Saturday, 28 November 2020

बोद्धधर्म अमरीका में, बोद्धधर्म से प्रेणना।

अमेरिका में बौद्ध सभ्यता!

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी पुस्तक "बुद्ध और बौद्ध धर्म "में प्रोफेसर फायरमेन के हवाले से बताया है कि 14 सौ साल पहले बौद्ध भिक्षु अमेरिका पहुँचे थे और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किए थे।

चीन के प्राचीन ग्रंथों में जो " फुसम" नामक देश का वर्णन है ,वह मेक्सिको है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि 5 वीं शती में सुंगवंशीय राजा थामिन के शासनकाल में 5 बौद्ध- भिक्षु काबुल से फुसम ( मेक्सिको ) गए थे और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किए। आगे ह्वेनसांग ने फुसम देश के फल, धातु और आचार- विचार के बारे में लिखा है जो अमेरिका के मूल निवासियों तथा मेक्सिको की सीमा पर रहनेवाले लोगों से मिलता- जुलता है।

चतुरसेन शास्त्री ने बताया है कि ये 5 बौद्ध- भिक्षु रूस की उत्तरी सीमा पर कामश्चारका प्रायद्वीप से पैसिफिक-  महासागर को पार कर एलास्का की ओर से अमेरिका पहुँचे थे और फिर दक्षिण की ओर से मेक्सिको गए थे। इसीलिए मैक्सिको के मूल निवासियों की सभ्यता बौद्ध सभ्यता से मेल खाती है।

मैक्सिको में पुरोहित को " ग्वाते- मोट- निज " कहते हैं, वह गोतम का रूप है। और भी जैसे - शाकारापेक , शाकापुलाश। ये सब शाक्य शब्द से मिलते हैं। पालेस्के में एक प्राचीन बुद्ध की मूर्ति है , जिसे वे "शाकामोल " कहते हैं । शाकामोल अर्थात शाक्यमुनि।


*आचार्य चतुरसेन*

ईसा मसीह के जन्म से पहले भारत के सम्राट अशोक ने फ़िलिस्तीन में बौद्ध-धर्म प्रचारकों को भेजा था। मसीह के समय में भी, बौद्ध-भिक्षु वहाँ उपस्थित थे। मसीह के उपदेश और जीवन पर बौद्ध धर्म की इतनी गहरी छाप पड़ने का कारण ही यही था। बाइबल में, बौद्ध सिद्धांतों का मिलना, रोमन कैथॉलिक लोगों का पजाक समुदाय धर्मानुष्ठान, रीति-नीति सभी बौद्ध-धर्म का अनुकरण मात्र है। 
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जर्मन पंडित Arthur Schopenhauer ने यह बात स्वीकार की है। एक रूसी ग्रंथकार Nicolas Notovitch को तिब्बत में एक ग्रंथ मिला था, उससे पता लगा कि मसीह ने स्वंय *भारत और तिब्बत में रहकर बौद्ध-धर्म का अनुशीलन किया था*। 


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*बी॰ आर॰ अंबेडकर*

आप ईसाइयों के चर्च में जाइए। वहाँ क्या होता है? हर हफ्ते वहाँ लोग इकट्ठे होते हैं। वे प्रार्थना करते हैं, फिर पादरी उन्हें “बाइबल” के उपदेश देता है। वह उन्हें याद दिलाता है कि यीशु मसीह ने उन्हें क्या संदेश दिया है। 
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आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि *बाइबल की 90% से अधिक शिक्षाएँ बौद्ध धम्म से नकल की गई हैं*। - 


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*आचार्य रजनीश (ओशो)*

जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत आने के लिए उत्सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में *पाइथागोरस* भारत आया था। *ईसा मसीह भी भारत आए थे*. 
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*ईसा मसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है।* और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक (17 सालों) का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं. यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्में, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होनें तो ईसा और ईसाई, ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्पंना की जा सकती है. 
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पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं- ''अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।'' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्हों ने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं. ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था. 
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जीसस कहते हैं कि ''अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था।'' कौन हैं ये पुराने पैगंबर?'' वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- '' कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? '' यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्वर के मुंह से ये शब्द भी कहलवा दिए हैं कि '' मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं।'' पुराने टेस्टारमेंट में ईश्ववर के ये वचन हैं, और ईसा मसीह कहते हैं, '' मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा प्रेम है।'' यह ख्याल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? 
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*गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।* उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्हें जानकर आश्चकर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्यां हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं । 

*जैन और बौद्ध धर्म की अहिंसा को ईसा मसीह ने जी कर दिखाया*। 

लगता है ईसाई धर्म पर उन्हीं लोगों का कब्जा है जिन लोगों ने मसीह को सूली पर लटकाया।

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येशू मसीह, तथागत बुद्ध के अनुयायी उपासक थे । हाल ही में,  BBC की एक  डाक्यूमेंट्री में यह निष्कर्ष निकाला गया  है कि "येशु मसीह तथागत  बुद्ध के उपासक थे, और उन्होंने अपना कुछ समय भारत में बुद्ध धम्म को जानने एवं परम ज्ञान ध्यान साधना के लिए व्यतीत किया था.।
        
यीशु मसीह सभी ईसाइयों की श्रद्धा भाज्य है। कई कथाएं दंतकथाएँ उनके बारे में सारी दुनियाँ में प्रचलित है। येशु मसीह ने अपने जीवन काल में प्रेम एवं करुणा की सीख सारी दुनिया को दी ।
             
बाइबिल के अनुसार जीसस ऑफ़ नाज़रेथ के  नाम से प्रसिद्ध येशु मसीह का जन्म  फिलिस्तान के एक छोटेसे कस्बे बेथलहेम में इसवी पूर्व 04, मे हुआ था। इनकी माता का नाम मरियम था ।  इनके पिता का नाम यूसुफ था जो बढ़ई का कार्य करते थे । वहां के क्रूर राजा हेरोद की डर की वजह से यूसुफ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे, वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ मिस्र भाग गए। हेरोद 4 ई.पू. में चल बसे अत: ईसा का जन्म संभवत: 4 ई.पू. में हुआ था। हेरोद के मरण के बाद यूसुफ लौटकर नाज़रेथ गाँव में बस गए।   बाइबिल (इंजील) में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई ‍ज़िक्र नहीं मिलता। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से पानी में डुबकी (दीक्षा) ली। डुबकी के बाद ईसा पर पवित्र आत्मा आया। 40 दिन के उपवास के बाद ईसा लोगों को शिक्षा देने लगे।

यहूदियों के कट्टरपन्थी रब्बियों (धर्मगुरुओं) ने ईसा का भारी विरोध किया। उन्हें ईसा में मसीहा जैसा कुछ ख़ास नहीं लगा। उन्हें अपने कर्मकाण्डों से प्रेम था। ख़ुद को ईश्वरपुत्र बताना उनके लिये भारी पाप था। इसलिये उन्होंने उस वक़्त के रोमन गवर्नर पिलातुस को इसकी शिकायत कर दी। रोमनों को हमेशा यहूदी क्रान्ति का डर रहता था। इसलिये कट्टरपन्थियों को प्रसन्न करने के लिए पिलातुस ने ईसा को क्रूस (सलीब) पर मौत की दर्दनाक सज़ा सुनाई।

 उनकी उम्र के 13 से 29 साल उन्होंने कहाँ बिताये इस विषय में बाइबल  या अन्य किसी पाश्चिमात्य ऐतिहासिक दस्तावेजों में कोई ठोस उल्लेख नहीं है।
          
मसीह के जिंदगी के इन 16 वर्षों के काल को "The Lost Years" इस संज्ञा से भी जाना जाता है। इस  16 वर्ष के काल के बारे में खोजबीन चलती रही, सन 1887 में इस विषय में कुछ तथ्य सामने आये। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, निकोलस नोतोविच नामक एक रूसी डॉक्टर ने भारत, तिब्बत और अफगानिस्तान का दौरा किया। उस प्रवास काल के दौरान उन्हें जो अनुभव हुए, उन्होंने उसे " The Unknown Light Of Christ" नामक एक किताब में शब्दबद्ध किया जो सन 1894 में प्रकाशित हुई। 
          
प्रवास के दौरान, सन 1887 के दौरान नोतोविच, अपघात ग्रस्त हो गए थे , जिस वजह से उनका एक पैर  बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। उस दौरान उन्होंने ने ल्हासा के एक  बौद्ध मठ जिसे हेमिस मठ के नाम से जाना जाता है, वहाँ शरण ली थी। उस मठ में उन्हें कुछ तिब्बती भाषा में लिखे गए दस्तावेजों का अध्ययन करने का मौका मिला, जो मसीह के बारे में थे। उन्होंने इन दस्तावेजों का भाषांतरण किया, यह दस्तावेज मसीह के उन खोये हुए सालों पर प्रकाश डालते हैं। 
       
नोतोविच ने पाया की , मसीह 13 साल की उम्र से लेकर 29 वर्ष तक भारत में बौद्ध धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते रहे , तपस्या करते रहे। और भारतीय विद्वानों ने उन्हें "भगवान का पुत्र" कह के पहली बार संबोधा था। 
      
जब 1887 में उस मठ में नॉतोविच थे, तो एक लामा ने नोथोविच को  मसीह को प्राप्त हुए असीम परम् ज्ञान के बारे में बताया। 

लामा ने  नॉतोविच से कहा "  येशु मसीह महान प्रेषित थे।वह २२ बुद्धों में एक थे । वे दलाई लामा से भी बड़े हैं क्योंकि उनमे भगवान का अंश स्थित हैं । उन्होंने आपको भी ज्ञान दिया है, और उन्होंने हर व्यक्ति को अच्छे और बुरे के बीच अंतर करने के लिए सिखाया है। उनके नाम और उनके कार्य का वर्णन हमारे पवित्र ग्रंथों में किया है।
         
उनके कार्य के बारे में जानकर हमे बड़ी ख़ुशी हुई. साथ ही जिस तरह से रोमन लोगों ने उन्हें सूली पर लटकाकर मृत्युदंड दिया वह जानकर हम बड़े शोकाकुल हुए। 
नोस्टोविच के सिद्धांत के मुताबिक, 
यह दस्तावेज  बखूबी से उन 16 सालो के बारे में बताते है जिन्हे "The Lost Years" के नाम से जाना जाता है।

जब एक महान बुद्ध या लामा की तरह एक पवित्र व्यक्ति जीवन समाप्त करता है, तो  बुद्धिमान भिक्खू  ग्रह, सितारों और अन्य संकेतों की पहचान करते हैं और उनका अगला जन्म जहाँ होगा उस जगह तक पहुँच जाते है।जब वह बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाता है, तो उसे बुद्ध ज्ञान की दीक्षा दी जाती है।
      
शोधकर्ताओं के अनुसार "The Three Wise Men" इस प्रसिद्द कथा का आधार यही है। ऐसी मान्यता है की 13 साल की उमर में येशु को भारत लाया गया और उन्हें दीक्षा दी गयी। जिस दौरान उन्हें दीक्षा मिली उस समय बुद्ध धर्म का उदय हो के लगभग 500 साल गुजर चुके थे और ईसाई धर्म का उदय भी नहीं हुआ था। 
        
एक वरिष्ठ लामा ने IANS नामक समाचार एजेंसी को बताया, "येशु मसीह भारत आये और उन्हें कश्मीर में बुद्ध दीक्षा मिली। बुद्ध के करुणा एव प्रेम के संदेशों से उन्होंने प्रेरणा ली। 
       
दुक्पा बौद्ध संप्रदाय एवम  हेमिस मठ के प्रमुख, ग्वालेंग रुक्पा भी  इस कहानी की पुष्टि करते है । इन 224 छंदों को अन्य लोगों द्वारा भी भाषांतरित किया गया हैं। रूसी दार्शनिक और वैज्ञानिक निकोलस रोरिच ने भी  इस मठ में वर्ष 1942 में वास्तव्य किया था, और इन दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद वह भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने इस विषय में आगे कहा है की,  मसीह ने भारत की वाराणसी जैसी कई नगरियों में वास्तव्य किया। सभी लोग उनसे प्रेम करते थे, मसीह का व्यवहार  सभी के प्रति बेहद समता भरा एवं करुणामय था। मसीह ने अपने वास्तव्य में काफी लोगों को धर्म के प्रति मार्गदर्शन किया। जीसस क्राइस्ट ने भारत के शहर जैसे जगन्नाथ पुरी, वाराणसी और राजघाट में धम्म दान दिया और लोगों को अज्ञान से मुक्त होने में सहायता की।  इस  वजह से वह कुछ लोगों के रोष का कारण बने। तत पश्चात उन्होंने करीबन 6 साल हिमालय में वास्तव्य किया , जिस दौरान वह साधना में रत रहे। 
           

हॉलजर केर्स्टन नामक एक जर्मन अभ्यासक ने भी इस बात की पुष्टि की है। "Jesus Lived In India" नामक  किताब में उन्होंने इस विषय विस्तृत जानकारी दी है। उन्होंने कहा हैं "मसीह कुछ व्यापारियों के साथ में भारत वर्ष में सिंध नामक प्रान्त में पहुंचे। वहीं पर पहली बार वह बुद्ध से रूबरू हुए, तत पश्चात उन्होंने पाँच नदियों के प्रदेश यानी पंजाब में भ्रमण किया। अपने जीवन का कुछ समय उन्होंने जगन्नाथ पूरी में जैन मुनियों के साथ भी बिताया।  इस विषय में उन्होंने बीबीसी पर एक डॉक्यूमेंट्री भी प्रदर्शित की है जिसका नाम है "Jesus Was A Buddhist Monk".  

       
शोधकर्ता ने इस डॉक्यूमेंट्री में बताया है, कि सूली पर चढ़ाये जाने की सजा से यीशु मसीह को रिहा कर दिया गया था, वह फिर से भारत वापस आये । क्योंकि वे इस क्षेत्र को बहुत पसंद करते थे। मृत्यु को चकमा देकर वह अफगानिस्तान में पहुँचे और वहाँ पर स्थित यहूदी लोगों के साथ अपना कुछ जीवन व्यतीत किया। यह यहूदी लोग भी, यहूदीराजा नेबुकद्नेज़र के उत्पीड़न से बच निकले थे और अफगानिस्तान चले आये थे।
          
इसके अलावा, कश्मीर घाटी के स्थानीय लोग यह भी कहते हैं कि 30 साल की उम्र में येशु यहाँ लौट आये और उन्होंने अपना सारा जीवन इसी कश्मीर घाटी में बहुत खुश और शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत किया। 80 साल की पकी उम्र में उन्होंने देह छोड़ा। इस सिद्धांत को अगर सच माने तो , येशु ने अपनी जवानी के 16 साल और मृत्युदण्ड से छूटने के बाद के करीबन 45 साल, कुल मिलाकर 60 वर्ष भारत और तिब्बत में व्यतीत किये। कई लोगों का मानना है की उनकी समाधी श्रीनगर में रोजबाल मंदिर में स्थित है।

Source : 

!! नमो बुद्धाय !! जय भीम !! जय भारत !!

वाल्मीकि

ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के बारे मे एक अफवाह उड़ायी गयी है कि वाल्मीकि जाति से "भंगी" थे।
अब यह अफवाह किस फायदे से उड़ायी गयी, यह तो कहना मुश्किल है, पर तमाम ग्रंथों के अध्ययन से यह पता चलता है कि वाल्मीकि भंगी तो नही थे

पहली बात तो वाल्मीकि जैसा कोई पात्र था भी या नही, यह भी एक प्रश्न हो सकता है, लेकिन यदि ऐसा कोई पात्र था तो वह एक विद्वान ब्राह्मण ही था।
पुराणों के अनुसार वाल्मीकि ब्रह्मर्षि थे, और किसी डाकू-लुटेरे का ब्रह्मर्षि बनना मुश्किल ही नही, नामुमकिन है।

वास्तव मे ये वाल्मीकि के डाकू-लुटेरे होने वाली कथा पद्मपुराण से आयी! इस कथा को तुलसीदास ने राम की महिमा का बखान करने के लिये मानस मे लिखकर घर-घर पहुँचा दिया।
तुलसी ने लिखा है-
"उल्टा नाम जपा जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।"
अर्थात- वाल्मीकि (डाकू-लुटेरा) भी राम का उल्टा नाम जपने से भी ब्रह्म के समान हो गया।

खैर.. अब हम वाल्मीकि की वास्तविकता का पता लगाने का प्रयत्न करते हैं।
वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग-96 श्लोक-19 (चित्र-1) मे वाल्मीकि ने खुद ही राम को अपना परिचय देते हुये कहा है कि "हे रघुनन्दन! मै प्रचेता का दसवाँ पुत्र वाल्मीकि हूँ"

वाल्मीकि ने यहाँ खुद को किसी भंगी या डाकू-लुटेरे का पुत्र नही बताया है, बल्कि प्रचेता का पुत्र कहा है। अब सवाल यह होता है कि प्रचेता कौन थे?
प्रचेता को जानने के लिये मनुस्मृति का अध्ययन करना पड़ेगा। मनुस्मृति अध्याय-1/34-35 (चित्र-2-3)मे स्वयं ब्रह्मा मनु से कहते हैं कि-
"अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सदुश्चरम् ।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश।।
मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च।।"

अर्थात- मैने अतिकठोर तप करके सृष्टि सृजन की इच्छा से दस महान ऋषियों को पैदा किया। मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद, ये उन दस ऋषियों के नाम हैं।

इन दोनो श्लोकों से स्पष्ट होता है कि प्रचेता ब्रह्मा के पुत्र थे और वाल्मीकि प्रचेता के। अर्थात, वाल्मीकि जन्म से भी ब्राह्मण ही थे और उनका जन्म एक ऋषि के घर मे हुआ था, न कि किसी लुटेरे के घर मे।

इसके अलावा भी वाल्मीकि की कथा स्कन्दपुराण मे भी मिलती है! स्कन्दपुराण आवन्त्यखण्ड अध्याय-286 (चित्र-3-5) मे वाल्मीकि की कथा निम्न प्रकार लिखी है-
प्राचीनकाल मे सुमति नामक एक भृगुवंशी ब्राह्मण थे, जिनका पुत्र अग्निशर्मा लुटेरा हो गया था। एक बार उसने जंगल मे सप्तऋषियों को लुटने के लिये घेर लिया! सप्तऋषियों ने उससे कहा तुम लोगो की हत्या करके अपने माता-पिता के लिये जो लूटपाट करते हो, क्या उसके पाप मे तुम्हारे माता-पिता भी भागीदार होंगे?
अग्निशर्मा ने जब यही बात अपने माता-पिता से पूँछा तो उसके माता-पिता ने यह कहकर पाप का भागीदार होने से मना कर दिया कि हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है।

इसके बाद अग्निशर्मा ने दुःखी होकर घोर तप किया! अग्निशर्मा ने ऐसा घोर तप किया कि उसके शरीर के ऊपर दीमकों मे अपनी बॉबी (वल्मीक) बना दी, और इसीलिये आगे चलकर उस (अग्निशर्मा) को "वाल्मीकि" नाम दिया गया।

इस कहानी मे भी अग्निशर्मा अर्थात वाल्मीकि को भृगुवंशी ब्राह्मण ही बताया गया है, न कि कोई भंगी।

मतलब स्पष्ट है कि वाल्मीकि को भंगी बताकर केवल और केवल भंगियों को सनातन धर्म से इमोशनली कनेक्ट किया गया, जबकि वाल्मीकि के भंगी होने का कहीं कोई प्रमाण नही है।

जेंद अवेस्ता।

(2)   ब्राह्मणों का इतिहास (इतिहास की नजर से)

जरथुस्त्र अवेस्ता भाषा और वैदिक संस्कृत भाषा में समानता

पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है,
 जो अवेस्ता भाषा में लिखा गया है।

ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है।

दोनों में अनेक मामलों में साम्य है। जैसे,

सार्वत्रिक बल 'ऋक्' (वैदिक) 
तथा अवेस्ता का 'आशा',

पवित्र वृक्ष तथा पेय 'सोम' (वैदिक) 
एवं अवेस्ता में 'हाओम',

मित्र (वैदिक), अवेस्तन और प्राचीन पारसी भाषा में 'मिथ्र'
भग (वैदिक), अव्स्तन एवं प्राचीन पारसी में 'बग'

वैदिक `असुर' ही अवेस्ता का `अहर' है।

 ईरानी `मज्दा' का वही अर्थ है, जो वैदिक संस्कृत में `मेधा' का।

 वैदिक `मित्र' देवता ही `अवेस्ता' का `मिथ्र' है।

 वेदों का यज्ञ `अवेस्ता' का `यस्न' है। 

पारसी धर्म की शिक्षा हैः हुमत, हुख्त, हुवर्श्त 
जो संस्कृत में सुमत, सूक्त, सुवर्तन अथवा सुबुद्धि, सुभाष, सुव्यवहार हुआ

वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों  धर्म ग्रंथ में है। अवेस्ता में `हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में `आर्याना' का वर्णन मिलता है

अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु (सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि।

'जेंद अवेस्ता' में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंत्र (मन्थ्र) हैं। इसके कई विभाग हैं जिसमें गाथ सबसे प्राचीन है 

पारसी मत की पवित्र पुस्तक जिंद अवेस्ता से कई बाते वेदो मे ज्यों की त्यों ली गयी है। यहा मै कुछ उदाहरण द्वारा पारसी ओर वेदो की कुछ शिक्षाओ पर समान्ता के बारे मे लिखुगा-  

इनकी प्रार्थ्नात की स्वर ध्वनि वैदिक पंडितो द्वारा गाए जाने वाले साम गान से मिलती जुलती है।  

पारसियो के ग्रंथ  जिन्द अवेस्था है यहा जिंद का अर्थ छंद होता है जैसे वेदो मे सावित्री छंद या छंदोग्यपनिषद आदि|  

 पारसी भी सनातन की तरह चतुर्थ वर्ण व्यवस्था को मानते है- 
1) हरिस्तरना (विद्वान)-ब्राह्मण 
2) नूरिस्तरन(योधा)-क्षत्रिए 
3) सोसिस्तरन(व्यापारी)-वैश्य  
4) रोजिस्वरन(सेवक)-शुद्र

 1 पारसी धर्म मे वैदिक ॠषियो  के  नाम- पारसियो की पुस्तक अवेस्ता के यास्ना मे 43 वे अध्याय मे आया है ” अंड्गिरा नाम का एक महर्षि हुवा जिसने संसार उत्पत्ति के आरंभ मे अर्थववेद का ज्ञान प्राप्त किया।

  पारसियो मे अग्नि को पूज्य देव माना गया है ओर वैदिक ॠति के अनुसार दीपक जलाना,होम करना ये सब परम्परा वेदो मे  रखी गई है।

ऋग्वेद में कुछ शब्द जो कि ज्यों के त्यों  जेदंअवेस्ता मे से ली गई है बस इनमे लिपि का अंतर है-

 अवेस्ता जैद ओर वेद मंत्र मे समानता:- 

अवेस्ता से वेद मे कुछ मंत्र लिए गए है जिनमे कुछ लिपि ओर शब्दावली का ही अंतर है,
 सबसे पहले अवेस्ता का मंथ्र ओर फ़िर वेद का मंत्र व अर्थ-                                        
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अह्मा यासा नमडंहा उस्तानजस्तो रफ़ैब्रह्मा(अवेशता

1/1/1) मर्त्तेदुवस्येSग्नि मी लीत्…………………उत्तानह्स्तो नमसा विवासेत ॥ ॠग्वेद 6/16/46॥ =

है मनुष्यो | जिस तरह योगी ईश्वर की उपासना करता है उसी तरह आप लोग भी करे।
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मिथ्र अहर यजमैदे।(मिहिरयश्त 135/145/1-2) -

यजामहे……।मित्रावरुण्॥ॠग्वेद 1/153/1॥ 

जैसे यजमान अग्निहोत्र ,अनुष्ठानो से सभी को सुखी करते है वैसे समस्त विद्वान अनुष्ठान करे।   
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पहरिजसाई मन्द्रा उस्तानजस्तो नम्रैदहा(गाथा
13/4/8)  

…उत्तानहस्तो नम्सोपसघ्………अग्ने॥ ॠग्वेद 3/14/5॥  =विद्वान लोग विद्या ,शुभ गुणो को फ़ैलाने वाला हो।
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अमैरताइती दत्तवाइश्चा मश्क-याइश्चा ( गाथा 3/14/5) -

देवेभ्यो……अमृतत्व मानुषेभ्य ॥ ॠग्वेद 4/54/2॥  

=है मनु्ष्यो ,जो परमात्मा सत्य ,आचरण, मे प्रेरणा करता है ओर मुक्ति सुख देकर सबको आंदित करते है। 
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19वी शताब्दी में अवस्ताई और वैदिक संस्कृत दोनों पर पश्चिमी विद्वानों की नज़र नई-नई पड़ी थी और इन दोनों के गहरे सम्बन्ध का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया। उन्होने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और वैदिक संस्कृत के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दुसरे को अनुवादित किया जा सकता था 

और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी 1892 में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यन्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान एब्राहम जैक्सन ने उदहारण के लिए एक अवसताई के धार्मिक श्लोक का वैदिक संस्कृत में सीधा अनुवाद किया

मूल अवस्ताई

तम अमवन्तम यज़तम
सूरम दामोहु सविश्तम
मिथ़्रम यज़ाइ ज़ओथ़्राब्यो

वैदिक संस्कृत अनुवाद

तम आमवन्तम यजताम
शूरम धामसू शाविष्ठम
मित्राम यजाइ होत्राभ्यः

ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है।

भाषा के अतिरिक्त वेद और अवेस्ता के धार्मिक तथ्यों में भी पार्याप्त समानता पाई जाती है। 

दोनों में ही एक ईश्वर की घोषणा की गई है। उनमें मन्दिरों और मूर्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। 

इन दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है।

  वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों  धर्म में है। अवेस्ता में `हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में `आर्याना' का वर्णन मिलता है

प्राचीन काल में दोनों देशों के धर्मो और भाषाओँ की भी एक-सी ही भूमिका रही है।

अवेस्ता भाषा और संस्कृत भाषा के शब्द की फोटो आप देखकर अंदाजा लगा सकते हैं दोनों  के शब्दों में कितनी समानता है

 दोनों धर्मों की भाषा में समानता तभी हो सकती है जब कोई यहां से वहां गया हो भारत के इतिहास में  ईरानी आक्रमण का पता चलता है    लेकिन  भारत से ईरान में कोई गया हो इसका पता नहीं चलता


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(1)   ब्राह्मणों का इतिहास
        इतिहास की नजर से

 सबसे पहले मैं उन लोगों का भ्रम दूर करना चाहूंगी
 जिनका मानना है ब्राह्मण लोग  यहूदी है  और यहूदी ही मुस्लिम है

ईरानी,प्राचीन काल में यह प्राचीन फारसी (पारसी) के रूप में एक राजकीय भाषा थी और अवेस्ता के रूप में धार्मिक भाषा थी

 ज़रथुश्त्र (अहुरा मज़्दा) के सन्देशवाहक थे। उन्होंने सर्वप्रथम दाएवों (बुरी और शैतानी शक्तिओं) की निन्दा की और अहुरा मज़्दा को एक, अकेला और सच्चा ईश्वर माना। 

उन्होंने एक नये धर्म "ज़रथुश्त्री धर्म" (पारसी धर्म) की शुरुआत की और पारसी धर्मग्रन्थ अवेस्ता में पहले के कई काण्ड (गाथाएँ) लिखे।

ज़न्द अवेस्ता के अब कुछ ही अंश मिलते हैं।  इसकी भाषा अवेस्तन भाषा है, जो संस्कृत भाषा से बहुत, बहुत मेल खाती है।

अहुर मज़्दा अवस्ताई भाषा में प्राचीन ईरानी धर्म के एक देवता का नाम है जिन्हें पारसी धर्म के संस्थापक ज़रथुश्त्र ने अजन्मा और सर्वज्ञ परमेश्वर बताया था। 

इसके अलावा इनके लिए ओह्रमज़्द, होउरमज़्द, हुरमुज़, अरमज़्द और अज़्ज़न्दारा नाम भी प्रयोग किये जाते हैं। वे पारसी धर्म के सर्वोच्च देवता हैं और यस्न (पारसी पूजा विधि, जिसका संस्कृत सजातीय शब्द 'यज्ञ' है) 

में इन्हें सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्बोधित किया जाता है। अहुर मज़्दा को प्रकाश और अच्छाई उनके ख़िलाफ़ शैतानी दाएवों (देवों) का अध्यक्ष है अंगिरा मैन्यु।

(1) हिंदू धर्म की तरह ही पारसियों में भी अग्नि को पवित्र माना जाता है तथा अग्नि की पूजा की जाती है। इनके मंदिर को आताशगाह या अग्नि मंदिर (फायर टेंपल) कहा जाता है।

(2) पारसी कम्युनिटी के लोग एक ईश्वर को मानते हैं जो 'आहुरा माज्दा' कहलाते हैं। ये लोग प्राचीन पैगंबर जरथुश्ट्र की शिक्षाओं को मानते हैं। पारसी लोग आग को ईश्वर की शुद्धता का प्रतीक मानते हैं और इसीलिए आग की पूजा करते हैं।

(3) इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। जब हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।....

(4) जिस भाषा के माध्यम का आश्रय लेकर जरथुस्त्र धर्म (पारस इरान) का मूल धर्म) का विशाल साहित्य निर्मित हुआ है उसे अवेस्ता कहते हैं।

(5)  यहूदियों की धर्मभाषा 'इब्रानी' (हिब्रू) और यहूदी धर्मग्रंथ का नाम 'तनख' है, जो इब्रानी भाषा में लिखा गया है। इसे 'तालमुद' या 'तोरा' भी कहते हैं।

(6) सातवीं सदी में ईरान में इस्लाम आया। इससे पहले ईरान में  जरथुस्त्र धर्म के अनुयायी रहते थे।

(7) जबकि यहूदी धर्म में ईश्वर की  कोई प्रतिमा या  तस्वीर नहीं है 
 लेकिन  जरथुस्त्र धर्म में  ईश्वर की प्रतिमा और तस्वीर है

(8) जरथुस्त्र धर्म में आग की पूजा होती है यहूदी लोग आग की पूजा नहीं करते

(9) इसलिए जरथुस्त्र और   यहूदी धर्म के संस्थापक  इब्राहिम को जोड़ना  कोरी कल्पना है

जो लोग  ब्रह्माणो को   यहूदी  कहते हैं    या   ब्रह्मणो को  यहूदी धर्म से जोड़ देते है फिर यहूदी  धर्म को   इस्लाम धर्म से जोड़ देते है  जो सरासर  गलत बात है

इस्लाम धर्म का उदय ही यहूदी धर्म के विरोध में हुआ है 
ये अलग बात है इस्लाम धर्म यहूदी धर्म मे अपने पूर्वजों के संबंधों को इनकार नहीं करता है  

लेकिन यहूदी धर्म की कृतियों का  भरपूर विरोध करता है

 इसलिए यह यहूदी धर्म  और मुस्लिम धर्म  परस्पर एक दूसरे के विरोधी हैं  

जो हमें पूरी दुनिया में एक दूसरे के कत्ल ओ गारत के रूप में दिखता है

( अगली पोस्ट  )

जरथुस्त्र अवेस्ता भाषा और वैदिक संस्कृत भाषा में समानता

श्रवणकुमार।

श्रवणकुमार एक अंधे ऋषि के पुत्र थे! उनके माता-पिता वन मे कुटिया बनकर तप करते थे और श्रवणकुमार उनकी सेवा।
अब एक सवाल उठता है कि यदि श्रवणकुमार के माँ-बाप ऋषि थे तो श्रवणकुमार को मारने के लिये दशरथ को "ब्रह्महत्या" का पाप क्यों नही लगा?

मेरे कई सनातनी मित्र (खासकर आर्यसमाजी) कहतें हैं कि वैदिककाल मे ब्राह्मण कोई जन्म से नही, बल्कि कर्म से होता था, तो भइया... श्रवणकुमार और उनके माँ-बाप के सारे कर्म तो ब्राह्मणों वाले ही थे, फिर आखिर उन्हे उस दौर मे ब्राह्मण क्यों नही माना गया?

आज मै आप मित्रों को श्रवणकुमार के जीवन से जुड़ी कुछ वह बातें बताऊँगी जिसे शायद आप नही जानते होंगे।
मैने भीमवादियों को कई बार यह सवाल करते देखा हैं कि जब चारों धाम शंकराचार्य ने आठवीं सदी मे बनवाये तो श्रवणकुमार किन चारों धामों की यात्रा करने द्वापरयुग मे निकले थे?
असल मे यह सब झूठ है, वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग-63,64 (चित्र-1) मे श्रवणकुमार की कथा लिखी है। रामायण मे साफ लिखा है कि श्रवणकुमार के माता-पिता अंधे थे और जंगल मे कुटी बनाकर तप करते थे! मतलब श्रवणकुमार से जुड़ी वह सारी कथा गप्प है जिसमे कहा जाता है कि श्रवणकुमार एक कांवड़ बनाकर अपने माता-पिता को चारधाम की यात्रा कराने जा रहे थे!

अब दूसरा सवाल यह है कि एक ऋषि के पुत्र को मारने पर भी राजा दशरथ ब्रह्महत्या के दोषी क्यों नही हुये?
इसका जवाब भी रामायण मे ही है! अयोध्याकाण्ड सर्ग-63 श्लोक-51 (चित्र-2) मे लिखा है कि श्रवणकुमार खुद दशरथ से कहते हैं कि "हे राजन! मै वैश्यपिता और शूद्रमाता के गर्भ से पैदा हुआ हूँ, अतः आपको ब्रह्महत्या का पाप नही लगेगा"

अगले सर्ग (64) के श्लोक-55-56 (चित्र-3) मे श्रवणकुमार के पिता ने दशरथ से कहा है- "क्षत्रिय होकर तुमने एक वैश्यजातीय मुनि की हत्या की है, अतः तुम ब्रह्महत्या के पाप से तो बच जाओगे पर मै तुम्हे कठोर श्राप दूँगा"

उक्त श्लोकों से यह स्पष्ट है कि इतने तपी और माता-पिता की इतनी सेवा करने बाद भी न तो श्रवणकुमार ब्राह्मण बन पाये और न ही उनके माता-पिता।
अब सवाल यह है कि आखिर कैसे मान लिया जाये कि किसी युग मे लोग अपने अच्छे कर्मों से ब्राह्मण बन जाते थे?

वास्तव मे अच्छे-बुरे कर्मों से कोई ब्राह्मण या शूद्र नही होता था! यदि ऐसा होता तो परशुराम कभी ब्राह्मण न होते और राजा सुदास कभी शूद्र न होते।


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मित्रों, 
श्रवण कुमार की कथा तो आप सभी ने बचपन से सुनी होगी , यही वो कथा है जिसने बचपन से लेकर जवानी तक सभी की जिन्दगी में कोहराम मचा रखा है, बात बात पर हमारे बड़े बुजुर्ग श्रवण कुमार का उदाहरण देकर नसीहतें दिया करते हैं,

और एक हम लोग हैं जो यही नहीं जानते कि श्रवण कुमार की जो कथा हम सुनते आ रहे हैं वो सच भी है या नहीं ?

यही बताने के लिए हमने इस कथा की खोजबीन की, जो परिणाम हमारे सामने आया वो इतना रोचक है कि आप खुद चौंक जाएंगे,
 श्रवण कुमार की प्रचलित कथा के कुछ तथ्य  

हमारे देश में पाखंड की इतनी भरमार है कि धर्म के नाम पर पाखंडियों की बहार है,
कोई पाखंडी श्रवण कुमार को धनाढ्य बताता है,

तो कोई पाखंडी उसे विवाहित बताता है,
कोई पाखंडी श्रवण कुमार द्वारा अपने अंधे माता पिता को कांवरियों की तरह तीर्थ यात्रा कराना बताता है,

तो कोई पाखंडी श्रवण कुमार को चारधाम की यात्रा कराता है, 
कोई पाखंडी श्रवण कुमार को अंधक ऋषि का पुत्र बताता है,
जिस पाखंडी को जहाँ मौका मिला उसने लूज गेंद पर चौका नहीं सीधा छक्का लगाया!
चलो मित्रों अब हम बताते हैं असली कथा क्या है ?
श्रवण कुमार की असली कथा 

मित्रों श्रवण कुमार की असली कथा वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में सर्ग 63 से शुरू होती है जब राजा दशरथ राम को वनवास देते हैं तब वो कौशल्या को बताते हैं कि कैसे उन्होंने एक निर्दोष की हत्या की!
मित्रों कथा के अनुसार श्रवण कुमार और उसके माता पिता सरयू तट पर वन में कुटिया बनाकर रहते थे,

श्रवण कुमार उन दोनों की सेवा किया करता था वो अपने माता पिता के लिए पानी लेने आया था जब राजा दशरथ के शब्द भेदी बाण ने उसके प्राण ले लिए, जब इस घटना की जानकारी दशरथ श्रवण कुमार के माता पिता को देते हैं तो वे दशरथ को श्राप देकर प्राण त्याग देते हैं,
वाल्मीकि के अनुसार श्रवण कुमार के माता पिता के श्राप की वजह से राम का वनवास व दशरथ की मृत्यु हुई!

??चलिए आईये तर्क बुद्धि से इसकी जांच कर लेते हैं??

मैंने वाल्मीकि रामायण के श्रवण कुमार से संबंधित सभी फोटो नीचे लगाए हैं उन्हें जरूर क्रमवार पढ़ना,

1. श्रवण कुमार अगर धनाढ्य था तो जंगल में अपने माता पिता के साथ क्यों रहता था ?

2. श्रवण कुमार अगर धनाढ्य था तो मृगचर्म (हिरन की खाल) क्यों पहने था ?

3. श्रवण कुमार अगर विवाहित था तो वाल्मीकि ने अपनी रामायण में उसकी पत्नी का उल्लेख क्यों नहीं किया ?

4. श्रवण कुमार अगर अपने माता पिता को तीर्थ यात्रा करा रहा था तो वाल्मीकि ने अपनी रामायण में उल्लेख क्यों नहीं किया ?

5. श्रवण कुमार को चारधाम की यात्रा कराने वाले जानते भी हैं कि चारधाम की स्थापना किसने और कब की थी ?

6. छठी शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम की स्थापना की थी 
जो सर्व विदित है, अंकित है चारधामो के शिलालेखो पर लिखा हुआ है,
जबकि रामायण का कथानक त्रेता युग का बताया जाता है!

7. ये कैसे संभव है कि त्रेता युग के पात्र कलियुग में आकर कांड करें फिर त्रेता युग में जाकर उसका श्राप झेलें 

मै समझ नही पाया  हू अभी तक
ये श्रवण कुमार कहा ले जा रहा था अपने माता पिता को?

समझने की बात है, सोचो जानो परखो। हम लोगो को जैसे बताया जाता है हम वैसे ही मान लेते है, चितंन मनन नही करते, ये बात हमारे पुर्वज पढे लिखे होते तो जरुर सोचते जॉचते, लेकिन आज  हम शिक्षित   होते हुए भी अनपढ़ गवार से भी गए गुजरे हैं

जैसे ही सरवण कुमार का सच लोगो को मालूम हुआ मार्केट में 5 नई कहानियां और आ गई
उन पाचों कहानियों में श्रवण कुमार  कहीं नहीं है

नीचे 👇 दिए गए फोटो पढ़कर अपनी बुद्धि से धर्म के पाखंड दूर भगाएँ,
धर्ममुक्त बनें मानवता को अपनाएँ,




बुद्ध प्रतिमा

भारत में ब्राह्मणों में दो तरह का झूठ फैलाया 

(1) अनपढ़ जाहिलों के लिए

 (2) पढ़े-लिखे और जानकार लोगों के लिए 

यही थ्योरी ब्राह्मणों ने हर जगह हर किसी पर लागू की गौतम बुद्ध के साथ भी यही किया गया 

अनपढ़ और जाहिल लोगों से कहा गया बुद्ध विष्णु के अवतार हैं 

और पढ़े-लिखे जानकार समझदार लोगों से कहा गया गौतम बुद्ध वेदों के विरोधी थे 

गौतम बुद्ध ने यग प्रथा मे होने बाली बलि प्रथा का विरोध किया गौतम बुद्ध ने वेदों का   पुरजोर विरोध किया और अपना अलग बौद्ध धर्म बनाया

यह पोस्ट अनपढ़ जाहिल आैर पढ़े लिखे जानकार समझदार दोनों  लोगों के लिए है

(1) अनपढ़ जाहिलो के लिए

 क्या बुद्ध विष्णु के अवतार हैं
 चलिए वेदों से मालूम कर लेते हैं सच क्या है

बुद्ध को विष्णु का  अवतार मानना उचित नहीं है. 
 तर्क यह है कि किसी भी पुराण में उनके विष्णु अवतार होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है…

… कल्किपुराण के पूर्व के अग्नि पुराण (49/8-9) में बुद्ध प्रतिमा का वर्णन मिलता है:-

 “भगवान बुद्ध ऊंचे पद्ममय आसन पर बैठे हैं. उनके एक हाथ में वरद तथा दूसरे में अभय की मुद्रा है. 

वे शान्तस्वरूप हैं. उनके शरीर का रंग गोरा और कान लंबे हैं. वे सुंदर पीतवस्त्र से आवृत हैं.” वे धर्मोपदेश करके कुशीनगर पहुंचे और वहीं उनका देहान्त हो गया. कल्याण पुराणकथांक (वर्ष 63) विक्रम संवत 2043 में प्रकाशित. पृष्ठ संख्या 340 से उद्धृत. 

इस वर्णन में यह कहीं नहीं कहा गया कि वे विष्णु अवतार हैं.

 हिन्दुओं के अठारह महापुराणों तथा उपपुराणों में बुद्ध के अवतार होने की गणना नहीं है। 

और ना ही  चारों वेदों में बुद्ध के अवतार का कोई जिक्र है 

हालांकि कल्कि पुराण में उनके अवतार होने का उल्लेख मिलता है। 

अब सवाल यह उठता है कि कल्कि पुराण कब लिखा गया? यह विवाद का विषय हो सकता है। 

कल्कि पुराण में बुद्ध को विष्णु के  23वें अवतार के रूप में चित्रित किया जाता रहा है।

 अब मेरा सवाल यह है कल्कि पुराण में कौन से बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा गया है

 बुद्ध किसी का नाम नहीं है बुद्ध एक उपाधि है

 बौद्ध साहित्य में अब तक 58  से भी ज्यादा बुद्ध हुए हैं

 जिनमें  कुछ के नाम इस प्रकार हैं

बौद्ध साहित्य इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि 
 प्रवीण  बुद्ध 
निपुण  बुद्ध 
अभिज्ञ बुद्ध 
कुशल बुद्ध 
मैत्रेय  बुद्ध 
गौतम  बुद्ध 
कश्यप  बुद्ध 
शक्र  बुद्ध 
अर्यमा  बुद्ध 
शाक्यसिंह  बुद्ध 
क्रतुभुक  बुद्ध 
कृती  बुद्ध 
सुखी   बुद्ध 
शशांक  बुद्ध 
निष्णात बुद्ध 
सत्व  बुद्ध 
शिक्षित  बुद्ध 
सर्वग्य  बुद्ध 
सुनत  बुद्ध 
रुरु बुद्ध 
मारजित् बुद्ध, 
प्रबुद्ध  बुद्ध 

इनमें वर्तमान कलियुग में तीन बुद्ध हुए हैं।

 भगवान् बुद्ध, सिद्धार्थ बुद्ध और गौतम बुद्ध दरअसल ये तीनों ही अलग-अलग हैं। 

भगवान् बुद्ध 2102-1982 ईपू में हुए तो 

सिद्धार्थ बुद्ध 1887-1807 ईपू में 

 गौतम बुद्ध 563-483 ईपू में हुए।

कश्यप बुद्ध, ककुच्छंद बुद्ध और कनकमुनि बुद्ध के जन्मस्थान पर जाने का यात्रा - विवरण 

चीनी  इतिहासकार फाहियान ने अपनी पुस्तक के इक्कीसवें खंड में लिखा है

अब आप खुद बताओ आप किस बुद्ध को विष्णु का अवतार कहोगे 

आप जिस किसी भी बुद्ध का नाम लेंगे इससे यह साबित हो जाएगा कल्कि पुराण उसी के वक्त में लिखा गया

अगर आपने सबसे पहले बुद्ध का नाम लिया तो आप सिंधु घाटी की सभ्यता में पहुंच जाएंगे 

आपको भारत का इतिहास दोबारा लिखना पड़ेगा 

आपकी जानकारी के लिए बता दूं सिंधु घाटी की सभ्यता में सिंधु लिपि मिली है संस्कृत भाषा नहीं मिली

 इसलिए  कल्कि पुराण होने का तो सवाल ही नहीं उठता

बौध्द साहित्यों में बृहमा विष्णु महेश नौ देवियां यानी लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा किसी का भी जिक्र नहीं है।तो बुद्ध कैसे विष्णु अवतार हुऐ।

अगर बुद्ध विष्णु के अवतार थे *तो किसी भी हिन्दू मंदिर में गौतम बुद्ध की प्रतिमा क्यों नहीं होती ?*
 
कोई भी हिन्दू धर्म के ठेकेदार ने *अपने बच्चे का नाम "तथागत"या "महात्मा बुद्ध" क्यों नहीँ रखा?*

आचार्य सत्यनारायण गोयन्का (बुद्ध अनुयाई)और कंचिकामकोटी पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती (हिन्दू महासभा)ने 

11नवम्बर 1999 सारनाथ में सयुक्त रूप से घोषणा की थी कि बुद्ध विष्णु के अवतार नही थे।

 अब भी अगर जाहिलो की  समझ में ना आए तो  क्या करें

 (2)   पढ़े लिखे जानकार और समझदार लोगों के लिए

कहते हैं बुद्ध ने वेदों का विरोध किया बुद्ध ने बलि प्रथा का विरोध किया 

बुद्ध ने वैदिक सभ्यता का विरोध किया इसीलिए अपना एक अलग  बौद्ध धर्म  बनाया  

चलिए इसकी भी जांच कर लेते हैं

अगर गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म चलाया तो बौद्ध स्तूप गौतम बुद्ध बाद ही बने होंगे

 और  वेदों का विरोध अगर गौतम बुद्ध ने किया तो वेद गौतम बुद्ध से पहले ही रहे होंगे

 और होना भी यही चाहिए वरना किसका विरोध कैसा विरोध

 पूरी दुनिया का इतिहास बताता है हर भाषा अपना साहित्य लिखती है  

और बाद में आने वाली भाषाएं पहले की भाषा का साहित्य अपनी भाषा में लिखती है

 गौतम बुद्ध के वक्त प्राकृत भाषा और पाली भाषा थी

बौद्ध साहित्य  प्राकृत भाषा और पाली भाषा का मिला जुला रूप है

 आइए भाषाओं का इतिहास भी देख ले

 प्राकृत भाषा ने संस्कृत का कोई साहित्य नहीं लिखा

 पाली भाषा ने भी संस्कृत का कोई साहित्य नहीं लिखा 

 लेकिन आश्चर्य संस्कृत भाषा ने प्राकृत भाषा और पाली भाषा का साहित्य अपनी यानी संस्कृत भाषा में लिखा है

  दुनिया की भाषाओं के साहित्यक इतिहास  के मुताबिक 

(1)प्राकृत भाषा 

(2)पाली भाषा

 (3) संस्कृत भाषा

 इस हिसाब से संस्कृत भाषा तीसरे नंबर की साबित होती है

पुरातात्विक दृष्टिकोण से वैदिक साहित्य से बौद्ध साहित्य प्राचीन है।

इस हिसाब से तो प्राकृत भाषा और पाली भाषा के साहित्य मे  संस्कृत का लिखा तो मिलना मुश्किल है
 चलिए एक बार फिर वेदो को देखते हैं

आश्चर्यजनक किंतु सत्य 

वेद   खुद बुद्ध और स्तूप के होने की गवाही दे रहे हैं  
नामुमकिन यह कैसे मुमकिन है के ऋग्वेद में बुद्ध और बौद्ध स्तूप का जिक्र हो

 फिर तो इसका सीधा सा मतलब है जब बौद्ध धर्म था तभी वेद लिखे गए

 यह बात मैं नहीं कह रहा हूं ऋग्वेद ने खुद बुद्ध और बौद्ध स्तूप होने की गवाही दी है

कहते हैं बुद्ध ने बलि प्रथा का विरोध किया

जहाँ यज्ञ होगा, वही  बलि- प्रथा होगी, जरूरी नहीं है। 

बलि की परंपरा केल्ट लोगों में थी, 
स्लाविक लोगों में थी, 
जर्मैनिक लोगों में थी। 
क्या ये सभी लोग यज्ञ कर रहे थे?

बलि की परंपरा मेसोपोटामिया में थी, 
फोनीशिया में थी, 
अफ्रीका में थी। 
क्या ये सभी देश यज्ञ कर रहे थे?

भारत के अनेक आदिम समाज में, 
ट्राइब्स में, 
यहाँ तक कि सिंधु घाटी की सभ्यता के सीलों पर बलि का दृश्यांकन है।
 क्या ये सभी यज्ञ कर रहे थे?

बुद्ध ने बलि का विरोध किया, जीव हिंसा का विरोध किया, 

इसका कतई मतलब यह नहीं है कि वे वैदिक यज्ञ का विरोध कर रहे थे। 

ये अग्नि - होम वाला वैदिक यज्ञ, जिसे अवेस्ता में यश्न कहा गया है, बुद्ध के बाद भारत में आया है।

बुद्ध ने यज्ञ में दी जाने वाली बलि प्रथा का विरोध किया 

ऐसा इसलिए कहा जाता है कि वेदों को    गौतम बुद्ध से प्राचीन साबित किया जा सके

गौतम बुद्ध ने वैदिक साहित्य का विरोध नहीं किया था 

बल्कि वैदिक साहित्य ही गौतम बुद्ध के विरोध में लिखा गया है।

जो था ही नहीं उसका विरोध कोई कैसे कर सकता है।

यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवां अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। 

२६०.अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥

पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण(सबको आच्छादित करने वाले) दिव्त तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधारहित आकाश मे धारण करते है। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसले मध्य मे दिव्य किरणे विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥

इतिहासकार भाषा विज्ञानी राजेंद्र सिंह के के मुताबिक ऊपर की गई व्याख्या गलत है भाषा विज्ञान के हिसाब से सही व्याख्या इस तरह होगी

 यह अर्थ सायण भाष्य पर आधारित है और गलत है। लगभग अनुवादकों ने ऐसा ही अर्थ किया है। 

अर्थ करते वक्त संदर्भ को देखना जरूरी होता है। जैसा कि आप देख रहे हैं 

कि वरुण राजा की उपाधि अबुध्ने है। मतलब कि वरुण बौद्ध विरोधी राजा थे। 

आगे स्तूप को उलटने की बात है। इसीलिए स्तूप का मुख नीचे और मूल ऊपर है। 

श्लोक में यह भी है कि स्तूप में बुद्ध निवास करते हैं - 

बुध्न अन्तर्निहिताः। अब इसके आगे के श्लोक पर ध्यान दीजिए, 

जिसमें वरुण के इस कार्य की प्रंशसा है। कारण कि वरुण हृदय को कष्ट पहुँचाने वालों ( बौद्ध ) के विनाशक हैं।

बुद्ध के वास का वर्णन है मगर वह वास प्रतीकात्मक रूप से स्तूप से संबंधित करके वर्णित है,विरोधी वरूण के द्वारा स्तूप के उलटने  अर्थात् बुद्ध के विचार पर आधारित संस्कृति सभ्यता को खत्म करने से संबंधित श्लोक का वर्णन है,

ॠग्वेद में स्तूप का वर्णन है, स्तूप में बुद्ध के वास का भी वर्णन है। 

बताइए कौन-सा पुराना है बुद्ध या वेद?


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ॠग्वेद में स्तूप का वर्णन है, स्तूप में बुद्ध के वास का भी वर्णन है। बताइए कौन-सा पुराना है बुद्ध या वेद?

स्तूप ....बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः अर्थात इसमें बुद्ध अन्तर्निहित हैं।

यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवां अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। 

इसमें राजा वरुण को अबौद्ध( अबुध्ने ) राजा भी कहा गया है। पूरा का पूरा अर्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

वेद सिंधु सभ्यता के काफी बाद की रचना है जबकि जबकि सिंधु घाटी स्थल पर स्तूप मिले हैं जिन्हें अक्सर कुषाण कालीन कहा जाता है।

Friday, 27 November 2020

दुर्गा चरित्र।

इन दिनों हर हफ्ते एक-दो मामले ऐसे जरूर आ रहे हैं जब गोमांस (Beef) के कारण किसी ना किसी को मारा जा रहा है!

क्या अब इस देश मे गाय इंसान से अधिक कीमती हो गयी है?

खैर मेरा एक सवाल है कि अगर गोहत्या करने वाला या गोमांस खाने वाला वध करने योग्य है तो नरभक्षी या मानवमांस खाने वाले के साथ क्या करना चाहिये!

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के पाँचवे स्कन्ध के अध्याय-28/29 (पृष्ठ-376-377) मे लिखा है कि जब देवी दुर्गा (चामुण्डा) असुरों से युद्ध कर रहीं थी तो उन्होने राक्षसों के रुधिर (खून) पिऐ और मृत असुरों के मांस तक खा डाले!

अब इन्ही देवी माँ को सनातनी सात्विक मानकर पूजते है...,माला,फूल और नारियल चुनरी चढ़ाते हैं!
जबकि पुराण मे साफ लिखा है कि इन्होनो मांस खाये......... तो इन्हे सेब,केला और नारियल क्यों चढ़ाया जाता है?

वाह भाई सनातनियों गोमांस खाने वाले को जान से मार रहे हो, और मानवमांस खाने वाले को धूप-दीप से पूज रहे हो..... इन्ही देवी के नाम पर नौ दिन व्रत करते हो!

मेरे इस प्रमाण को कोई इनकार भी नही सकता, क्योकि इस पुराण को नकारने से देवी दुर्गा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा, जो भी इस पुराण को नही मानता उसे देवी दुर्गा को भी नही मानना चाहिऐ.......

देवी दुर्गा का किरदार इसी पुराण की देन है!


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नवरात्रि लगभग खत्म हो रही है, उसके बाद नौ-दिनों तक आस्था की केन्द्र बनी दुर्गा की मूर्तियों को नजदीकी नदियों/नहरों मे फेंक दिया जायेगा! 
खैर... यह सतत प्रकृया है, पर दुर्गा को लेकर अभी भी सवाल वही है कि दुर्गा आखिर कौन थी?

पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि महिषासुर के पास न तो कोई चमात्कारी वरदान था और न ही कोई विलक्षण शक्ति, फिर आखिर उसे विष्णु या शिव ने क्यों नही मार दिया?
एक महिला दुर्गा ही क्यों उसे मारती है?

मार्कण्डेयपुराण शाक्त-सम्प्रदाय का मुख्य पुराण है! इसी पुराण से दुर्गा-सप्तशती लिखी गयी है! पिछले एक सप्ताह से मै दुर्गा के बारे मे खोजते-खोजते इसी पुराण तक पहुँचा! इस पुराण के देवी माहत्म्य द्वितीयोऽध्याय मे दुर्गा की उत्पत्ति की कथा है! वैसे तो यह कथा भी पूर्णतः काल्पनिक ही है, फिर भी मै आप लोगों को बता देता हूँ।
कथानुसार महिषासुर ने तमाम देवताओं को हराकर स्वर्ग से बाहर खदेड़ दिया! तब सारे देवता ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पास आये और अपना विधवा-विलाप करने लगे। फिर सभी देवताओं ने महिषासुर को मारने के लिये अपने-अपने तेज से एक देवी को प्रकट किया। शंकर के तेज से देवी का मुख, विष्णु के तेज से भुजाऐं, यम के तेज से बाल, चन्द्र के तेज से दोनो स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से पुष्ठ, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से अंगुलियाँ, कुबेर के तेज से नाक, प्रजापति के तेज से दांत, अग्नि के तेज से आँखें, और वायु के तेज से उस देवी के कान बने! यही देवी पुराणों मे 'दुर्गा' के नाम से विख्यात हुई! फिर सारे देवताओं ने उस देवी को अपने-अपने अस्त्र देकर महिषासुर से लड़ने के लिये भेजा।

अब यहाँ सवाल यह बनता है कि इतने सारे देवता थे! स्वयं सर्व-शक्तिमान शिव और विष्णु भी थे, फिर आखिर ये सब महिषासुर से लड़ने क्यों नही गये?
क्यों सबने एक महिला को भेजा?
दूसरी बात जिस तरीके से दुर्गा की उत्पत्ति बतायी जा रही है यह तो पूर्णतः अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक है।

खैर.. अब आगे बढ़ते हैं, और देखते हैं कि दुर्गा महिषासुर से कैसे लड़ती है?
इसी पुराण के तीसरे अध्याय मे दुर्गा और महिषासुर के युद्ध का विस्तार से वर्णन है! जब दुर्गा महिषासुर से युद्ध कर रही थी तो क्रोध मे आकर वह बार-बार मधु (मदिरा) पी रही थी, और उसको मदिरा का इतना अधिक प्रभाव हो गया था कि उनकी आँखें लाल हो गयी थी तथा बोलते समय उसकी वाणी भी लड़खड़ा रही थी।

अब ये समझ मे नही आ रहा है कि मदिरा पीकर कौन सा युद्ध हो रहा था?
भला युद्धक्षेत्र मे भी कोई मदिरा पीता है?
वैसे दुर्गा यही नही रुकी, इसी अध्याय के श्लोक-38 मे दुर्गा बोलती हैं-
"गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।।"
अर्थात- हे असुर! जब तक मै मधु पीती हूँ, तब तक तू खूब गरज ले! मेरे हाथों यही तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता भी शीघ्र गर्जना करेंगे।

यह श्लोक अपने-आप मे लम्बी कहानी समेटे हुआ है!
कई लोग कहते हैं कि देवी ने युद्ध मे मदिरा नही मधु पिया था! तो मै कहूँगा कि मधु पीने से किसकी जबान लड़खड़ाती है?
मधु पीने से आँखें क्यों लाल होगी?

ये सम्पूर्ण कहानी कुछ और ही है, लेखकों ने बड़ी चतुराई से सच को दबा दिया है! 
या तो ये कहानी पूर्ण काल्पनिक है, क्योंकि दुर्गा और महिषासुर का जन्म प्राकृतिक नही है! या तो इस कहानी को कुछ दूसरा ही रंग दे दिया गया है!
अभी भी बड़ा सवाल यही है कि यदि महिषासुर आतातायी था तो उसे देवताओं ने क्यों नही मारा, क्यों सर्वशक्तिमान देवों के रहते हुये भी एक महिला को शस्त्र देकर उससे लड़ने भेजा गया?

सोचो, सोचो.....



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ईसा मसीह और शराब का अड्डा
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बाइबिल [ यूहन्ना 2: 1 to 10 ]

ईसा मसीह और उसके कुछ चेले चपाटे गलील नाम के स्थान पर थे, साथ मे ईसा की माँ कुँवारी मरियम भी उन्ही के साथ थी, उन सभी को वहाँ किसी यहूदी की शादी में न्योता मिला था तो सभी शादी में उपस्थित हुए थे।

शादी में महेमनो को शराब पिलाई जा रही थी वह ख़त्म हो गई, ये बात ईसा की माँ कुँवारी मरियम के कानों तक पहोंची, कुँवारी मरीयम ने ये बात ईसा मसीह को कही, ईसा ने कुँवारी मरियम को माँ कहने की बजाय ए औरत संबोधित करते हुए कहा तुजे मुझसे क्या लेना देना, मेरे चमत्कार दिखाने का वक़्त अभी नही आया।

नॉट- (ईसा ने कुँवारी मरियम को माँ कहने की बजाए ए औरत कहकर संबोधित किया, सायद ईसा कुँवारी मरियम को अपनी माँ नही मानता हो ये जानकर की में बिन बाप के जन्मा हु, ऐसा विवरण बाइबिल में और जगह भी मिलता है कभी कोई और पोस्ट में जानेंगे)

फिर भी कुँवारी मरियम ने वहाँ हाज़िर सेवको को आदेश दिया कि ईसा जैसा कहे वैसा करो, ईसा ने मजबूरी में ही सही सेवकों को कहा छे (6) मिट्टी के मटके रखो और उनमें पानी भर दो। सेवकों ने इस ही किया, ईसा ने आदेश दिया कि अब मटके में से पानी निकालकर सभी महेमनो को पिलाओ, जैसे ही शादी में उपस्थित महेमनो ने पानी चखा पानी शराब बन गया था, वो भी उत्तम प्रकार की शराब।

शराबियों ने दूल्हे को बुलाकर बहोत तारीफ़ की, की तूने बहोत अच्छी शराब पिलाई, इसके बाद ईसा और उनके चेले वहाँ से प्रस्थान कर चल देते है, यहाँ ईसा के शराब पीने का उल्लेख नही मिलता, पर हम अंदाज़ा लगा सकते है कि ईसा ने भी शराब पी होगी, क्योंकि ईसाइयों में शराब पीना सुन्नत है, ईसाई परिवारों में औरतो सहित साथ मे बैठकर शराब पीने का चलन देखने मिलता है, ईसाइयों के शुभ प्रसंगों में शराब पिलाई जाती है, चर्च में भी के ईसाई शराब लेकर जाते है।

ये ईसा का अपने जीवन का पहला ही चमत्कार था।

बाइबिल में है कि परमेश्वर ने ईसा को संसार का उद्धार करने के लिए भेजा था, अब यहाँ सवाल ये उठता है, शादी में शराब ख़त्म हो गई थी, तो चमत्कार के ज़रिए पानी को शराब बनाकर लोगो को क्यो पिलाई? शराब पिलाक़र लोगो को नशे की आदत लगाकर कोनसा उद्धार किया, ना जाने अभी तक संसार के कितने लोगों के घर, परिवार, कुल, समाज, बर्बाद और नष्ट हो गए इस शराब की वजह से आज भी हो रहे है।

चमत्कार दिखाना ही था, लोगो का उद्धार करना ही था, अपने को परमेश्वर का पुत्र साबित करना ही था तो उस शादी में लोगो को हिदायत देता की अच्छा हुआ शराब ख़त्म हो गई, ये पीना बहोत बुरी चीज़ है, इससे दूर रहना ही बहेतर है, आगे से कोई भी शराब को नही पीना, फिर पानी से भरे मटके में कुछ जड़ीबूटी डालकर औषधि बनाकर लोगो को पिला देता की उनमें से जिसको जो भी रोग हो ठीक हो जाए, चमत्कार के नाम पर इस तरह भी तो लोगो का उद्धार कर सकता था....!!!

#Expose_Church
#Expose_Missionaries
#Expose_Christianity
#Church_Crimes
#बबूला_भक्ता


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नवरात्रि लगभग खत्म हो रही है, उसके बाद नौ-दिनों तक आस्था की केन्द्र बनी दुर्गा की मूर्तियों को नजदीकी नदियों/नहरों मे फेंक दिया जायेगा! 
खैर... यह सतत प्रकृया है, पर दुर्गा को लेकर अभी भी सवाल वही है कि दुर्गा आखिर कौन थी?

पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि महिषासुर के पास न तो कोई चमात्कारी वरदान था और न ही कोई विलक्षण शक्ति, फिर आखिर उसे विष्णु या शिव ने क्यों नही मार दिया?
एक महिला दुर्गा ही क्यों उसे मारती है?

मार्कण्डेयपुराण शाक्त-सम्प्रदाय का मुख्य पुराण है! इसी पुराण से दुर्गा-सप्तशती लिखी गयी है! पिछले एक सप्ताह से मै दुर्गा के बारे मे खोजते-खोजते इसी पुराण तक पहुँचा! इस पुराण के देवी माहत्म्य द्वितीयोऽध्याय मे दुर्गा की उत्पत्ति की कथा है! वैसे तो यह कथा भी पूर्णतः काल्पनिक ही है, फिर भी मै आप लोगों को बता देता हूँ।
कथानुसार महिषासुर ने तमाम देवताओं को हराकर स्वर्ग से बाहर खदेड़ दिया! तब सारे देवता ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पास आये और अपना विधवा-विलाप करने लगे। फिर सभी देवताओं ने महिषासुर को मारने के लिये अपने-अपने तेज से एक देवी को प्रकट किया। शंकर के तेज से देवी का मुख, विष्णु के तेज से भुजाऐं, यम के तेज से बाल, चन्द्र के तेज से दोनो स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से पुष्ठ, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से अंगुलियाँ, कुबेर के तेज से नाक, प्रजापति के तेज से दांत, अग्नि के तेज से आँखें, और वायु के तेज से उस देवी के कान बने! यही देवी पुराणों मे 'दुर्गा' के नाम से विख्यात हुई! फिर सारे देवताओं ने उस देवी को अपने-अपने अस्त्र देकर महिषासुर से लड़ने के लिये भेजा।

अब यहाँ सवाल यह बनता है कि इतने सारे देवता थे! स्वयं सर्व-शक्तिमान शिव और विष्णु भी थे, फिर आखिर ये सब महिषासुर से लड़ने क्यों नही गये?
क्यों सबने एक महिला को भेजा?
दूसरी बात जिस तरीके से दुर्गा की उत्पत्ति बतायी जा रही है यह तो पूर्णतः अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक है।

खैर.. अब आगे बढ़ते हैं, और देखते हैं कि दुर्गा महिषासुर से कैसे लड़ती है?
इसी पुराण के तीसरे अध्याय मे दुर्गा और महिषासुर के युद्ध का विस्तार से वर्णन है! जब दुर्गा महिषासुर से युद्ध कर रही थी तो क्रोध मे आकर वह बार-बार मधु (मदिरा) पी रही थी, और उसको मदिरा का इतना अधिक प्रभाव हो गया था कि उनकी आँखें लाल हो गयी थी तथा बोलते समय उसकी वाणी भी लड़खड़ा रही थी।

अब ये समझ मे नही आ रहा है कि मदिरा पीकर कौन सा युद्ध हो रहा था?
भला युद्धक्षेत्र मे भी कोई मदिरा पीता है?
वैसे दुर्गा यही नही रुकी, इसी अध्याय के श्लोक-38 मे दुर्गा बोलती हैं-
"गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।।"
अर्थात- हे असुर! जब तक मै मधु पीती हूँ, तब तक तू खूब गरज ले! मेरे हाथों यही तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता भी शीघ्र गर्जना करेंगे।

यह श्लोक अपने-आप मे लम्बी कहानी समेटे हुआ है!
कई लोग कहते हैं कि देवी ने युद्ध मे मदिरा नही मधु पिया था! तो मै कहूँगा कि मधु पीने से किसकी जबान लड़खड़ाती है?
मधु पीने से आँखें क्यों लाल होगी?

ये सम्पूर्ण कहानी कुछ और ही है, लेखकों ने बड़ी चतुराई से सच को दबा दिया है! 
या तो ये कहानी पूर्ण काल्पनिक है, क्योंकि दुर्गा और महिषासुर का जन्म प्राकृतिक नही है! या तो इस कहानी को कुछ दूसरा ही रंग दे दिया गया है!
अभी भी बड़ा सवाल यही है कि यदि महिषासुर आतातायी था तो उसे देवताओं ने क्यों नही मारा, क्यों सर्वशक्तिमान देवों के रहते हुये भी एक महिला को शस्त्र देकर उससे लड़ने भेजा गया?

सोचो, सोचो.....






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नवरात्रि के त्योहार आ रहे हैं, अब जगह-जगह भव्य पंडाल सजाये जायेंगे, और वहाँ जोर-जोर से "जय महिषासुर मर्दिनी" के जयकारे लगाये जायेंगे!
इन पंडालों मे एक प्रतिमा लगायी जायेगी, जिसमे शेर पर आरूढ़ एक गोरी-चिट्टी सुन्दर आर्य महिला (दुर्गा) एक काले-कलूटे विकृत आदिवासी (महिषासुर) के सीने मे त्रिशूल भोंपकर उसका वध करती हुई दिखाई देगी।

नवरात्रि इसीलिये मनायी जाती है क्योंकि मान्यता है कि दुर्गा ने इसी नौ दिनों मे युद्ध करके महिषासुर का वध किया था!
विचारणीय बात यह है कि आखिर इस बात के क्या ऐतिहासिक प्रमाण है कि कोई दुर्गा थी, या कोई महिषासुर था!

मुझे तो ये पूरी कहानी काल्पनिक सी लगती है! दुर्गा का कोई अता-पता नही कि किसकी पुत्री थी, कहाँ से आयी और कहाँ चली गयी?
महिषासुर के बारे मे भी जो जानकारी है, वह मिथक ही प्रतीत होती है!
चलिये आज पहले महिषासुर के बारे मे जानते हैं-
देवीपुराण के पाँचवें स्कन्द मे एक कथा आती है कि असुरों के राजा रम्भ को अग्निदेव ने वर दिया कि तुम्हे एक पराक्रमी पुत्र पैदा होगा!
एक दिन रम्भ विचरण कर रहा था तो उसने एक जवान मदमस्त भैंस देखी, रम्भ का मन उस भैंस पर आ गया और उसने उससे सहवास किया! कालान्तर मे रम्भ के वीर्य से गर्भित होकर उसी भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया!

कुछ दिनों बाद जब वह भैंस घास चर रही थी तो अचानक एक भयंकर भैसा कही आ गया, और वह उस भैंस से मैथुन करने के लिये उसकी ओर दौड़ा...
रम्भ भी वहीं था, उसने देखा कि एक भैसा मेरी भैंस से 'मुँह पीला' (चूँकि भैस का मुँह पहले ही काला होता है) करने का प्रयास कर रहा था! उसकी गैरत जाग गयी और वह भैंसे से भिड़ गया।
फिर क्या था, उस भैसे की नुकीली सींगों से रम्भ मारा गया, और जब रम्भ के सेवकों ने उसके शव को चिता पर लेटाया तो उसकी बीवी पतिव्रता भैंस भी चिता पर चढ़कर रम्भ के साथ सती हो गयी।
मुझे तो यह सोचकर भी आश्चर्य होता है कि किसी जमाने मे भारत मे इतनी पतिव्रता भैंस भी हुआ करती थी जो अपने पति के साथ आत्मदाह कर लेती थी।
खैर... ऐसे ही पैदा हुआ पंडों का कल्पित चरित्र महिषासुर। (चित्र-1-4)

महिषासुर से सम्बन्धित एक दूसरी कथा वराहपुराण अध्याय-95 मे भी मिलती है, जो निम्न है-
विप्रचित नामक दैत्य की एक सुन्दर कन्या थी माहिष्मती! माहिष्मती मायावी-शक्ति से वेष बदलना जानती थी! एक दिन वह अपनी सखियों के साथ घूमती हुई एक पर्वत की तराई मे आ गयी, जहाँ एक सुन्दर उपवन था और एक ऋषि (सुपार्श्व) वहीं तप कर रहे थे।
माहिष्मती उस मनोहर उपवन मे रहना चाहती थी, उसने सोचा कि इस ऋषि को डराकर भगा दूँ और अपनी सखियों के साथ यहाँ कुछ दिन विहार करूँ!
यही सोचकर माहिष्मती ने एक भैंस का रूप धारण किया और सुपार्श्व ऋषि को पास आकर उन्हे डराने लगी! ऋषि ने अपनी योगशक्ति से सत्य को जान लिया और माहिष्मती को श्राप दिया कि तू भैंस का रूप धारण करके मुझे डरा रही है तो जाऽऽ... मै तुझे श्राप देता हूँ कि तू सौ वर्षों तक इसी भैंस-रूप मे रहेगी!

अब माहिष्मती भैंस बनकर नर्मदा तट पर रहने लगी! वहीं नजदीक सिन्धुद्वीप नामक एक ऋषि तप करते थे। एक दिन जब ऋषि स्नान करने के लिये नर्मदा नदी के तट पर गये तो उन्होने देखा कि वहाँ एक सुन्दर दैत्यकन्या इन्दुमती नंगी होकर स्नान कर रही थी! उसे नग्नावस्था मे देखकर ऋषि का जल मे ही वीर्यपात हो गया! माहिष्मती ने उसी जल को पी लिया, जिससे वह गर्भवती हो गयी और कुछ महीनों बाद इसी माहिष्मती भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया!  (चित्र-5-7)

महिषासुर की कथा केवल इन्ही दो पुराणों मे मिलती है, और दोनो के अनुसार वह भैंस के पेट से पैदा हुआ।
अब कम से कम मेरी साधारण बुद्धि तो यह मानने को तैयार नही कि एक भैंस किस इंसान के भ्रूण को जन्म दे सकती है! अतः इससे स्पष्ट है कि पौराणिक कहानी तो पूरी तरह से काल्पनिक है।
अब बड़ा सवाल यह होता है कि क्या महिषासुर काल्पनिक है!
इतिहासकारों ने भी महिषासुर पर अलग-अलग राय दी है!
कोसम्बी कहते थे कि वह म्हसोबा (महोबा) का था, तो मैसूर के निवासी कहते हैं कि मैसूर का पुराना नाम ही महिष-असुर ही था! मैसूर मे महिषासुर की एक विशालकाय प्रतिमा भी है।

रही बात दुर्गा की तो उनके बारें मे भी पढ़े तो कुछ अता-पता नही चलता!
एक पुराण कहता है कि दुर्गा कात्यायन ऋषि की पुत्री थी।
दूसरा कहता है कि दुर्गा मणिद्वीप मे रहने वाली जगदम्बा ही थी।
यही नही.. कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह चोलवंश की राजकुमारी थी।

अगर दुर्गा को जानने के लिये देवीपुराण पढ़ो तो पूरी पौराणिक-मान्यताऐं ही पलट जाती है!
देवीपुराण मे लिखा है कि अब तक राम-कृष्ण समेत जितने भी अवतार हुये हैं, वह सब दुर्गा के थे, विष्णु के नही! बल्कि यह पुराण तो कहता है कि विष्णु भी दुर्गा की प्रेरणा से ही जन्मे! दुर्गा चालीसा मे भी नरसिंह अवतार दुर्गा का कहा गया है। ये निम्न चौपाई देखें-
"धरा रूप नरसिंह को अम्बा।
प्रकट भई फाड़ कर खम्बा।।
रक्षा करि प्रहलाद बचायो।
हिरनाकुश को स्वर्ग पठायो।।"

जहाँ तक मेरा मानना है तो यह कथा पाखण्ड ही हैं और दुर्गा को प्रतिष्ठित करना या पूजना बेकार मे समय की बर्बादी के अलावा और कुछ नही है! 
वैसे भी जो गलती हमारे पूर्वजों ने अज्ञानतावश की है, उसे हम परम्परा मानकर आखिर कब तक दोहरा रहेंगे।






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इस देश की पिछड़ी जातियों में शुमार अहीर व यादव कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं। इस जाति के बीच कृष्ण का नायकत्व ऐसा है कि अहीर और कृष्ण पर्यायवाची बन गए हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में इस यादव नायक का नाम कृष्ण, श्याम, गोपाल आदि आया है, जो यादवों के शारीरिक रंग एवं व्यवसाय से मेल खाने वाला है। बहुसंख्यक यादव सांवले या काले होते हैं, जो कि इस देश के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों का रंग है, के होंगे, तो निश्चय ही इनके महामानव या नायक का नाम कृष्ण या श्याम होगा, जिसका शाब्दिक अर्थ काला, करिया या करियवा होगा। देश एवं हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था सवर्ण-अवर्ण या काले-गोरे के आधार पर बनी है।

आर्यों और अनार्यों के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक 'आर्य संस्कृति की खोज' का यह अंश उल्लेखनीय है: ''1800 ईसा पूर्व के बाद छोटी-छोटी टोलियों में आर्यों ने भारतवर्ष में प्रवेश किया। ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है। ईरान शब्द का संबंध आर्य शब्द से है। ऋग्वैदिक काल में इंद्र की पूजा करने वाले आर्य कहलाते थे। ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति है। जिन लोगों से वे लड़ते थे उनको काले रंग का बतया गया है। आर्यों को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों के घरों में आग लगा देते थे। आर्यों के देवता सोम के विषय में कहा गया है कि वह काले लोगों की हत्या करता था। उत्तर-वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से उन तीन वर्णों का बोध होता था जो द्विज कहलाते थे। शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं रखा जाता था। आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र।'' 

इंद्र विरुद्ध कृष्ण

हिंदुओं के प्रमुख धर्मग्रंथ ऋग्वेद का मूल देवता इंद्र है। इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं। इंद्र और कृष्ण का मतांतर एवं युद्ध सर्वविदित है। प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में वेदव्यास ने कृष्ण को विजेता बताया है तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है। इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है। इस युद्ध में कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध किया जाता है, जिससे कुपित इंद्र अतिवृष्टि कर मथुरावासियों को डुबोने पर आमादा हैं। कृष्ण गोवर्धन पर्वत के जरिए अपने लोगों को इंद्र के कोप से बचा लेते हैं। इंद्र थककर पराजय स्वीकार कर लेता है। इस संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी आमने-सामने युद्ध नहीं होता है लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है। 

ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि - ''हे इंद्र! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं। अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं। इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी। इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया। इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला।'' 

ऋग्‍वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि: ''गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला। वे कामवर्णी दाएं हाथ में बज्र धारण करते हैं। रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं।'' 

इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी ऋणता को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13,14,15 और 17 को भी देखना चाहिए (मूल संस्कृत श्लोक देखें शांति कुंज प्रकाशन, गायत्री परिवार, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित वेद में) 

ऋगवेद के श्लोक 13: शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था। इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया। 

श्लोक 14: इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है। हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं। तुम यु़द्ध में उसे मारो। 

श्लोक 15: तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था। इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया। 

श्लोक 17: हे बज्रधारी इंद्र! तुमने वह कार्य किया है। तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया। तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं। ( अनुवाद-वेद, विश्व बुक्स, दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली) 

क्या कृष्ण और यादव असुर थे?

ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान शायद नहीं गया होगा। यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता। वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थीं। वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थीं। अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था और वह भी काले रंग एवं गाय वाला था। उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था। 

यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इंद्र से विरोध था। दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे। वेद में कृष्ण एवं इंद्र का यमुना के तीरे युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, शम्बूक, बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामंडित किया जाना। इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया। इसी भ्रामक प्रचार का प्रतिफल है कि बहुजनों से उनके पुरखों को बुरा कहते हुए उनकी छल कर हत्या करने वालों की पूजा करवाई जा रही है।

यदुवंशी कृष्ण के असुर नायक या इस देश के अनार्य होने के अनेक प्रमाण आर्यों द्वारा लिखित इतिहास में दर्ज है। आर्यों ने अपने पुराण, स्मृति आदि लिखकर अपने वैदिक या ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया है। पद्म पुराण में कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध एवं राजा बलि की पौत्री उषा के विवाह का प्रकरण पढ़ने को मिलता है। कृष्ण के पौत्र की पत्नी उषा के पिता का नाम बाणासुर था। बाणासुर के पूर्वज कुछ यूं थे-असुर राजा दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप के पुत्र विरोचन के पुत्र बलि के पुत्र बाणासुर थे। उषा का यदुकुल श्रेष्ठ कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया। अनिरुद्ध अपनी प्रेमिका उषा से मिलने बाणासुर के महल में चले गए। बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध के अपने महल में मिलने की सूचना पर अनिरुद्ध को पकड़कर बांधकर पीटा गया। 

इस बात की जानकारी होने पर अनिरुद्ध के पिता प्रद्युम्न और वाणासुर में घमासान हुआ। जब बाणासुर को पता चला कि उनकी पुत्री उषा और अनिरुद्ध आपस में प्रेम करते हैं तो उन्होंने युद्ध बंद कर दोनों की शादी करा दी। इस तरह से कृष्ण और असुर राज बलि एवं बाणासुर और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न आपस में समधी हुए। अब सवाल उठता है कि यदि कृष्ण असुर कुल यानी इस देश के मूल निवासी नहीं होते तो उनके कुल की बहू असुर कुल की कैसे बनती? श्रीकृष्ण और राजा बलि दोनों के दुश्मन इंद्र और उपेंद्र आर्य थे। कृष्ण ने इंद्र से लड़ाई लड़ी तो बालि ने वामन रूपधार उपेंद्र (विष्णु) बलि से। राजा बलि के संदर्भ में आर्यों ने जो किस्सा गढ़ा है वह यह है कि राजा बलि बड़े प्रतापी, वीर किंतु दानी राजा थे। आर्य नायक विष्णु आदि राजा बलि को आमने-सामने के युद्ध में परास्त नहीं कर पा रहे थे, सो विष्णु ने छल करके राजा बलि की हत्या की योजना बनाई। 

विष्णु वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। महादानी एवं महाप्रतापी राजा बलि राजी हो गए। पुराण कथा के मुताबिक वामन वेशधारी विष्णु ने एक पग में धरती, एक पग में आकाश तथा एक पग में बलि का शरीर नापकर उन्हें अपना दास बनाकर मार डाला। कुछ विद्वान कहते हैं कि वामन ने राजा बलि के सिंहासन को दो पग में मापकर कहा कि सिंहासन ही राजसत्ता का प्रतीक है इसलिए हमने तुम्हारा सिंहासन मापकर संपूर्ण राजसत्ता ले ली है। एक पग जो अभी बाकी है उससे तुम्हारे शरीर को मापकर तुम्हारा शरीर लूंगा। महादानी राजा बलि ने वचन हार जाने के कारण अपनी राजसत्ता वामन विष्णु को बिना युद्ध किए सौंप दी तथा अपना शरीर भी समर्पित कर दिया। वामन वेशधारी विष्णु ने एक लाल धागे से हाथ बांधकर राजा बलि को अपने शिविर में लाकर मार डाला। इस लाल धागे से हाथ बांधते वक्त विष्णु ने बलि से कहा था कि तुम बहुत बलवान हो, तुम्हारे लिए यह धागा प्रतीक है कि तुम हमारे बंधक हो। तुम्हें अपने वचन के निर्वाह हेतु इस धागा को हाथ में बांधे रखना है। 

हजारों वर्ष बाद भी इस लाल धागे को इस देश केमूल निवासियों के हाथ में बांधने का प्रचलन है जिसे रक्षासूत्र या कलावा कहते हैं। इस रक्षासूत्र या कलावा को बांधते वक्त पुरोहित उस हजार वर्ष पुरानी कथा को श्लोक में कहता है कि : 'येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामि प्रतिबद्धामि रक्षे मा चल मा चल।'  (अर्थात् जिस तरह हमने दानवों के महाशक्तिशाली राजा बलि को बांधा है उसी तरह हम तुम्हें भी बांधते हैं। स्थिर रह, स्थिर रह।) 

पुराणों के प्रमाण

दरअसल, इन पौराणिक किस्सों से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण, राजा बलि, राजा महिषासुर, राजा हिरण्यकश्यप आदि से विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर इस देश के मूल निवासियों पर अपनी आर्य संस्कृति थोपने के लिए संग्राम किया था। इंद्र एवं विष्णु आर्य संस्कृति की धुरी हैं तो कृष्ण और बलि अनार्य संस्कृति की। 

बहरहाल, कृष्ण को क्षत्रिय या आर्य मानने वाले लोगों को कृष्ण काल से पूर्व राम-रावण काल में भी अपनी स्थिति देखनी चाहिए। महाकाव्यकार वाल्मीकि ने रामायण में भी यादवों को पापी और लुटेरा बताया है तथा राम द्वारा किए गए यादव राज्य दु्रमकुल्य के विनाश को दर्शाया है।

वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के 22वें अध्याय में राम एवं समुद्र का संवाद है। राम लंका जाने हेतु समुद्र से कहते हैं कि तुम सूख जाओ, जिससे मैं समुद्र पार कर लंका चला जाऊं। समुद्र राम को अपनी विवशता बताता है कि मैं सूख नहीं सकता तो राम कुपित होकर प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लेते हैं। समुद्र राम के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें नल-नील द्वारा पुल बनाने की राय देता है। राम समुद्र की राय पर कहते हैं कि वरुणालय मेरी बात सुनो। मेरा यह यह वाण अमोध है। बताओ इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए। राम की बात सुनकर समुद्र कहता है कि 'प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर दु्रमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा पवित्र देश है, वहां आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता, श्रीराम! आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए। महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के बताए अनुसार उसी देश में वह अत्यंत प्रज्जवलित वाण छोड़ दिया। वह वाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस वाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।'    

राम-रावण काल में यादवों के राज्य दु्रमकुल्य को समुद्र द्वारा पवित्र बताने तथा वहां निवास करने वाले यादवों को पापी एवं भयानक कर्म वाला लुटेरा कहने से सिद्ध हो जाता है कि यादव न आर्य हैं और न क्षत्रिय, अन्यथा वाल्मीकि और समुद्र इन्हें पापी नहीं कहते। जिस तरह से इस देश में दलितों को तालाब, कुओं आदि से पानी पीने नहीं दिया जाता था और डॉ. आम्बेडकर को महाड़ तालाब आंदोलन करना पड़ा, क्या उससे भी अधिक वीभत्स घटना यादवों के दु्रमकुल्य राज्य के साथ घटित नहीं हुई है? रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि आभीर यवन, किरात खस, स्वचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, मुसलमान, बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयोनि हैं। इसी प्रकार व्यास स्मृति का रचयिता एक श्लोक में कहता है कि 'बढ़ई, नाई, ग्वाला, चमार, कुम्भकार, बनिया, चिड़ीमार, कायस्थ, माली, कुर्मी, भंगी, कोल और चांडाल ये सभी अपवित्र हैं। इनमें से एक पर भी दृष्टि पड़ जाए ता सूर्य दर्शन करने चाहिए तब द्धिज जाति अर्थात् बड़ी जातियों का एक व्यक्ति पवित्र होता है।' 

सहमत हैं इतिहासविद्  

इसी कारण महान इतिहासकार डीडी कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता' में लिखा है-'ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इंद्र का शत्रु बताया गया है और उसका नाम श्याम, आर्य पूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूल आधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का देवता था। परंतु सूक्तकारों ने पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण शाश्वत भी हैं और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन अहीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे और जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। कृष्ण गोरक्षक था, जिन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी, उनमें कृष्ण का कभी आह्वान नहीं हुआ है, जबकि इंद्र, वरुण तथा अन्य वैदिक देवताओं का सदैव आह्वान हुआ है। ये लोग अपने पैतृक कुलदेवता को चाहे जिस चीज की बलि भेंट करते रहे हों पर दूसरे कबीलों द्वारा उनकी इस प्रथा को अपनाने का कोई कारण नहीं था। दूसरी तरफ जो पशुचर लोग कृषि जीवन को अपना रहे थे, उन्हें इंद्र की बजाय कृष्ण को स्वीकार करने में निश्चित ही लाभ था। सीमा प्रदेश के उच्च वर्ग के लोग गौरवर्ण के थे। उनका मत था कि काला आदमी बाजार में लगाए गए काले बीजों के ढेर की भांति है और उसे शायद ही कोई ब्राह्मण समझने की भूल कर सकता है। कन्या का मूल्य देकर विवाह करने का पश्चिमोत्तर में जो रिवाज था, वह भी पूर्ववासियों को विकृत प्रतीत होता था। कन्या हरण की प्रथा थी, जिसका महाभारत के अनुसार कृष्ण के कबीले में प्रचलन था और ऐतिहासिक अहीरों ने भी जिसे चालू रखा और जो पूर्ववासियों को विकृत लगती थी। अंततोगत्वा ब्राह्मण धर्मग्रंथों ने इन दोनों प्रकार के विवाहों को अनार्य प्रथा में कहकर निषिद्ध घोषित कर दिया।' 

डीडी कौशाम्बी अपनी पुस्तक में स्पष्ट करते हैं कि कृष्ण आर्यों की पशु बलि के सख्त विरोधी थे यानी गोरक्षक थे। कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन द्वारा भगाकर शादी करने का उल्लेख् मिलता है। इस प्रकार कौशाम्बी ने भी कृष्ण को अनार्य अर्थात् असुर माना है।

इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक 'खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर' में लिखा है कि 'क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के देवता इंद्र और ब्राह्मणों के साधक यज्ञानुष्ठानों के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया। उन्होंने उसे जो क्षत्रिय भी न था, यद्यपि क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहा था को विष्णु का अवतार माना और अधिकतर क्षत्रिय ही उस देव दुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गए।' 

उपाध्याय ने इसे भी स्पष्ट कर दिया है कि कृष्ण ब्राह्मणों के देवता इंद्र और उनके यज्ञानुष्ठानों के प्रबल विरोधी थे जबकि वे क्षत्रिय नहीं थे। कृष्ण के बारे में उपाध्याय ने लिखा है कि वे क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहे थे। अब तक जो भी प्रमाण मिले हैं वे यही सिद्ध करते हैं कि अहीर और कृष्ण आर्यजन नहीं थे। कृष्ण और अहीर इस देश के मूलनिवासी काले लोग थे। इनका आर्यों से संघर्ष चला है।

ऋग्वेद कहता है कि 'निचुड़े हुए, गतिशील, तेज चलने वाले व दीप्तिशाली सोम काले चमड़े वाले लोगों को मारते हुए घूमते हैं, तुम उनकी स्तुति करो।' (मंडल 1 सूक्त 43)

इस आशय के अनेक श्लोक ऋग्वेद में हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग भारत के मूल निवासियों से किस हद तक नफरत करते थे तथा उन्होंने चमड़ी के रंग के आधार पर इनकी हत्याएं की हैं। यादवश्रेष्ठ कृष्ण काली चमड़ी वाले थे। इंद्र और यज्ञ विरोधी होने के लिहाज से ऋग्वेद के अनुसार उनका संघर्ष अग्नि, सोम, इंद्र आदि से होना स्वाभाविक है।

जिनसे जीत नहीं सकते उन्हें अपने में मिला लो

ऋग्वेद से लेकर तमाम शास्त्रों में अहीर व अहीर नायक कृष्ण अनार्य कहे गए हैं लेकिन इसके बावजूद जब इस देश के मूल निवासियों में कृष्ण का प्रभाव कायम रहा तो इन आर्यों ने कृष्ण के साथ नृशंसता बरतने के बावजूद उन्हें भगवान बना दिया और कृष्णवंशीय बहादुर जाति को अपने सनातन पंथ का हिस्सा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली। 

जब कृष्ण अनार्य थे तो गीतोपदेश का सवाल उठना लाजिमी है। गीतोपदेश में कृष्ण ने खुद भगवान होने, ब्राह्मण श्रेष्ठता, वर्ण व्यवस्था बनाने जैसे अनेक गले न उतरने वाली बातें कही हैं। ऋग्वेद स्वयं ही गीता में उल्लेखित बातों का खंडन करता है। जब कृष्ण खुद वेद के अनुसार असुर और इंद्रद्रोही थे तो वे वर्ण व्यवस्था को बनाने की बात कैसे कर सकते हैं। गीता में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाने वाली जो भी बातें कृष्ण के मुंह से कहलवाई गई हैं वे सत्य से परे हैं। काले, अवर्ण असुर कृष्ण कभी भी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक नहीं हो सकते। भारत के मूल निवासियों में अमिट छाप रखने वाले कृष्ण का आभामंडल इतना विस्तृत था कि आर्यों को मजबूरी में कृष्ण को अपने भगवानों में सम्मिलित करना पड़ा। यह कार्य ठीक उसी तरह से किया गया जिस तरह से ब्राह्मणवाद के खात्मा हेतु प्रयत्नशील रहे गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने गरुड़ पुराण में कृष्ण का अवतार घोषित कर खुद में समाहित करने की चेष्टा की। 

जिस तरह से असुर कृष्ण की भारतीय संस्कृति आर्यों ने उदरस्थ कर ली उसी तरह बुद्ध की वैज्ञानिक बातों ने हिन्दू धर्म के अवैज्ञानिक कर्मकांडों के समक्ष दम तोड़ दिया। डॉ. आम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अब भारत में कुछ बौद्ध नज़र आ रहे हैं, वरना इन आर्यों ने बुद्ध को कृष्ण का अवतार और कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर कृष्ण एवं बुद्ध को निगल लिया था। कैसी विडंबना है कि विष्णु का अवतार जिस कृष्ण को बताया गया है, वह कृष्ण लगातार वेद से लेकर महाभारत ग्रंथ में इंद्र से लड़ रहा है। 

एक सवाल उठेगा कि यदि कृष्ण आर्य या क्षत्रिय नहीं थे तो श्रीमद्भागवद गीता में क्यों लिखा है कि 'यदुवंश का नाम सुनने मात्र से सारे पाप दूर हो जाते हैं।' (स्कंध-9. अध्याय. 23, लोक.19) मैं इस संदर्भ में यही कहूंगा कि असुर कृष्ण अति लोकप्रिय थे। वे लोकनायक थे। उनकी लोकप्रियता इस देश के मूल निवासियों में इतनी प्रबल थी कि आर्य उन्हें उनके मन से निकाल पाने में सफल नहीं थे। 

बहरहाल, मैंने कृष्ण और यादवों संदर्भ में कुछ तथ्य विभिन्न स्रोतों से एकत्रित कर तरल पाठकों के समक्ष बहस हेतु रखा है। मैं यह सवाल अब पाठकों के लिए छोड़ रहा हूं कि कृष्ण कौन थे? किस वर्ण के हैं? मैं समझता हूं कि ये प्रश्न अब अनुत्तरित नहीं रह गए हैं।

लेखक चंद्रभूषण सिंह यादव, यादव समाज की प्रमुख पत्रिका 'यादव शक्ति' के प्रधान संपादक हैं। यह लेख 'फारवर्ड प्रेस' के अगस्‍त, 2014 की कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ है।





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मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...