Saturday, 10 October 2020

रामचरितमानस, तुलसीदास।

तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड मे राम की प्रशंसा करते हुये लिखा है-

"सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधबधू सो"।
अर्थात- हे राम! आपकी कृपा से जो विभीषण अपने बड़े भाई (रावण) की पत्नि (मंदोदरी) का उपभोग करते हैं, वो भी आपकी कृपा से साधुता पा गये!

आगे तुलसी दास ने लिखते हैं-
"रिषिनारि उधारि कियो सठ केवटु मीत पुनीत सुकीर्ती लही"
अर्थात- हे राम! आपने उस दुष्ट केवट को मित्र बनाकर पवित्र कर दिया!

जरा सोचो, उस केवट ने दुष्टता का कौन सा कार्य किया था, उसने तो स्नेह से राम के चरण ही धोये थे! 

वैसे वाल्मीकि रामायण मे ये चरण धोने वाला प्रकरण है ही नही, पर अगर तुलसीदास की ही बात सच मान लें कि केवट ने चरण धोये तो वह दुष्ट कैसे हुआ!

तुलसीदास ने इसी तरह मानस के लंकाकाण्ड मे लिखा है-
"सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो"
अर्थात- हर प्रकार से उस नीच निषाद को राम ने भरत जैसे गले लगा लिया!

अब बताओ, वह निषाद राम का मित्र था! फिर उसने ऐसा कौन सा कुकर्म कर दिया था कि तुलसीदास ने उसे नीच बना दिया, और अगर वह नीच था तो फिर राम ने उससे मित्रता क्यों की?

इसी कवितावली मे तुलसी ने लिखा है-

"मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कुछ भाल भलाई।
 नीच निरादरभाजन  कादर    कूकर-टूकन   लागि ललाई।।"
अर्थात- माता-पिता ने मुझे पैदा करके त्याग दिया, और ब्रह्मा ने भी भाग्य मे कुछ अच्छा नही लिखा था! तब मै निरादर होकर कुत्ते के मुँह मे टुकड़े को देखकर ललचाता था!

आगे तुलसीदास लिखते हैं-
"जातिके, सुजातिके, कुजाति के पेटागि बस।
 खाए   टूक सबके    बिदित बात  दूनीं सो।।"
अर्थात- मैने पेट की आगि (भूख) के कारण अपनी जाति, सुजाति और कुजाति सभी के टुकड़े मांगकर खाये है, और यह बात सभी को पता है।

अब जरा मानस अयोध्याकाण्ड-193 की चौपाई देखो-
"लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।"
अर्थात- तुलसीदास यहाँ कह रहे हैं कि केवट लोकरीति और वेदरीति से सब भाँति नीच है, और जिसे उसकी परछाई छू ले उसे स्नान करना चाहिये!

सवाल तो यह भी होता है कि अगर परछाई छूने पर स्नान करना है तो फिर तुलसीदास ने बचपन मे कुजातियों के घर भोजन किया था, तो वो कैसे पवित्र हुये?

दूसरी बात तुलसीदास ने अपनी मुर्खतावश वेदों पर भी आक्षेप लगा दिया है, वेदों ने किसी को भी नीच बताया ही नही है!

वेद कहते हैं "कृण्वन्तो विश्वमार्यम् " अर्थात- पूरे संसार को श्रेष्ठ बनाओ!

फिर तुलसीदास ने कौन से वेद पढ़े थे जो निषादों (केवट) को नीच बताता है!

तुलसीदास ने वेदों का आक्षेप लगाना यही नही रोका, 

आगे अयोध्याकाण्ड-195 मे उन्होने लिखा है-
"कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।"
अर्थात- केवट कपटी, डरपोक, मूर्ख और कुजाति होते हैं, तथा सभी प्रकार मे लोकरीति और वेदरीति से बाहर हैं!

अब सोचना यह है कि तुलसीदास ने यहाँ केवटों को कुजाति कहा हैं, और कवितावली मे कुजाति का भोजन करने की बात की है! साथ ही साथ केवटों को लोकरीति से वेदव्राह्य बता रहे हैं! मै जानना चाहता हूँ कि किस वेद ने निषादों का परित्याग किया है! केवटों के विरुद्ध तुलसीदास इतना जहर उगलकर गये हैं, पर अज्ञानता-वश केवट भी रामचरित मानस का पाठ करवाते हैं!


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रामचरितमानस 

"शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन देता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते है, शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है, गुणगणो से युक्त और ज्ञान में निपुण भी शुद्र पूजनीय नहीं है".

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तुलसीदास_और_नारी

तुलसीदास ने रामचरित मानस मे मे एक बड़ी ही चर्चित चौपाई लिखी है-
"ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। 
सकल ताड़ना के अधिकारी।।"

इस चौपाई मे वो नारियों को प्रताड़ना की अधिकारी बता रहें हैं! इस चौपाई की वजह से कई नारीवादी तुलसीदास का बड़ा विरोध करते हैं, और कहते हैं कि तुलसीदास नारी विरोधी थे!

अब सवाल यह है कि अगर तुलसीदास की नजर मे नारियाँ 'ताड़ना' की अधिकारी है, तो सीता के बारे मे उनके क्या विचार थे? क्योंकि सीता भी तो नारी ही थी, जिसे वो "माता" मानते थे! पर तुलसीदास ने पूरे मानस मे सीता के बारें मे कही भी कोई अपशब्द नही लिखा! वास्तव मे तुलसीदास नारी विरोधी नही थे, इसका प्रमाण भी रामचरित मानस मे ही है... 

इसी मानस मे नारियों के बारे मे एक और चौपाई है-
"कत विधि सृजी नारी जग माहीं।
 पराधीन सपनेहु सुख नाही।।"
यह चौपाई तब की हैं, जब शिवजी के साथ पार्वती की शादी हुई और विदाई के समय उनकी माँ मैनावती रो रही थी! तब तुलसीदास को भी बड़ा कष्ट हुआ, और उन्होने कहा कि "भगवान ने नारियों को कैसे बनाया, बेचारी दूसरे के अधीन होती है, और पराधीन को सपने मे भी सुख नही मिलता"

अब इसी मानस की एक दूसरी चौपाई भी देखिये-
"अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी।।"
यह चौपाई बाबा तुलसी ने शबरी के लिये अरण्यकाण्ड मे कही है, इसमे तुलसीदास कह रहे हैं- "जो नीचों मे नीच होते है, नारियाँ उनसे भी नीच होती है"

अब यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि बाबा तुलसी पार्वती को लिये आंसू बहा रहे हैं, और शबरी के लिये 'नीच' शब्द कह रहे हैं! आखिर इसकी वजह क्या है? 
हैं तो दोनो ही नारी! असल मे पार्वती आर्य (सवर्ण) थी, और शबरी दलित (अवर्ण) थी!

तुलसीदास का नारी विरोध भी सेलेक्टिव था, वो केवल अनार्य नारियों का अपमान करते थे, सवर्ण नारियों पर उन्होने एक भी कटाक्ष नही लिखा! सीता का सम्मान बचाने के लिये तो वो झूठ भी लिखते थे!  इसका एक बड़ा उदाहरण मै आपको देता हूँ!रामचरित मानस अरण्यकाण्ड मे तुलसीदास ने सीता और कौआ बने इन्द्रपुत्र जयन्त की कथा लिखी हैं!

तुलसीदास ने लिखा है-
"सीता चरण चोच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा।।"
अर्थात- अपनी मंदबुद्धि के कारण कौऐ ने सीता के चरणों मे चोंच मार दी!
तुलसीदास यहाँ 'चरण' मे चोंच मारने की बात करते हैं, जबकि सच कुछ और ही है!

यही प्रसंग बाल्मीकि ने सुन्दरकाण्ड सर्ग-38 मे लिखा है! 
यहाँ बाल्मीकि साफ लिखते हैं कि जयन्त ने कौआ बनकर सीता की छाती (स्तन) पर चोंच मारी थी!

सीता खुद हनुमान को यह कथा बताती हैं, और कहती है- 'हे हनुमान! कौआरूपी जयन्त ने मेरे स्तनों पर इतने चोंच मारे कि मेरे स्तन घायल हो गये, और उसमे से खून की धारा बहने लगी'

अब जरा देखिये कि सीता के सम्मान को बचाये रखने के लिये तुलसीदास सच को किस चालाकी से हजम कर गये, और 'स्तन' की जगह 'चरण' लिख दिया!
वास्तव मे तुलसीदास घोर जातिवादी थे, और वो जाति देखकर ही नारी का अपमान करते थे! सीता एक सवर्ण महिला थी, तुलसी बाबा उनका सम्मान करते थे! अतः उन्हे झूठ बोलना स्वीकार था, पर सीता के शान मे कोई गुस्ताखी नही होनी चाहिये!


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सांप को कान नही होते हैं यह बात किताबों मे सभी ने पढ़ी होगी, पर किसी को यह नही मालुम कि सांप को कान क्यों नही होते?

मैने भी सामान्य ज्ञान मे पढ़ा था कि सांप को कान नही होते है, और वह अपनी जीभ से इसकी भरपाई करता है! सांप की जीभ कैची के आकार की होती है, जिसे वह बाहर निकालकर हवा मे लहराता रहता है! यह सांप के लिये सेन्सर जैसा कार्य करती है...
लेकिन यह बात बड़ी प्रकृति-विरुद्ध थी कि किसी को कान ही न हो! पर अब जाकर उसका जवाब मिला जिसे विज्ञान अभी तक नही खोज पाया है!

पिछली सदी के महान वैज्ञानिक गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी किताब "कवितावली" के बालकाण्ड-11 मे लिखा हैं-
"डिगति उर्वि, अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र-सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिग्पाल चराचर।।"
अर्थात- सीता स्वयंवर मे जब श्री राम ने शिवधनुष तोड़ा, उस समय उसकी प्रचण्ड टंकार ब्रह्माण्ड के पार चली गयी और आघात से सारे पर्वत, समुद्र तथा तालाब सहित पृथ्वी डगमगाने लगी! उसी टण्कार के फल-स्वरूप सांप भी बहरे हो गये, अर्थात उनका कान उड़ गया।

देखा आपने बाबा तुसलीदास के ज्ञान-विज्ञान को, वास्तव मे त्रेतायुग से पहले सांप को कान होते थे, पर त्रेतायुग की उस घटना के बाद सांप कर्णहीन हो गये।


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तुलसीदास की रचना कवितावली मुझे उनकी सारी रचनाओं से जरा अलग लगी! इसमे तुलसीदास ने अपने जीवन के उन दिनों का वर्णन किया है जब वह अत्यन्त गरीब थे, और भूखे पेट भी रहना पड़ता था! उन्होने यह भी बताया है कि किस तरह से काशी के ब्राह्मण उन्हे मारना चाहते थे!
इतनी सारी विपदाओं को लिखने के बावजूद भी तुलसीदास ने इसमे भी अपनी आदतानुसार जाति-पात और ऊँच-नीच घुसा दिया है!
तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड मे राम की प्रशंसा करते हुये लिखा है-
"सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधबधू सो"
अर्थात- हे राम! आपकी कृपा से जो विभीषण अपने बड़े भाई (रावण) की पत्नि (मंदोदरी) का उपभोग करते हैं, वो भी आपकी कृपा से साधुता पा गये!
यह एक और विवादपूर्ण बात है कि तुलसीदास कह रहे हैं कि भले ही विभीषण अपनी भाभी से विवाह किये पर आपने उन्हे भी संत बना दिया!
सवाल यह है की जो राम बालि को केवल इसलिये मार डाले कि उसने सुग्रीव की पत्नि को कैद करके रखा था, वो भला विभीषण को कैसे क्षमा करते यदि उसने अपनी भाभी का उपभोग किया!

आगे तुलसी दास ने लिखते हैं-
"रिषिनारि उधारि कियो सठ केवटु मीत पुनीत सुकीर्ती लही"
अर्थात- हे राम! आपने उस दुष्ट केवट को मित्र बनाकर पवित्र कर दिया!
जरा सोचो, उस केवट ने दुष्टता का कौन सा कार्य किया था, उसने तो स्नेह से राम के चरण ही धोये थे! वैसे वाल्मीकि रामायण मे ये चरण धोने वाला प्रकरण है ही नही, पर अगर तुलसीदास की ही बात सच मान लें कि केवट ने चरण धोये तो वह दुष्ट कैसे हुआ!
तुलसीदास ने इसी तरह मानस के लंकाकाण्ड मे लिखा है-
"सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो"
अर्थात- हर प्रकार से उस नीच निषाद को राम ने भरत जैसे गले लगा लिया!
अब बताओ, वह निषाद राम का मित्र था! फिर उसने ऐसा कौन सा कुकर्म कर दिया था कि तुलसीदास ने उसे नीच बना दिया, और अगर वह नीच था तो फिर राम ने उससे मित्रता क्यों की?
तुलसीदास ने समाज मे जाति-पात का वह जहर घोला है जिसका असर आज भी कायम है!

तुलसीदास पूरे मानस और कवितावली मे ब्राह्मणों के अलावा और किसी को मनुष्य मानने को तैयार ही नही थे!
वैसे तुलसीदास जातिवाद बहुत मानते थे, पर जब वो बुरे दौर मे थे, तब किसी भी जाति के घर मांगकर खा लेते थे!
इसी कवितावली मे तुलसी ने लिखा है-
"मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कुछ भाल भलाई।
 नीच निरादरभाजन     कादर    कूकर-टूकन   लागि ललाई।।"
अर्थात- माता-पिता ने मुझे पैदा करके त्याग दिया, और ब्रह्मा ने भी भाग्य मे कुछ अच्छा नही लिखा था! तब मै निरादर होकर कुत्ते के मुँह मे टुकड़े को देखकर ललचाता था!
आगे तुलसीदास लिखते हैं-
"जातिके, सुजातिके, कुजाति के पेटागि बस।
 खाए   टूक सबके    बिदित बात  दूनीं सो।।"
अर्थात- मैने पेट की आगि (भूख) के कारण अपनी जाति, सुजाति और कुजाति सभी के टुकड़े मांगकर खाये है, और यह बात सभी को पता है।
अब जरा मानस अयोध्याकाण्ड-193 की चौपाई देखो-
"लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।"
अर्थात- तुलसीदास यहाँ कह रहे हैं कि केवट लोकरीति और वेदरीति से सब भाँति नीच है, और जिसे उसकी परछाई छू ले उसे स्नान करना चाहिये!
सवाल तो यह भी होता है कि अगर परछाई छूने पर स्नान करना है तो फिर तुलसीदास ने बचपन मे कुजातियों के घर भोजन किया था, तो वो कैसे पवित्र हुये?
दूसरी बात तुलसीदास ने अपनी मुर्खतावश वेदों पर भी आक्षेप लगा दिया है, वेदों ने किसी को भी नीच बताया ही नही है!
वेद कहते हैं "कृण्वन्तो विश्वमार्यम् " अर्थात- पूरे संसार को श्रेष्ठ बनाओ!
फिर तुलसीदास ने कौन से वेद पढ़े थे जो निषादों (केवट) को नीच बताता है!
तुलसीदास ने वेदों का आक्षेप लगाना यही नही रोका, आगे अयोध्याकाण्ड-195 मे उन्होने लिखा है-
"कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।"
अर्थात- केवट कपटी, डरपोक, मूर्ख और कुजाति होते हैं, तथा सभी प्रकार मे लोकरीति और वेदरीति से बाहर हैं!

अब सोचना यह है कि तुलसीदास ने यहाँ केवटों को कुजाति कहा हैं, और कवितावली मे कुजाति का भोजन करने की बात की है!
साथ ही साथ केवटों को लोकरीति से वेदव्राह्य बता रहे हैं!
मै जानना चाहता हूँ कि किस वेद ने निषादों का परित्याग किया है!

केवटों के विरुद्ध तुलसीदास इतना जहर उगलकर गये हैं, पर अज्ञानता-वश केवट भी रामचरित मानस का पाठ करवाते हैं!





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इस्लाम की मान्यता है की जब कोई इंसान मरता है तो अगर उसने अल्लाह के बनाये नियम अर्थात कुरान पर ईमान लाया है और मोहम्मद साहब को अपना नबी माना है तो वह जन्नत मे जायेगा। यदि उसने ऐसा नही किया है तो उसे जहन्नुम की आग नसीब होगी...
पर ये सब इतनी शीघ्र नही होगा, अर्थात इंसान मरने के बाद कब्र मे कयामत होने तक पड़ा रहेगा, और कयामत के बाद ही अल्लाह यह निर्णय करेंगे कि कौन जन्नत जायेगा और कौन जहन्नुम?

मुसलमानों को हजारों सालों तक कब्र मे पड़े रहने से बचने का एक उपाय है, जिसे तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड पद संख्या-76 मे लिखा है!
तुलसीदास ने लिखा है-
"आँधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु, 
 सूकरके सावक ढ़कँ ढकेल्यो मगमे।
गिरो हिएँ हहरि हराम हो हराम हन्यो,
हाय! हाय करत परीगो कालफगमे।।
तुलसी बिसोक ह्नै त्रिलोकपतिलोक गयो,
नामकें प्रताप बात बिदित है जगमे।"

अर्थात- एक सुअर के बच्चे ने किसी अंधे, पापी और बुढ़ापे से जर्जर मुसलमान को रास्ते मे धक्का देकर गिरा दिया! वह जोर से गिर गया और भयभीत होकर "ह'राम ने मार डाला, ह'राम ने मार डाला" ऐसा चीखने लगा! इस प्रकार वह चिल्लाते हुये मर गया और अन्तिम समय मे भूल वश राम (ह'राम) कहने से वह समस्त पापों के बन्धन से छूटकर त्रिलोकीनाथ के धाम (वैकुण्ठ) चला गया।

अब मुसलमानों को निर्णय लेना है कि अल्लाह-अल्लाह करके सदियों तक कब्र मे पड़े रहना है, या अन्तिम समय से राम-राम करके सीधा वैकुण्ठ-धाम जाना है!

वैसे मेरा तो वैकुण्ठ का टिकट पक्का है, क्योंकि मै तो हमेशा राम-राम ही करता हूँ, हाँ भले ही श्रद्धा से नाम नही लेता, पर घृणा से नाम लेने पर भी वही प्रभाव होता है!
तुसलीदास ने लिखा है-
"तुलसी मेरे राम को रीझि भजो या खीझ।
भौम पड़ा जामे सभी उल्टा-सीधा बीज।।"
अर्थात- जैसे जमीन के अन्दर पड़ा बीज चाहे उल्टा हो या सीधा, फिर भी जाम जाता है, वैसे ही मेरे राम का नाम चाहे श्रद्धा से लो या घृणा से, पर फल भरपूर मिलता है।



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हनुमान चालीसा का दोहा तो लगभग सबने पढ़ा ही होगा-
"नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरन्तर हनुमत वीरा।।"
यहाँ तुलसीदास लिखते हैं कि जो निरन्तर हनुमान का नाम जपता है, उसके सारे दर्द और रोगों का नाश हो जाता है!

अब मै आपको तुलसी बाबा की जीवनी बताती हूँ, तुलसीदास की मृत्यु बड़ी भयंकर हुई थी! इनके पैरों मे बेवाई फट गयी थी और इनके हाथ भी काम करना बन्द कर दिये थे, तथा बाहों मे भयंकर दर्द होता था!

दर्द से तुलसीदास न तो भजन कर पाते थे, और न ही पूजन!
इसी दर्द के निवारण के लिये तुलसीबाबा ने 'हनुमान बाहुक' लिखी थी!
तुलसीदास दर्द से तड़पते हुये राम से प्राथना करते हैं-
"बाँह की बेदन बाँह पगार, पुकारत आरत आनन्द भूलो।
श्रीरघुवीर निवारियो पीर, रहौं दरबार परो लटि लूलो।।"
                                         (हनुमान बाहुक-36)
अर्थात- हे श्रीराम! बाहों की पीड़ा से सारा आनन्द भुलाकर दुःखी होकर पुकार रहा हूँ! हे रघुवीर मेरी पीड़ा दूर करो जिससे मै दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबार मे पड़ा रहूँ!

वास्तव मे तुलसीदास लूले हो चुके थे, उन्हे पता चला गया था कि राम के नाम से उनका काम नही होने वाला, अन्ततः तुलसीदास ने तंत्र-मंत्र करना शुरू कर दिया!
हनुमान बाहुक-30 मे तुलसीदास ने लिखा है-
"आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें, 
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक तंत्र-मंत्र टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है।।"

अब इसे तो पढ़कर ही हंसी आती है कि जो तुलसी दावा करते थे कि राम उनसे मिलने आते थे, वो कह रहे हैं कि बाहों की पीड़ा इतनी बढ़ी है कि औषधि, तंत्र-मंत्र सब कर लेने के बाद भी राहत नही मिलती!

तुलसी बाबा जीवन भर दूसरों को जातिसूचक गाली देते रहे, और अन्त मे ऐसी स्थिति मे पड़ गये कि सारी हेकड़ी निकल गयी!

तुलसीदास की हालत कैसी थी वह हनुमान बाहुक की घनाक्षरी-38 से समझी जा सकती है!
"पाँयपीर, पेटपीर, बाँहपीर, मुँहपीर,
जरजर सकल शरीर पिरमई है।
देव, भूत, पितर, करम, खल, काल, ग्रह,
मोहिपर दवर दमानक सी दई है।।"
अर्थात- पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, मुँह की पीड़ा, और बाँहों की पीड़ा से शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया है! ऐसा लगता है कि देवता, प्रेत, पितर, काल और ग्रह सब एक साथ मेरे ऊपर तोपों की बाड़ सी दे रहे हैं!

इसे गौर करना रामभक्तो! ये हालत थी राम के बड़े वाले तथाकथित भक्त की! यह बातें किसी और ने नही, खुद तुलसीदास ने लिखी है!
तुलसी बाबा दुनिया को सलाह दे गये कि हनुमान के नाम से दर्द और पीड़ा भाग जायेगी, पर खुद तो फन कुचलें सांप की तरह तड़प रहे थे!

मै विश्वास से कहती हूँ कि जो एक बार हनुमान बाहुक पढ़ेगा, उसे तुलसी की दशा पर रोना आयेगा और उसी समय उसके मन से रामभक्ति हवा हो जायेगी!

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मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...