इन दिनों हर हफ्ते एक-दो मामले ऐसे जरूर आ रहे हैं जब गोमांस (Beef) के कारण किसी ना किसी को मारा जा रहा है!
क्या अब इस देश मे गाय इंसान से अधिक कीमती हो गयी है?
खैर मेरा एक सवाल है कि अगर गोहत्या करने वाला या गोमांस खाने वाला वध करने योग्य है तो नरभक्षी या मानवमांस खाने वाले के साथ क्या करना चाहिये!
श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के पाँचवे स्कन्ध के अध्याय-28/29 (पृष्ठ-376-377) मे लिखा है कि जब देवी दुर्गा (चामुण्डा) असुरों से युद्ध कर रहीं थी तो उन्होने राक्षसों के रुधिर (खून) पिऐ और मृत असुरों के मांस तक खा डाले!
अब इन्ही देवी माँ को सनातनी सात्विक मानकर पूजते है...,माला,फूल और नारियल चुनरी चढ़ाते हैं!
जबकि पुराण मे साफ लिखा है कि इन्होनो मांस खाये......... तो इन्हे सेब,केला और नारियल क्यों चढ़ाया जाता है?
वाह भाई सनातनियों गोमांस खाने वाले को जान से मार रहे हो, और मानवमांस खाने वाले को धूप-दीप से पूज रहे हो..... इन्ही देवी के नाम पर नौ दिन व्रत करते हो!
मेरे इस प्रमाण को कोई इनकार भी नही सकता, क्योकि इस पुराण को नकारने से देवी दुर्गा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा, जो भी इस पुराण को नही मानता उसे देवी दुर्गा को भी नही मानना चाहिऐ.......
देवी दुर्गा का किरदार इसी पुराण की देन है!
■■■
नवरात्रि लगभग खत्म हो रही है, उसके बाद नौ-दिनों तक आस्था की केन्द्र बनी दुर्गा की मूर्तियों को नजदीकी नदियों/नहरों मे फेंक दिया जायेगा!
खैर... यह सतत प्रकृया है, पर दुर्गा को लेकर अभी भी सवाल वही है कि दुर्गा आखिर कौन थी?
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि महिषासुर के पास न तो कोई चमात्कारी वरदान था और न ही कोई विलक्षण शक्ति, फिर आखिर उसे विष्णु या शिव ने क्यों नही मार दिया?
एक महिला दुर्गा ही क्यों उसे मारती है?
मार्कण्डेयपुराण शाक्त-सम्प्रदाय का मुख्य पुराण है! इसी पुराण से दुर्गा-सप्तशती लिखी गयी है! पिछले एक सप्ताह से मै दुर्गा के बारे मे खोजते-खोजते इसी पुराण तक पहुँचा! इस पुराण के देवी माहत्म्य द्वितीयोऽध्याय मे दुर्गा की उत्पत्ति की कथा है! वैसे तो यह कथा भी पूर्णतः काल्पनिक ही है, फिर भी मै आप लोगों को बता देता हूँ।
कथानुसार महिषासुर ने तमाम देवताओं को हराकर स्वर्ग से बाहर खदेड़ दिया! तब सारे देवता ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पास आये और अपना विधवा-विलाप करने लगे। फिर सभी देवताओं ने महिषासुर को मारने के लिये अपने-अपने तेज से एक देवी को प्रकट किया। शंकर के तेज से देवी का मुख, विष्णु के तेज से भुजाऐं, यम के तेज से बाल, चन्द्र के तेज से दोनो स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से पुष्ठ, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से अंगुलियाँ, कुबेर के तेज से नाक, प्रजापति के तेज से दांत, अग्नि के तेज से आँखें, और वायु के तेज से उस देवी के कान बने! यही देवी पुराणों मे 'दुर्गा' के नाम से विख्यात हुई! फिर सारे देवताओं ने उस देवी को अपने-अपने अस्त्र देकर महिषासुर से लड़ने के लिये भेजा।
अब यहाँ सवाल यह बनता है कि इतने सारे देवता थे! स्वयं सर्व-शक्तिमान शिव और विष्णु भी थे, फिर आखिर ये सब महिषासुर से लड़ने क्यों नही गये?
क्यों सबने एक महिला को भेजा?
दूसरी बात जिस तरीके से दुर्गा की उत्पत्ति बतायी जा रही है यह तो पूर्णतः अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक है।
खैर.. अब आगे बढ़ते हैं, और देखते हैं कि दुर्गा महिषासुर से कैसे लड़ती है?
इसी पुराण के तीसरे अध्याय मे दुर्गा और महिषासुर के युद्ध का विस्तार से वर्णन है! जब दुर्गा महिषासुर से युद्ध कर रही थी तो क्रोध मे आकर वह बार-बार मधु (मदिरा) पी रही थी, और उसको मदिरा का इतना अधिक प्रभाव हो गया था कि उनकी आँखें लाल हो गयी थी तथा बोलते समय उसकी वाणी भी लड़खड़ा रही थी।
अब ये समझ मे नही आ रहा है कि मदिरा पीकर कौन सा युद्ध हो रहा था?
भला युद्धक्षेत्र मे भी कोई मदिरा पीता है?
वैसे दुर्गा यही नही रुकी, इसी अध्याय के श्लोक-38 मे दुर्गा बोलती हैं-
"गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।।"
अर्थात- हे असुर! जब तक मै मधु पीती हूँ, तब तक तू खूब गरज ले! मेरे हाथों यही तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता भी शीघ्र गर्जना करेंगे।
यह श्लोक अपने-आप मे लम्बी कहानी समेटे हुआ है!
कई लोग कहते हैं कि देवी ने युद्ध मे मदिरा नही मधु पिया था! तो मै कहूँगा कि मधु पीने से किसकी जबान लड़खड़ाती है?
मधु पीने से आँखें क्यों लाल होगी?
ये सम्पूर्ण कहानी कुछ और ही है, लेखकों ने बड़ी चतुराई से सच को दबा दिया है!
या तो ये कहानी पूर्ण काल्पनिक है, क्योंकि दुर्गा और महिषासुर का जन्म प्राकृतिक नही है! या तो इस कहानी को कुछ दूसरा ही रंग दे दिया गया है!
अभी भी बड़ा सवाल यही है कि यदि महिषासुर आतातायी था तो उसे देवताओं ने क्यों नही मारा, क्यों सर्वशक्तिमान देवों के रहते हुये भी एक महिला को शस्त्र देकर उससे लड़ने भेजा गया?
सोचो, सोचो.....
◆◆◆◆
ईसा मसीह और शराब का अड्डा
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बाइबिल [ यूहन्ना 2: 1 to 10 ]
ईसा मसीह और उसके कुछ चेले चपाटे गलील नाम के स्थान पर थे, साथ मे ईसा की माँ कुँवारी मरियम भी उन्ही के साथ थी, उन सभी को वहाँ किसी यहूदी की शादी में न्योता मिला था तो सभी शादी में उपस्थित हुए थे।
शादी में महेमनो को शराब पिलाई जा रही थी वह ख़त्म हो गई, ये बात ईसा की माँ कुँवारी मरियम के कानों तक पहोंची, कुँवारी मरीयम ने ये बात ईसा मसीह को कही, ईसा ने कुँवारी मरियम को माँ कहने की बजाय ए औरत संबोधित करते हुए कहा तुजे मुझसे क्या लेना देना, मेरे चमत्कार दिखाने का वक़्त अभी नही आया।
नॉट- (ईसा ने कुँवारी मरियम को माँ कहने की बजाए ए औरत कहकर संबोधित किया, सायद ईसा कुँवारी मरियम को अपनी माँ नही मानता हो ये जानकर की में बिन बाप के जन्मा हु, ऐसा विवरण बाइबिल में और जगह भी मिलता है कभी कोई और पोस्ट में जानेंगे)
फिर भी कुँवारी मरियम ने वहाँ हाज़िर सेवको को आदेश दिया कि ईसा जैसा कहे वैसा करो, ईसा ने मजबूरी में ही सही सेवकों को कहा छे (6) मिट्टी के मटके रखो और उनमें पानी भर दो। सेवकों ने इस ही किया, ईसा ने आदेश दिया कि अब मटके में से पानी निकालकर सभी महेमनो को पिलाओ, जैसे ही शादी में उपस्थित महेमनो ने पानी चखा पानी शराब बन गया था, वो भी उत्तम प्रकार की शराब।
शराबियों ने दूल्हे को बुलाकर बहोत तारीफ़ की, की तूने बहोत अच्छी शराब पिलाई, इसके बाद ईसा और उनके चेले वहाँ से प्रस्थान कर चल देते है, यहाँ ईसा के शराब पीने का उल्लेख नही मिलता, पर हम अंदाज़ा लगा सकते है कि ईसा ने भी शराब पी होगी, क्योंकि ईसाइयों में शराब पीना सुन्नत है, ईसाई परिवारों में औरतो सहित साथ मे बैठकर शराब पीने का चलन देखने मिलता है, ईसाइयों के शुभ प्रसंगों में शराब पिलाई जाती है, चर्च में भी के ईसाई शराब लेकर जाते है।
ये ईसा का अपने जीवन का पहला ही चमत्कार था।
बाइबिल में है कि परमेश्वर ने ईसा को संसार का उद्धार करने के लिए भेजा था, अब यहाँ सवाल ये उठता है, शादी में शराब ख़त्म हो गई थी, तो चमत्कार के ज़रिए पानी को शराब बनाकर लोगो को क्यो पिलाई? शराब पिलाक़र लोगो को नशे की आदत लगाकर कोनसा उद्धार किया, ना जाने अभी तक संसार के कितने लोगों के घर, परिवार, कुल, समाज, बर्बाद और नष्ट हो गए इस शराब की वजह से आज भी हो रहे है।
चमत्कार दिखाना ही था, लोगो का उद्धार करना ही था, अपने को परमेश्वर का पुत्र साबित करना ही था तो उस शादी में लोगो को हिदायत देता की अच्छा हुआ शराब ख़त्म हो गई, ये पीना बहोत बुरी चीज़ है, इससे दूर रहना ही बहेतर है, आगे से कोई भी शराब को नही पीना, फिर पानी से भरे मटके में कुछ जड़ीबूटी डालकर औषधि बनाकर लोगो को पिला देता की उनमें से जिसको जो भी रोग हो ठीक हो जाए, चमत्कार के नाम पर इस तरह भी तो लोगो का उद्धार कर सकता था....!!!
#Expose_Church
#Expose_Missionaries
#Expose_Christianity
#Church_Crimes
#बबूला_भक्ता
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नवरात्रि लगभग खत्म हो रही है, उसके बाद नौ-दिनों तक आस्था की केन्द्र बनी दुर्गा की मूर्तियों को नजदीकी नदियों/नहरों मे फेंक दिया जायेगा!
खैर... यह सतत प्रकृया है, पर दुर्गा को लेकर अभी भी सवाल वही है कि दुर्गा आखिर कौन थी?
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि महिषासुर के पास न तो कोई चमात्कारी वरदान था और न ही कोई विलक्षण शक्ति, फिर आखिर उसे विष्णु या शिव ने क्यों नही मार दिया?
एक महिला दुर्गा ही क्यों उसे मारती है?
मार्कण्डेयपुराण शाक्त-सम्प्रदाय का मुख्य पुराण है! इसी पुराण से दुर्गा-सप्तशती लिखी गयी है! पिछले एक सप्ताह से मै दुर्गा के बारे मे खोजते-खोजते इसी पुराण तक पहुँचा! इस पुराण के देवी माहत्म्य द्वितीयोऽध्याय मे दुर्गा की उत्पत्ति की कथा है! वैसे तो यह कथा भी पूर्णतः काल्पनिक ही है, फिर भी मै आप लोगों को बता देता हूँ।
कथानुसार महिषासुर ने तमाम देवताओं को हराकर स्वर्ग से बाहर खदेड़ दिया! तब सारे देवता ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पास आये और अपना विधवा-विलाप करने लगे। फिर सभी देवताओं ने महिषासुर को मारने के लिये अपने-अपने तेज से एक देवी को प्रकट किया। शंकर के तेज से देवी का मुख, विष्णु के तेज से भुजाऐं, यम के तेज से बाल, चन्द्र के तेज से दोनो स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से पुष्ठ, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से अंगुलियाँ, कुबेर के तेज से नाक, प्रजापति के तेज से दांत, अग्नि के तेज से आँखें, और वायु के तेज से उस देवी के कान बने! यही देवी पुराणों मे 'दुर्गा' के नाम से विख्यात हुई! फिर सारे देवताओं ने उस देवी को अपने-अपने अस्त्र देकर महिषासुर से लड़ने के लिये भेजा।
अब यहाँ सवाल यह बनता है कि इतने सारे देवता थे! स्वयं सर्व-शक्तिमान शिव और विष्णु भी थे, फिर आखिर ये सब महिषासुर से लड़ने क्यों नही गये?
क्यों सबने एक महिला को भेजा?
दूसरी बात जिस तरीके से दुर्गा की उत्पत्ति बतायी जा रही है यह तो पूर्णतः अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक है।
खैर.. अब आगे बढ़ते हैं, और देखते हैं कि दुर्गा महिषासुर से कैसे लड़ती है?
इसी पुराण के तीसरे अध्याय मे दुर्गा और महिषासुर के युद्ध का विस्तार से वर्णन है! जब दुर्गा महिषासुर से युद्ध कर रही थी तो क्रोध मे आकर वह बार-बार मधु (मदिरा) पी रही थी, और उसको मदिरा का इतना अधिक प्रभाव हो गया था कि उनकी आँखें लाल हो गयी थी तथा बोलते समय उसकी वाणी भी लड़खड़ा रही थी।
अब ये समझ मे नही आ रहा है कि मदिरा पीकर कौन सा युद्ध हो रहा था?
भला युद्धक्षेत्र मे भी कोई मदिरा पीता है?
वैसे दुर्गा यही नही रुकी, इसी अध्याय के श्लोक-38 मे दुर्गा बोलती हैं-
"गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।।"
अर्थात- हे असुर! जब तक मै मधु पीती हूँ, तब तक तू खूब गरज ले! मेरे हाथों यही तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता भी शीघ्र गर्जना करेंगे।
यह श्लोक अपने-आप मे लम्बी कहानी समेटे हुआ है!
कई लोग कहते हैं कि देवी ने युद्ध मे मदिरा नही मधु पिया था! तो मै कहूँगा कि मधु पीने से किसकी जबान लड़खड़ाती है?
मधु पीने से आँखें क्यों लाल होगी?
ये सम्पूर्ण कहानी कुछ और ही है, लेखकों ने बड़ी चतुराई से सच को दबा दिया है!
या तो ये कहानी पूर्ण काल्पनिक है, क्योंकि दुर्गा और महिषासुर का जन्म प्राकृतिक नही है! या तो इस कहानी को कुछ दूसरा ही रंग दे दिया गया है!
अभी भी बड़ा सवाल यही है कि यदि महिषासुर आतातायी था तो उसे देवताओं ने क्यों नही मारा, क्यों सर्वशक्तिमान देवों के रहते हुये भी एक महिला को शस्त्र देकर उससे लड़ने भेजा गया?
सोचो, सोचो.....
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नवरात्रि के त्योहार आ रहे हैं, अब जगह-जगह भव्य पंडाल सजाये जायेंगे, और वहाँ जोर-जोर से "जय महिषासुर मर्दिनी" के जयकारे लगाये जायेंगे!
इन पंडालों मे एक प्रतिमा लगायी जायेगी, जिसमे शेर पर आरूढ़ एक गोरी-चिट्टी सुन्दर आर्य महिला (दुर्गा) एक काले-कलूटे विकृत आदिवासी (महिषासुर) के सीने मे त्रिशूल भोंपकर उसका वध करती हुई दिखाई देगी।
नवरात्रि इसीलिये मनायी जाती है क्योंकि मान्यता है कि दुर्गा ने इसी नौ दिनों मे युद्ध करके महिषासुर का वध किया था!
विचारणीय बात यह है कि आखिर इस बात के क्या ऐतिहासिक प्रमाण है कि कोई दुर्गा थी, या कोई महिषासुर था!
मुझे तो ये पूरी कहानी काल्पनिक सी लगती है! दुर्गा का कोई अता-पता नही कि किसकी पुत्री थी, कहाँ से आयी और कहाँ चली गयी?
महिषासुर के बारे मे भी जो जानकारी है, वह मिथक ही प्रतीत होती है!
चलिये आज पहले महिषासुर के बारे मे जानते हैं-
देवीपुराण के पाँचवें स्कन्द मे एक कथा आती है कि असुरों के राजा रम्भ को अग्निदेव ने वर दिया कि तुम्हे एक पराक्रमी पुत्र पैदा होगा!
एक दिन रम्भ विचरण कर रहा था तो उसने एक जवान मदमस्त भैंस देखी, रम्भ का मन उस भैंस पर आ गया और उसने उससे सहवास किया! कालान्तर मे रम्भ के वीर्य से गर्भित होकर उसी भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया!
कुछ दिनों बाद जब वह भैंस घास चर रही थी तो अचानक एक भयंकर भैसा कही आ गया, और वह उस भैंस से मैथुन करने के लिये उसकी ओर दौड़ा...
रम्भ भी वहीं था, उसने देखा कि एक भैसा मेरी भैंस से 'मुँह पीला' (चूँकि भैस का मुँह पहले ही काला होता है) करने का प्रयास कर रहा था! उसकी गैरत जाग गयी और वह भैंसे से भिड़ गया।
फिर क्या था, उस भैसे की नुकीली सींगों से रम्भ मारा गया, और जब रम्भ के सेवकों ने उसके शव को चिता पर लेटाया तो उसकी बीवी पतिव्रता भैंस भी चिता पर चढ़कर रम्भ के साथ सती हो गयी।
मुझे तो यह सोचकर भी आश्चर्य होता है कि किसी जमाने मे भारत मे इतनी पतिव्रता भैंस भी हुआ करती थी जो अपने पति के साथ आत्मदाह कर लेती थी।
खैर... ऐसे ही पैदा हुआ पंडों का कल्पित चरित्र महिषासुर। (चित्र-1-4)
महिषासुर से सम्बन्धित एक दूसरी कथा वराहपुराण अध्याय-95 मे भी मिलती है, जो निम्न है-
विप्रचित नामक दैत्य की एक सुन्दर कन्या थी माहिष्मती! माहिष्मती मायावी-शक्ति से वेष बदलना जानती थी! एक दिन वह अपनी सखियों के साथ घूमती हुई एक पर्वत की तराई मे आ गयी, जहाँ एक सुन्दर उपवन था और एक ऋषि (सुपार्श्व) वहीं तप कर रहे थे।
माहिष्मती उस मनोहर उपवन मे रहना चाहती थी, उसने सोचा कि इस ऋषि को डराकर भगा दूँ और अपनी सखियों के साथ यहाँ कुछ दिन विहार करूँ!
यही सोचकर माहिष्मती ने एक भैंस का रूप धारण किया और सुपार्श्व ऋषि को पास आकर उन्हे डराने लगी! ऋषि ने अपनी योगशक्ति से सत्य को जान लिया और माहिष्मती को श्राप दिया कि तू भैंस का रूप धारण करके मुझे डरा रही है तो जाऽऽ... मै तुझे श्राप देता हूँ कि तू सौ वर्षों तक इसी भैंस-रूप मे रहेगी!
अब माहिष्मती भैंस बनकर नर्मदा तट पर रहने लगी! वहीं नजदीक सिन्धुद्वीप नामक एक ऋषि तप करते थे। एक दिन जब ऋषि स्नान करने के लिये नर्मदा नदी के तट पर गये तो उन्होने देखा कि वहाँ एक सुन्दर दैत्यकन्या इन्दुमती नंगी होकर स्नान कर रही थी! उसे नग्नावस्था मे देखकर ऋषि का जल मे ही वीर्यपात हो गया! माहिष्मती ने उसी जल को पी लिया, जिससे वह गर्भवती हो गयी और कुछ महीनों बाद इसी माहिष्मती भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया! (चित्र-5-7)
महिषासुर की कथा केवल इन्ही दो पुराणों मे मिलती है, और दोनो के अनुसार वह भैंस के पेट से पैदा हुआ।
अब कम से कम मेरी साधारण बुद्धि तो यह मानने को तैयार नही कि एक भैंस किस इंसान के भ्रूण को जन्म दे सकती है! अतः इससे स्पष्ट है कि पौराणिक कहानी तो पूरी तरह से काल्पनिक है।
अब बड़ा सवाल यह होता है कि क्या महिषासुर काल्पनिक है!
इतिहासकारों ने भी महिषासुर पर अलग-अलग राय दी है!
कोसम्बी कहते थे कि वह म्हसोबा (महोबा) का था, तो मैसूर के निवासी कहते हैं कि मैसूर का पुराना नाम ही महिष-असुर ही था! मैसूर मे महिषासुर की एक विशालकाय प्रतिमा भी है।
रही बात दुर्गा की तो उनके बारें मे भी पढ़े तो कुछ अता-पता नही चलता!
एक पुराण कहता है कि दुर्गा कात्यायन ऋषि की पुत्री थी।
दूसरा कहता है कि दुर्गा मणिद्वीप मे रहने वाली जगदम्बा ही थी।
यही नही.. कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह चोलवंश की राजकुमारी थी।
अगर दुर्गा को जानने के लिये देवीपुराण पढ़ो तो पूरी पौराणिक-मान्यताऐं ही पलट जाती है!
देवीपुराण मे लिखा है कि अब तक राम-कृष्ण समेत जितने भी अवतार हुये हैं, वह सब दुर्गा के थे, विष्णु के नही! बल्कि यह पुराण तो कहता है कि विष्णु भी दुर्गा की प्रेरणा से ही जन्मे! दुर्गा चालीसा मे भी नरसिंह अवतार दुर्गा का कहा गया है। ये निम्न चौपाई देखें-
"धरा रूप नरसिंह को अम्बा।
प्रकट भई फाड़ कर खम्बा।।
रक्षा करि प्रहलाद बचायो।
हिरनाकुश को स्वर्ग पठायो।।"
जहाँ तक मेरा मानना है तो यह कथा पाखण्ड ही हैं और दुर्गा को प्रतिष्ठित करना या पूजना बेकार मे समय की बर्बादी के अलावा और कुछ नही है!
वैसे भी जो गलती हमारे पूर्वजों ने अज्ञानतावश की है, उसे हम परम्परा मानकर आखिर कब तक दोहरा रहेंगे।
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इस देश की पिछड़ी जातियों में शुमार अहीर व यादव कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं। इस जाति के बीच कृष्ण का नायकत्व ऐसा है कि अहीर और कृष्ण पर्यायवाची बन गए हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में इस यादव नायक का नाम कृष्ण, श्याम, गोपाल आदि आया है, जो यादवों के शारीरिक रंग एवं व्यवसाय से मेल खाने वाला है। बहुसंख्यक यादव सांवले या काले होते हैं, जो कि इस देश के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों का रंग है, के होंगे, तो निश्चय ही इनके महामानव या नायक का नाम कृष्ण या श्याम होगा, जिसका शाब्दिक अर्थ काला, करिया या करियवा होगा। देश एवं हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था सवर्ण-अवर्ण या काले-गोरे के आधार पर बनी है।
आर्यों और अनार्यों के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक 'आर्य संस्कृति की खोज' का यह अंश उल्लेखनीय है: ''1800 ईसा पूर्व के बाद छोटी-छोटी टोलियों में आर्यों ने भारतवर्ष में प्रवेश किया। ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है। ईरान शब्द का संबंध आर्य शब्द से है। ऋग्वैदिक काल में इंद्र की पूजा करने वाले आर्य कहलाते थे। ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति है। जिन लोगों से वे लड़ते थे उनको काले रंग का बतया गया है। आर्यों को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों के घरों में आग लगा देते थे। आर्यों के देवता सोम के विषय में कहा गया है कि वह काले लोगों की हत्या करता था। उत्तर-वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से उन तीन वर्णों का बोध होता था जो द्विज कहलाते थे। शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं रखा जाता था। आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र।''
इंद्र विरुद्ध कृष्ण
हिंदुओं के प्रमुख धर्मग्रंथ ऋग्वेद का मूल देवता इंद्र है। इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं। इंद्र और कृष्ण का मतांतर एवं युद्ध सर्वविदित है। प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में वेदव्यास ने कृष्ण को विजेता बताया है तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है। इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है। इस युद्ध में कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध किया जाता है, जिससे कुपित इंद्र अतिवृष्टि कर मथुरावासियों को डुबोने पर आमादा हैं। कृष्ण गोवर्धन पर्वत के जरिए अपने लोगों को इंद्र के कोप से बचा लेते हैं। इंद्र थककर पराजय स्वीकार कर लेता है। इस संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी आमने-सामने युद्ध नहीं होता है लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है।
ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि - ''हे इंद्र! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं। अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं। इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी। इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया। इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला।''
ऋग्वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि: ''गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला। वे कामवर्णी दाएं हाथ में बज्र धारण करते हैं। रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं।''
इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी ऋणता को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13,14,15 और 17 को भी देखना चाहिए (मूल संस्कृत श्लोक देखें शांति कुंज प्रकाशन, गायत्री परिवार, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित वेद में)
ऋगवेद के श्लोक 13: शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था। इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया।
श्लोक 14: इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है। हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं। तुम यु़द्ध में उसे मारो।
श्लोक 15: तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था। इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया।
श्लोक 17: हे बज्रधारी इंद्र! तुमने वह कार्य किया है। तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया। तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं। ( अनुवाद-वेद, विश्व बुक्स, दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली)
क्या कृष्ण और यादव असुर थे?
ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान शायद नहीं गया होगा। यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता। वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थीं। वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थीं। अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था और वह भी काले रंग एवं गाय वाला था। उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था।
यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इंद्र से विरोध था। दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे। वेद में कृष्ण एवं इंद्र का यमुना के तीरे युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, शम्बूक, बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामंडित किया जाना। इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया। इसी भ्रामक प्रचार का प्रतिफल है कि बहुजनों से उनके पुरखों को बुरा कहते हुए उनकी छल कर हत्या करने वालों की पूजा करवाई जा रही है।
यदुवंशी कृष्ण के असुर नायक या इस देश के अनार्य होने के अनेक प्रमाण आर्यों द्वारा लिखित इतिहास में दर्ज है। आर्यों ने अपने पुराण, स्मृति आदि लिखकर अपने वैदिक या ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया है। पद्म पुराण में कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध एवं राजा बलि की पौत्री उषा के विवाह का प्रकरण पढ़ने को मिलता है। कृष्ण के पौत्र की पत्नी उषा के पिता का नाम बाणासुर था। बाणासुर के पूर्वज कुछ यूं थे-असुर राजा दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप के पुत्र विरोचन के पुत्र बलि के पुत्र बाणासुर थे। उषा का यदुकुल श्रेष्ठ कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया। अनिरुद्ध अपनी प्रेमिका उषा से मिलने बाणासुर के महल में चले गए। बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध के अपने महल में मिलने की सूचना पर अनिरुद्ध को पकड़कर बांधकर पीटा गया।
इस बात की जानकारी होने पर अनिरुद्ध के पिता प्रद्युम्न और वाणासुर में घमासान हुआ। जब बाणासुर को पता चला कि उनकी पुत्री उषा और अनिरुद्ध आपस में प्रेम करते हैं तो उन्होंने युद्ध बंद कर दोनों की शादी करा दी। इस तरह से कृष्ण और असुर राज बलि एवं बाणासुर और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न आपस में समधी हुए। अब सवाल उठता है कि यदि कृष्ण असुर कुल यानी इस देश के मूल निवासी नहीं होते तो उनके कुल की बहू असुर कुल की कैसे बनती? श्रीकृष्ण और राजा बलि दोनों के दुश्मन इंद्र और उपेंद्र आर्य थे। कृष्ण ने इंद्र से लड़ाई लड़ी तो बालि ने वामन रूपधार उपेंद्र (विष्णु) बलि से। राजा बलि के संदर्भ में आर्यों ने जो किस्सा गढ़ा है वह यह है कि राजा बलि बड़े प्रतापी, वीर किंतु दानी राजा थे। आर्य नायक विष्णु आदि राजा बलि को आमने-सामने के युद्ध में परास्त नहीं कर पा रहे थे, सो विष्णु ने छल करके राजा बलि की हत्या की योजना बनाई।
विष्णु वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। महादानी एवं महाप्रतापी राजा बलि राजी हो गए। पुराण कथा के मुताबिक वामन वेशधारी विष्णु ने एक पग में धरती, एक पग में आकाश तथा एक पग में बलि का शरीर नापकर उन्हें अपना दास बनाकर मार डाला। कुछ विद्वान कहते हैं कि वामन ने राजा बलि के सिंहासन को दो पग में मापकर कहा कि सिंहासन ही राजसत्ता का प्रतीक है इसलिए हमने तुम्हारा सिंहासन मापकर संपूर्ण राजसत्ता ले ली है। एक पग जो अभी बाकी है उससे तुम्हारे शरीर को मापकर तुम्हारा शरीर लूंगा। महादानी राजा बलि ने वचन हार जाने के कारण अपनी राजसत्ता वामन विष्णु को बिना युद्ध किए सौंप दी तथा अपना शरीर भी समर्पित कर दिया। वामन वेशधारी विष्णु ने एक लाल धागे से हाथ बांधकर राजा बलि को अपने शिविर में लाकर मार डाला। इस लाल धागे से हाथ बांधते वक्त विष्णु ने बलि से कहा था कि तुम बहुत बलवान हो, तुम्हारे लिए यह धागा प्रतीक है कि तुम हमारे बंधक हो। तुम्हें अपने वचन के निर्वाह हेतु इस धागा को हाथ में बांधे रखना है।
हजारों वर्ष बाद भी इस लाल धागे को इस देश केमूल निवासियों के हाथ में बांधने का प्रचलन है जिसे रक्षासूत्र या कलावा कहते हैं। इस रक्षासूत्र या कलावा को बांधते वक्त पुरोहित उस हजार वर्ष पुरानी कथा को श्लोक में कहता है कि : 'येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामि प्रतिबद्धामि रक्षे मा चल मा चल।' (अर्थात् जिस तरह हमने दानवों के महाशक्तिशाली राजा बलि को बांधा है उसी तरह हम तुम्हें भी बांधते हैं। स्थिर रह, स्थिर रह।)
पुराणों के प्रमाण
दरअसल, इन पौराणिक किस्सों से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण, राजा बलि, राजा महिषासुर, राजा हिरण्यकश्यप आदि से विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर इस देश के मूल निवासियों पर अपनी आर्य संस्कृति थोपने के लिए संग्राम किया था। इंद्र एवं विष्णु आर्य संस्कृति की धुरी हैं तो कृष्ण और बलि अनार्य संस्कृति की।
बहरहाल, कृष्ण को क्षत्रिय या आर्य मानने वाले लोगों को कृष्ण काल से पूर्व राम-रावण काल में भी अपनी स्थिति देखनी चाहिए। महाकाव्यकार वाल्मीकि ने रामायण में भी यादवों को पापी और लुटेरा बताया है तथा राम द्वारा किए गए यादव राज्य दु्रमकुल्य के विनाश को दर्शाया है।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के 22वें अध्याय में राम एवं समुद्र का संवाद है। राम लंका जाने हेतु समुद्र से कहते हैं कि तुम सूख जाओ, जिससे मैं समुद्र पार कर लंका चला जाऊं। समुद्र राम को अपनी विवशता बताता है कि मैं सूख नहीं सकता तो राम कुपित होकर प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लेते हैं। समुद्र राम के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें नल-नील द्वारा पुल बनाने की राय देता है। राम समुद्र की राय पर कहते हैं कि वरुणालय मेरी बात सुनो। मेरा यह यह वाण अमोध है। बताओ इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए। राम की बात सुनकर समुद्र कहता है कि 'प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर दु्रमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा पवित्र देश है, वहां आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता, श्रीराम! आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए। महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के बताए अनुसार उसी देश में वह अत्यंत प्रज्जवलित वाण छोड़ दिया। वह वाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस वाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।'
राम-रावण काल में यादवों के राज्य दु्रमकुल्य को समुद्र द्वारा पवित्र बताने तथा वहां निवास करने वाले यादवों को पापी एवं भयानक कर्म वाला लुटेरा कहने से सिद्ध हो जाता है कि यादव न आर्य हैं और न क्षत्रिय, अन्यथा वाल्मीकि और समुद्र इन्हें पापी नहीं कहते। जिस तरह से इस देश में दलितों को तालाब, कुओं आदि से पानी पीने नहीं दिया जाता था और डॉ. आम्बेडकर को महाड़ तालाब आंदोलन करना पड़ा, क्या उससे भी अधिक वीभत्स घटना यादवों के दु्रमकुल्य राज्य के साथ घटित नहीं हुई है? रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि आभीर यवन, किरात खस, स्वचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, मुसलमान, बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयोनि हैं। इसी प्रकार व्यास स्मृति का रचयिता एक श्लोक में कहता है कि 'बढ़ई, नाई, ग्वाला, चमार, कुम्भकार, बनिया, चिड़ीमार, कायस्थ, माली, कुर्मी, भंगी, कोल और चांडाल ये सभी अपवित्र हैं। इनमें से एक पर भी दृष्टि पड़ जाए ता सूर्य दर्शन करने चाहिए तब द्धिज जाति अर्थात् बड़ी जातियों का एक व्यक्ति पवित्र होता है।'
सहमत हैं इतिहासविद्
इसी कारण महान इतिहासकार डीडी कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता' में लिखा है-'ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इंद्र का शत्रु बताया गया है और उसका नाम श्याम, आर्य पूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूल आधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का देवता था। परंतु सूक्तकारों ने पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण शाश्वत भी हैं और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन अहीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे और जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। कृष्ण गोरक्षक था, जिन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी, उनमें कृष्ण का कभी आह्वान नहीं हुआ है, जबकि इंद्र, वरुण तथा अन्य वैदिक देवताओं का सदैव आह्वान हुआ है। ये लोग अपने पैतृक कुलदेवता को चाहे जिस चीज की बलि भेंट करते रहे हों पर दूसरे कबीलों द्वारा उनकी इस प्रथा को अपनाने का कोई कारण नहीं था। दूसरी तरफ जो पशुचर लोग कृषि जीवन को अपना रहे थे, उन्हें इंद्र की बजाय कृष्ण को स्वीकार करने में निश्चित ही लाभ था। सीमा प्रदेश के उच्च वर्ग के लोग गौरवर्ण के थे। उनका मत था कि काला आदमी बाजार में लगाए गए काले बीजों के ढेर की भांति है और उसे शायद ही कोई ब्राह्मण समझने की भूल कर सकता है। कन्या का मूल्य देकर विवाह करने का पश्चिमोत्तर में जो रिवाज था, वह भी पूर्ववासियों को विकृत प्रतीत होता था। कन्या हरण की प्रथा थी, जिसका महाभारत के अनुसार कृष्ण के कबीले में प्रचलन था और ऐतिहासिक अहीरों ने भी जिसे चालू रखा और जो पूर्ववासियों को विकृत लगती थी। अंततोगत्वा ब्राह्मण धर्मग्रंथों ने इन दोनों प्रकार के विवाहों को अनार्य प्रथा में कहकर निषिद्ध घोषित कर दिया।'
डीडी कौशाम्बी अपनी पुस्तक में स्पष्ट करते हैं कि कृष्ण आर्यों की पशु बलि के सख्त विरोधी थे यानी गोरक्षक थे। कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन द्वारा भगाकर शादी करने का उल्लेख् मिलता है। इस प्रकार कौशाम्बी ने भी कृष्ण को अनार्य अर्थात् असुर माना है।
इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक 'खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर' में लिखा है कि 'क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के देवता इंद्र और ब्राह्मणों के साधक यज्ञानुष्ठानों के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया। उन्होंने उसे जो क्षत्रिय भी न था, यद्यपि क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहा था को विष्णु का अवतार माना और अधिकतर क्षत्रिय ही उस देव दुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गए।'
उपाध्याय ने इसे भी स्पष्ट कर दिया है कि कृष्ण ब्राह्मणों के देवता इंद्र और उनके यज्ञानुष्ठानों के प्रबल विरोधी थे जबकि वे क्षत्रिय नहीं थे। कृष्ण के बारे में उपाध्याय ने लिखा है कि वे क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहे थे। अब तक जो भी प्रमाण मिले हैं वे यही सिद्ध करते हैं कि अहीर और कृष्ण आर्यजन नहीं थे। कृष्ण और अहीर इस देश के मूलनिवासी काले लोग थे। इनका आर्यों से संघर्ष चला है।
ऋग्वेद कहता है कि 'निचुड़े हुए, गतिशील, तेज चलने वाले व दीप्तिशाली सोम काले चमड़े वाले लोगों को मारते हुए घूमते हैं, तुम उनकी स्तुति करो।' (मंडल 1 सूक्त 43)
इस आशय के अनेक श्लोक ऋग्वेद में हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग भारत के मूल निवासियों से किस हद तक नफरत करते थे तथा उन्होंने चमड़ी के रंग के आधार पर इनकी हत्याएं की हैं। यादवश्रेष्ठ कृष्ण काली चमड़ी वाले थे। इंद्र और यज्ञ विरोधी होने के लिहाज से ऋग्वेद के अनुसार उनका संघर्ष अग्नि, सोम, इंद्र आदि से होना स्वाभाविक है।
जिनसे जीत नहीं सकते उन्हें अपने में मिला लो
ऋग्वेद से लेकर तमाम शास्त्रों में अहीर व अहीर नायक कृष्ण अनार्य कहे गए हैं लेकिन इसके बावजूद जब इस देश के मूल निवासियों में कृष्ण का प्रभाव कायम रहा तो इन आर्यों ने कृष्ण के साथ नृशंसता बरतने के बावजूद उन्हें भगवान बना दिया और कृष्णवंशीय बहादुर जाति को अपने सनातन पंथ का हिस्सा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली।
जब कृष्ण अनार्य थे तो गीतोपदेश का सवाल उठना लाजिमी है। गीतोपदेश में कृष्ण ने खुद भगवान होने, ब्राह्मण श्रेष्ठता, वर्ण व्यवस्था बनाने जैसे अनेक गले न उतरने वाली बातें कही हैं। ऋग्वेद स्वयं ही गीता में उल्लेखित बातों का खंडन करता है। जब कृष्ण खुद वेद के अनुसार असुर और इंद्रद्रोही थे तो वे वर्ण व्यवस्था को बनाने की बात कैसे कर सकते हैं। गीता में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाने वाली जो भी बातें कृष्ण के मुंह से कहलवाई गई हैं वे सत्य से परे हैं। काले, अवर्ण असुर कृष्ण कभी भी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक नहीं हो सकते। भारत के मूल निवासियों में अमिट छाप रखने वाले कृष्ण का आभामंडल इतना विस्तृत था कि आर्यों को मजबूरी में कृष्ण को अपने भगवानों में सम्मिलित करना पड़ा। यह कार्य ठीक उसी तरह से किया गया जिस तरह से ब्राह्मणवाद के खात्मा हेतु प्रयत्नशील रहे गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने गरुड़ पुराण में कृष्ण का अवतार घोषित कर खुद में समाहित करने की चेष्टा की।
जिस तरह से असुर कृष्ण की भारतीय संस्कृति आर्यों ने उदरस्थ कर ली उसी तरह बुद्ध की वैज्ञानिक बातों ने हिन्दू धर्म के अवैज्ञानिक कर्मकांडों के समक्ष दम तोड़ दिया। डॉ. आम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अब भारत में कुछ बौद्ध नज़र आ रहे हैं, वरना इन आर्यों ने बुद्ध को कृष्ण का अवतार और कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर कृष्ण एवं बुद्ध को निगल लिया था। कैसी विडंबना है कि विष्णु का अवतार जिस कृष्ण को बताया गया है, वह कृष्ण लगातार वेद से लेकर महाभारत ग्रंथ में इंद्र से लड़ रहा है।
एक सवाल उठेगा कि यदि कृष्ण आर्य या क्षत्रिय नहीं थे तो श्रीमद्भागवद गीता में क्यों लिखा है कि 'यदुवंश का नाम सुनने मात्र से सारे पाप दूर हो जाते हैं।' (स्कंध-9. अध्याय. 23, लोक.19) मैं इस संदर्भ में यही कहूंगा कि असुर कृष्ण अति लोकप्रिय थे। वे लोकनायक थे। उनकी लोकप्रियता इस देश के मूल निवासियों में इतनी प्रबल थी कि आर्य उन्हें उनके मन से निकाल पाने में सफल नहीं थे।
बहरहाल, मैंने कृष्ण और यादवों संदर्भ में कुछ तथ्य विभिन्न स्रोतों से एकत्रित कर तरल पाठकों के समक्ष बहस हेतु रखा है। मैं यह सवाल अब पाठकों के लिए छोड़ रहा हूं कि कृष्ण कौन थे? किस वर्ण के हैं? मैं समझता हूं कि ये प्रश्न अब अनुत्तरित नहीं रह गए हैं।
लेखक चंद्रभूषण सिंह यादव, यादव समाज की प्रमुख पत्रिका 'यादव शक्ति' के प्रधान संपादक हैं। यह लेख 'फारवर्ड प्रेस' के अगस्त, 2014 की कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ है।
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