अपनी पत्नियों को उनके पति भी बेंचते थे, हरिवंश पुराण अपने 79 वें अध्याय में कहता है कि जो पुरोहित संस्कार कराता है एक पुण्यक व्रत उनकी दक्षिणा होनी चाहिए, इसका कहना है कि ब्राम्हण स्त्रियों को उनके पतियों से खरीदा जाय,और ब्राम्हण पुरोहितों को दक्षिणा के तौर पर दान में दे दी जाय,जिससे स्पस्ट होता है कि ब्राम्हण अपनी पत्नियों को बेंचते थे.
इसी तरह प्राचीन आर्य अपनी स्त्रियों को सम्भोग के लिए किराए पर भी देते थे, महाभारत के अध्याय 103 से 183 तक माधवी का जीवन चरित्र दिया हुआ है,जिसके अनुसार माधवी राजा ययाति की लड़की थी,ययाति ने उसे किसी को दी जाने वाली दक्षिणा के तौर पर गालब नामक ऋषि को सौंप दिया था,जिसने माधवी को तीन राजाओं को किराए पर दिया था,लेकिन सिर्फ उतने समय के लिए जितने समय में वह मां बन सके,तीनो राजाओं की बारी हो चुकने के बाद गालब ने उसे अपने गुरु विश्वामित्र को सौंप दिया था,विश्वामित्र ने उसे अपने पास रखा और बाद में उसे गालब ऋषि को वापस सौंप दिया अंत में गालब ने उसे उसके पिता ययाति को सौंप दिया.
जैसा कि विदित हो प्राचीन आर्य जनों में बहुपितृत्व या बहुपत्नीत्व की प्रथा चालू थी,जहाँ स्वच्छन्द सम्भोग एक आम बात थी,जिसे नियोग कहा जाता था,नियोग आर्यों की एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके आधीन कोई भी विवाहित स्त्री किसी भी ऐसे आदमी को जो उसका पति नहीं संतानोत्पत्ति के निमित्ति नियोग करने के लिए कह सकती थी इस पद्धति का परिणाम यह हुआ कि सम्भोग को लेकर संपूर्ण स्वच्छन्दता ,क्योंकि यह अमर्यादित थी पहली बात तो यह कि स्त्री मन चाहे नियोग करा सकती थी संख्या के विषय में कोई नियम था ही नहीं,पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को चार नियोग की अनुमति दी थी,व्यूलिस्तव को सात नियोगों की अनुमति थी,और बलि के बारे में जानकारी है कि उसने सत्रह नियोग कराये थे,ग्यारह नियोग पहली पत्नी से और छह नियोग दूसरी पत्नी से, नियोग पति के जीवन काल में भी होता था जब पति संतानोत्पत्ति के अयोग्य न हुआ हो तब हो सकता है प्रस्ताव पत्नी की तरफ से ही हुआ हो,नियोग कर्ता का चुनाव उसी की मर्जी से होता हो उसे इस बात की पूरी स्वतंत्रता थी कि वह स्वयं तय करे कि उसे नियोग किसके साथ करना है,और कितनी बार करना है आदमी और औरत के साथ जो निषिद्ध सम्भोग हो सकता था उसे ही नियोग कहते थे,जो एक रात के लिए हो सकता था और बारह वर्षों के लिए भी चालू रह सकता था,जिसमे उसका पति भी मौन सहयोगी माना जाता था.
इनके बीच अनैतिक व्यवहार इस तरह के थे कि दुर्योधन के द्वारा जब द्रोपदी को गौ कहा गया तो उसने जवाब दिया कि उसे अफ़सोस है कि उसके पति ब्राम्हण नही हैं.
ऋषियों में भी पशुता की कोई कमी नहीं थी,महाभारत के 100 वें अध्याय में लिखा है कि विभण्डक ऋषि ने एक हिरनी के साथ सम्भोग किया है,जिससे श्रृंगी ऋषी नामक एक पुत्र पैदा हुआ था,महाभारत के आदिपर्व के प्रथम अध्याय और एक सौ अठारहवें अध्याय में व्यास ने लिखा है कि एकबार जब एक दमऋषि एक हिरनी के साथ संभोगरत था तभी पांडु ने दमऋषी को एक तीर मारा था जिससे दमऋषि की उसी समय मृत्यु हो गई लेकिन मरने से पहले उसने पाण्डु को एक श्राप दिया था कि अगर पाण्डु ने अपनी पत्नी को कभी छुआ तो वह तुरंत मर जाएगा.
इसी तरह महाभारत के आदिपर्व के 63 वें अध्याय में वर्णन है कि एक मछुये की बेटी सत्यव्रती (मत्स्यगंधा) के साथ खुले आम एक ऋषि ने मनोरंजन के तौर पर सम्भोग किया,वही आदिपर्व के ही 104 वे अध्याय में लिखा गया है कि दीर्घतमा नामक ऋषि ने लोगों के सामने एक सार्वजनिक जगह पर एक स्त्री के साथ सम्भोग किया,इसी तरह महाभारत में ढेरों सारे ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जिसमें ऋषियों की उद्दंडता और पशुता उजागर की गई है,सबके सामने किये गए सम्भोग से उत्पन्न पुत्र को अयोनिज कहा गया था मतलब सभी के सामने सार्वजनिक जगह पर किये गए सम्भोग से उत्पन्न संतान.
वही ऋषियों के लिए एक और प्रथा थी कि जब भी जहाँ कहीं कोई यज्ञ चल रहा होता हो तो कोई भी ऋषि वही यज्ञ मंडप में सबके सामने किसी भी स्त्री के साथ सम्भोग करे,ऋषियों की इस अनैतिक हरकत को धार्मिक नाम देकर "वामदेव व्रत" रखा गया जिसका ही आगे चलकर नाम वाम मार्ग दे दिया गया.
ऋषि भी कितने भाग्यवान थे कि राजा भी अपनी रानियों को अच्छी नश्ल की संतानोत्पत्ति के लिए ऋषियों के पास भेजते थे.
वहीँ देवतागण भी उच्चश्रृंखल और शक्तिशाली जाति के थे,वे ऋषि पत्नियों तक पर भी हाथ साफ कर जाते थे,गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने क्या किया था यह कृत्य तो जग जाहिर है,देवताओं का स्वामित्व तो सायद इतना विकृत हो गया था कि वे आर्यजनों की देवियों को देवताओं की कामुकता को संतुष्ट करने के लिए वैश्या तक बनना पड़ता था,लेकिन आर्य जनों को यह बात अभिमानजनक लगती थी कि उनकी पत्नी किसी देवता के साथ संसर्ग करती है,और ख़ास बात यह है कि अगर किसी देवता के साथ संसर्ग से अगर किसी को गर्भ ठहर जाता तो उन्हें सम्मानपूर्वक किसी इंद्र,यम, नस्त्य,अग्नि,वायु और इसी तरह के देवताओं से उत्पन्न पुत्र करार दिया जाता था,इस तरह की संतानोत्पत्ति सामान्य बात थी.
समय उपरान्त देवताओं और आर्य जनों के सम्बन्ध स्थिर हो गए,जिसने अंत में सामंतशाही का रूप धारण कर लिया,और देवताओं ने आर्यो से दो वर लिए ,पहला-यज्ञ जो देवताओं के लिए एक प्रीतिभोज थे यह भोज इसलिए दिए जाते थे कि देवतागण आर्यो को आवश्यक्तानुसार राक्षसों,दैत्यों,और दानवों के विरुद्ध युद्ध में संरक्षण प्रदान कर सकें,इसतरह देवता का मतलब था संरक्षण के बदले उगाही (रिश्वत)लेने वाला ,बाद में इसी देवता शब्द को जमातपरक न रखकर इस्वरपरक बना दिया,जोकि एकदम ही गलत है.
वहीँ दूसरा वरदान देवताओं ने आर्यों से माँगा था कि आर्यजनों की स्त्रियों को भोगने की उन्हें प्राथमिकता दी जाय,जो कि आरंभिक काल में ही साकार हो गया था,इसका उल्लेख ऋग्वेद (१०-८५-४० )में है,जिसके अनुसार आर्य देवी पर पहला हक "सोम" का था,दूसरा "गन्धर्व" का तीसरा "अग्नि"का और सबसे अंत में आर्यजन का.
आपने देखा कि आर्यो की स्त्रियों पर क्रमशः पहला ,दूसरा और तीसरा हक़ सोम,गन्धर्व और अग्नि का होता था और सबसे अंत में खुद आर्य का..मतलब साफ था कि आर्यो को उनकी ही स्त्रियों पर अधिकार देवताओं की मेहरबानी पर निर्भर था क्योंकि बदले में देवता आर्यों की राक्षसों,दैत्यों,और दानवों से सुरक्षा करते थे...अब आगे....
इस तरह हर आर्य देवी (नाबालिग कन्या ) पर किसी न किसी देवता का ऋण चढ़ा रहता था, और जब भी वह बालिग़ हो जाती थी तो उस पर उसी देवता की हो जाती थी,और अगर इस दायरे से विवाह हेतु कन्या को बाहर करना होता था तो उसे उचित दक्षिणा देकर उसे देवता के अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाता था.
आस्वालायन ग्रहसूत्र के प्रथम अध्याय की सातवीं अण्डिका में इस विवाह विधि का जो वर्णन दिया है वह इस पद्धति के अस्तित्व का अकाट्य प्रमाण है,जिसके अनुसार विवाह के समय तीन देवता उपस्थित होते थे,आर्यमान,वरुण तथा पुशन ,इसलिए क्योंकि आर्य देवी पर सबसे पहला हक़ इन्ही तीनो का होता था.इससे साबित होता है कि आर्यजन देवताओं द्वारा कितनी जघन्य अवस्था को पहुंचा दिए गए थे,और न केवल देवता बल्कि आर्यजन भी नैतिक दृष्टि से कितने पतित हो चुके थे...
:- डा.बी.आर.अम्बेडकर, हिन्दुधर्म की रिडल्ज पृष्ठ- 93-94-95-96-97-98
सिंधुघाटी सभ्यता विनाश।
वैदिक धर्म बर्बर और अश्लील।
नारी का अपमान।
सीता त्याग, सच्ची रामायण, शम्बूक।
लिंगपूजा, अश्मेध।
◆◆◆
प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे, लिंग पूजा को स्कम्भ कहा जाता था, जो आर्य धर्म का प्रमुख अंग थी, जैसा कि अथर्व वेद के मंत्र 10.7 में है,वैदिक आर्यों में एक और अश्लील प्रथा थी,जिसने ही प्राचीन आर्य वैदिक धर्म को विकृत किया हुआ था, वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि, अश्वमेध यज्ञ का अनावश्यक हिस्सा एक यह था कि मेघित (मृत अश्व) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में पुरोहितों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र 23.18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है,जो इस विषय मे और अधिक जानना चाहते हैं वे यजुर्वेद की महीधर टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं,जहां वे इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं-
बाबासाहब अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्गमय खंड 8 पृष्ठ-296
(बाबासाहब डा.अम्बेडकर के विचार--यशवंत सोनटक्के-पृष्ठ-76).
मनु।
मूत्र द्वार।
तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...

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सत्यकाम जबाल की कथा लगभग सभी को मालुम है! कई लोग इस कथा को उदाहरण-स्वरूप भी बताते हैं कि किस तरह एक गणिका-पुत्र जबाल ऋषि बन गये थे। वैसे यह ...
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जब भी मै यह लिखता हूँ कि पुराणों मे लिखी बातें सवर्था झूठ हैं जिनका सत्य से कोई लेना देना नही है, तब हमारे पौराणिक भाई आकर कहते हैं कि- ...
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■■■ शुद्र के वेदवाठ सुनने पर पिघला सीसे और जस्ते से उसके कान भर दिये जाय, वेद के अक्षर उच्चारण पर उसकी जीभ काट ली जाए तथा वेद मंत्र धारण करन...