Saturday, 17 October 2020

त्यौहार।

होली : एक असुर महिला को जिन्दा जलाने का जश्न है

क्यों मनायें हम अपने ही लोगों की ह्त्या का जश्न? होलिका मेरी ही तरह बहुजन थी, मूलनिवासी थी। वह असुर कन्या थी, जिसे वैष्णव आर्यो ने मारा, जि़ंदा जला दिया, फिर हम उसे जलाये जाने का जश्न हर वर्ष क्यों मनायें?’,

 डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “फिलोसोफी ऑफ हिन्दुइज्म” में एक जगह लिखा है, 

“आज के हिंदू सबसे प्रबल विरोधी मार्क्सवाद के हैं। और इसलिए हैं, क्योंकि वे उसके वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भयभीत हैं।  लेकिन वे भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष की भूमि रहा है, बल्कि वर्ग-संग्राम की भी भूमि रहा है।

अब एक साक्षी ऋग्वेद (10, 22-8) से लेते हैं, “हे इंद्र! हमारे चारों ओर यज्ञ-कर्म से शून्य, किसी (ईश्वरीय सत्ता) को न मानने वाले, वेद-स्तुति के प्रतिकूल कर्म करने वाले दस्यु हैं, वे मनुष्य नहीं हैं। उनका नाश करो।”

स्पष्ट है कि यह वर्गसंघर्ष और वर्गसंग्राम भारत के लिए नया नहीं हैं। वैदिक काल में जो देवासुर संग्राम शुरू हुआ, वह आज तक, इस इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में भी, चल रहा है।

देवों ने न केवल अपने विरोधी असुरों को मारा, बल्कि उसे उन्होंने अपने धर्म की जीत भी घोषित किया और व्यापक स्तर पर उसका जश्न मनाया। लगभग सभी हिंदू त्यौहारों की बुनियाद में यही देवासुर संग्राम है, चाहे वह दुर्गापूजा हो, दशहरा हो, दिवाली हो, या होली हो। ये सारे त्यौहार असुरों की मौत पर देवों अर्थात ब्राह्मणों के जश्न हैं।

  महाभारत के अनुसार, प्रह्लाद ने देवासुरसंग्राम में इंद्र को परस्त कर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था। वह अपनी जनता में अपने धार्मिक सद्गुणों से इतना लोकप्रिय था कि इंद्र उससे अपना राज्य वापिस नहीं ले सकता था। 

अत: इंद्र ब्राह्मण का वेश बनाकर प्रहलाद के पास गया, और उससे अपना धर्म सिखाने की प्रार्थना की। इंद्र की प्रार्थना पर प्रह्लाद ने इंद्र को अपने सनातन धर्म की शिक्षा दी।  अपने शिष्य से प्रसन्न होकर प्रह्लाद ने इंद्र से वरदान मांगने को कहा, और ब्राह्मण वेश बनाए हुए इंद्र ने कहा, ‘मेरी इच्छा तुम्हारे सद्गुण पाने की है,’ इंद्र प्रहलाद का गुण और धर्म अपने साथ लेकर चला गया। और प्रह्लाद के धर्म पर चलकर इंद्र ने उसकी सारी कीर्ति खत्म कर दी।

देव-विरोधी असुरों के साथ ब्राह्मण-छल की यह कोई पहली घटना नहीं है, हिंदू कथाओं में, जिसे वे इतिहास कहते हैं, ब्राह्मणों के छल की ऐसी अनेक कहानियां हैं। 

यही छल एकलव्य के साथ किया गया था, जिसका अंगूठा मांगकर गुरु द्रोणाचार्य ने उसको विद्या-रहित कर दिया था। ठीक उसी तरह प्रहलाद से उसका धर्म लेकर उसका सर्वस्व ले लिया गया था।

 प्रहलाद ने जिस सनातन धर्म की शिक्षा दी थी, वह वैदिक वर्णव्यवस्था वाला धर्म नहीं था, क्योंकि इंद्र उसे क्यों सीखता, जबकि वह उसी धर्म से आता था? 

दरअसल, इंद्र ने प्रहलाद से देव-विरोधी असुर धर्म को त्यागने का वरदान माँगा था। अपने धर्म को त्यागने के बाद प्रह्लाद अपने समुदाय की नजर में गिर गया था, और इंद्र ने अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था।

 ठीक यही तरीका हमें बलि की कहानी में मिलता है, जिसमें विष्णु ने बौने वामन का रूप धारण करके एक वरदान के जरिये उसका समस्त राज्य छीन लिया था। 

बलि राजा से जुड़े अनेक मिथकों से पता चलता है कि प्रह्लाद ने, जो रिश्ते में बलि का दादा था, बलि को सावधान किया था कि यह बौना वामन असल में विष्णु है।

 एक अन्य कथा में प्रह्लाद बहुत ही तीखे शब्दों में प्रतिवाद करता है कि विष्णु ने बौना बनकर उसके पोते बलि के साथ धोखा किया है और उसे लूटा है (देवीभागवतपुराण)।

 एक और मिथक, जो एकलव्य से जुड़ा है, बताता है कि किस तरह स्वयं इंद्र ने बलि के पिता विरोचन से भी वरदान के जरिये उसका सिर मांग लिया था। इंद्र ने कहा था, “मुझे अपना सिर दे दो। ” और विरोचन ने तुरंत अपना सिर काटकर इंद्र को सौंप दिया था। (स्कन्दपुराण)।

मिथक इतिहास नहीं हैं, यह सच है, पर उनमें भारत के मूल निवासी असुरों के साथ हुए वर्गयुद्धों और उस युद्ध में शहीद हुए असुर राजाओं की नृशंस हत्याओं का पूरा राजनीतिशास्त्र है।

 कोई भी व्यक्ति न अपने हाथ से अपना अंगूठा काटकर किसी को देगा, और न अपना सिर काटकर देगा। किसी का भी अपने हाथ से अपना सिर काटना, और फिर, उस कटे सिर को अपने ही हाथ में लेकर दूसरे को सौंपना—ये दोनों ही बातें अविश्वसनीय है।

 हकीकत में एकलव्य का जबरन अंगूठा काटा गया था, और विरोचन की हत्या की गयी थी। आज भी धर्म के लिए की गयी हत्याओं को मिथकीय रंग दे दिया जाता है, पुराणों ने भी यही काम किया था। पर उसने एक कदम आगे बढ़कर देव-विरोधी असुरों को जनता का खलनायक बनाने का भी काम किया।

 प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु की हत्या तो और भी बड़ी क्रूरता है। उसे उसी के महल में घुसकर नरसिंह ने मारा था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस असुर राजा का पूरा वंश ही ब्राह्मणों के निशाने पर था, और उसका बीजनाश करके ही उन्होंने दम लिया था।

 इसकी जो मिथकीय कथा विष्णु पुराण और भागवत पुराण में मिलती, उसके अनुसार, देवविरोधी हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा से यह वरदान मिला हुआ था कि वह न मनुष्य के द्वारा, न देवताओं के द्वारा, न पशु के द्वारा, न भीतर, न बाहर, न दिन में, न रात में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न शस्त्र से, न अस्त्र से मारा जायेगा। 

अपनी अमृत्यु से निश्चिंत होकर उसने पृथ्वी और स्वर्ग में उत्पात मचाना शुरू कर दिया। किन्तु, उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था।  सो, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने की धमकी दी, जो विष्णु को सर्वव्यापी ईश्वर मानने पर जोर देता था।  तब हिरण्यकशिपु ने एक खम्बे में लात मारकर पूछा, “क्या वह इसमें भी है?” अचानक उसी समय खम्बा फाड़कर शेर जैसा मनुष्य (नरसिंह) प्रगट हुआ। और उसने हिरण्यकशिपु को अपने घुटनों पर रखकर अपने लम्बे नाखूनों से फाड़कर मार डाला। उसके बाद विष्णु-भक्त प्रह्लाद असुरों का राजा बना और अपनी देवविरोधी प्रकृति को त्यागकर देवों के प्रति समर्पित हो गया।

यह बहुत ही सामान्य कहानी है, जो अनेक असुरों पर दुहराई गयी है। महाभारत में वर्णित इंद्र और असुर वृत्र (अथवा नमुची) की कहानी भी इसी तरह की है, जिसे गोधूलि (न दिन और रात) में समुद्र के किनारे (न भूमि और न समुद्र) मारा गया था। 

रावण और महिष की हत्याओं की कहानी भी कुछ इसी तरह की है।

 इस कहानी में प्रकृति को ही चुनौती दी गयी है। सभी वस्तुएं और जीवजन्तु मरणशील हैं, कोई भी अमर नहीं है। इस पौराणिक कहानी में इसी प्रकृति का खंडन किया गया है। यह माया हिन्दूधर्म में ही है कि देवता मनुष्यों को अमर होने का वरदान देते हैं, पर इसके बावजूद कोई अमर नहीं रहता है। 

 दूसरी बात यह विचारणीय है कि जो प्रह्लाद राजा बलि को चेता रहा है, वह खुद विष्णु-भक्त कैसे हो सकता है? 

तीसरी बात यह कि अगर प्रह्लाद इतना परम विष्णु-भक्त था कि उसके लिए वह खम्बा फाड़ कर नरसिंह के रूप में प्रगट हुए, तो उसने अपने पिता को बचाने को क्यों नहीं कहा?

 उसने अपने पिता की हत्या कैसे बर्दाश्त कर ली? यह कहानी यह साबित करने की कोशिश है कि प्रह्लाद ने अपनी ब्राह्मण-भक्ति में अपने असुर-धर्म, अपनी असुर-संस्कृति और अपने पिता तक को कुर्बान कर दिया।

हकीकत यह है कि हिरण्यकशिपु ने बलि और विरोचन की तरह ब्राह्मणों के आगे घुटने नहीं टेके थे, और उसने अंत तक असुरों के हित में संघर्ष और युद्ध किया था।

 जब उसके पुत्र प्रहलाद को ब्राह्मणों ने राज्य का लालच देकर अपने ब्राह्मण राष्ट्रवाद में शामिल कर लिया था, तो भी हिरण्यकशिपु ने हथियार नहीं डाले थे। किन्तु यही विष्णु-भक्ति प्रह्लाद के भी पतन का कारण बनी थी। 

ब्राह्मण-भक्ति की जो भूमिका विभीषण ने निभाई थी, वही प्रह्लाद ने निभाई थी।

 इस सम्बन्ध में महात्मा जोतिबा फुले का मत भी गौरतलब है। सम्भवतः फुले पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने हिन्दू मिथकों का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। वे नरसिंह के विषय में “गुलामगीरी” में लिखते हैं, ‘वराह के मरने के बाद द्विजों का मुखिया नरसिंह बना था। सबसे पहले उसके मन में हिरण्यकशिपु की हत्या करने का विचार आया। उसने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि उसको मारे वगैर उसका उसे मिलने वाला नहीं था। 

उसने अपने एक द्विज शिक्षक के माध्यम से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के अबोध मन पर अपना धर्म-सिद्धांत थोपना शुरू किया। इसकी वजह से प्रह्लाद ने अपने हरहर नाम के कुलस्वामी की पूजा करनी बंद कर दी। प्रह्लाद पर द्विज रंग ऐसा चढ़ा कि हिरण्यकशिपु की उसे समझाने की सारी कोशिशें बेकार गयीं। 

तब नरसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने को उकसाया। पर ऐसा करने की प्रह्लाद की हिम्मत नहीं हुई। अंत में नरसिंह ने अपने शरीर को रंगवाकर मुंह में नकली शेर का मुखोटा लगाकर अपने शरीर को साड़ी से ढककर प्रह्लाद की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में एक खम्बे की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया। और जब हिरण्यकशिपु आराम के लिए पलंग पर लेटा, तो शेर बना नरसिंह उस पर टूट पड़ा, और बखनखा से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी।’ 

महात्मा फुले ने यह भी लिखा है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद नरसिंह सभी द्विजों को साथ लेकर अपने मुल्क भाग गया। जब क्षत्रियों को पता चला तो वे आर्यों को द्विज कहना छोड़कर ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज़, दुष्ट) कहना शुरू कर दिया। बाद में इसी ‘विप्रिय’ शब्द से उनका नाम ‘विप्र’ पड़ा।

हिरण्यकशिपु के प्रकरण में अभी होलिका का प्रवेश होना बाकी है। यह शायद किंवदंती है, जिसमें कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान प्राप्त था। उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी, जो आग में नहीं जलती थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी इसी बहिन की सहायता से प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई।  

होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर धू-धू करती आग में जा बैठी। किन्तु विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ, और होलिका जलकर भस्म हो गयी। कहते हैं कि तभी से होली का त्यौहार मनाया जाने लगा।

क्या इस कहानी पर यकीन किया जा सकता है? वास्तव में इसकी अंतर्कथा यह है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद उसकी बहिन ने देवों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था 

और प्रह्लाद को भी उसने चेताया था कि ब्राह्मण राष्ट्रवाद समस्त असुर संस्कृति के विनाश का दर्शन है। वह देवों और ब्राह्मणों के रास्ते की अंतिम बाधा थी, जिसे हटाकर ही वे प्रह्लाद के मुखोटे से ब्राह्मण-राज्य कायम कर सकते थे।

 अत: एक दिन अवसर पाकर लाठी-डंडों से लैस ब्राह्मणों ने होलिका को जिन्दा जलाकर मार डाला। 

उसकी मौत पर ढोल-नगाड़े बजाए गए। 

आज उसी तर्ज पर हिंदू हर वर्ष होलिका के रूप में होली जलाकर ब्राह्मणवाद की विजय का जश्न मनाते हैं। 

आज लाठी-डंडों की जगह उनके हाथों में गन्ने होते हैं, पर ढोल-डीजे का शोर तो होता ही है।

बलि

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नरमेधयज्ञ ( पुरुष बलि ) 

यजुर्वेद मे तीसवां  अध्याय तो पूरी तरह पुरुष मेध पर ही है ,महीधर ने इस अध्याय पर भाष्य करते हुए लिखा है कि इस यज्ञ मे 184 पुरुष प्रयोग मे लाए जाते थे । उन्हे यज्ञ के मंडप के स्तम्भो मे बांध दिया जाता था । फिर उनके चारो ओर अग्नि घुमायी जाती थी बाद मे  " वह ब्रम्हा के लिए "  "यह क्षेत्र के लिए है "  यह कह कर प्रत्येक को देवों के लिए चढ़ाया जाता था तत्पश्चात उन्हे स्तम्भो से खोल दिया जात था ( यजुर्वेद 30 /22  महीधर भाष्य )



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बताया गया है कि सभी अवसरों पर वैष्णवी तंत्र की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए,और सभी देवताओं के प्रति बलि दी जानी चाहिए ,यथा...

चंडिका तथा भैरवी के लिए पक्षियों की बलि,कछुओं की बलि,मगरमच्छों की बलि,मछलियों की,नौ प्रकार के जानवरों की बलि,भैंसों की,वृषभों की,बकरों की,जंगली सुवरों की,गैंडों की,बारहसिंघों की,ग्वाना पच्छी की,जंगली हिरनों की,शेरों की,चीतों की,और आदमियों की,तथा बलि चढाने वाले का अपना खून भी बलि के लिए योग्य है बलि देने से राजकुमारों को परमानंद स्वर्ग और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है.

इस तरह से कहा जा सकता है कि तथाकथित हिन्दू धर्म और उसके देवी देवता पूर्णतया हिंसा पर आधारित होते हैं ऐसे में मानवीयता की कल्पना सहज की जा सकती है...

तथाकथित हिन्दू धर्म में जीव हत्या को पाखण्ड और अंधभक्ति के सहारे डर और भय पैदा कर हत्याएं कर सुनियोजित दमन किया गया है.जैसा कि विदित हो बलि प्रथा देवी देवताओं को खुश कर पूण्य और परलोक सुधारने के उद्देश्य से किया जाता रहा है जैसे..

मछली और कछुवे की बलि चढाने से देवी एक माह तक प्रसन्न रहती है,मगरमच्छ की बलि चढाने से तीन महीने,जंगली जानवरों की बलि से नौ महीने,जबकि जंगली वृषभ का रक्त देवी को एक वर्ष तक खुश रखता है ,बारहसिंघे और जंगली सुवर का बलिदान बारह वर्षों तक देवी को प्रष्न रखता है ,सरभस का रक्त देवी को पच्चीस वर्षों तक खुस रखता है और भैसे का रक्त सौ वर्षों तक देवी को खुश रखता है,लेकिन शेर और आदमी का बलिदान देवी को ऐसी प्रसन्नता प्रदान करता है जो एक हजार वर्ष तक चलती है,इन जानवरों का मांस भी इतने ही दिनों तक देवी को प्रसन्नता प्रदान करता है जितना कि उनका रक्त,बारहसिंघों का मांस देवी को पांच सौ वर्षों तक प्रसन्नचित बनाये रखता है रोहित मछली की बलि काली को तीन सौ वर्षों तक प्रसन्न बनाये रखती है.

ऐसी साफ़ बकरी जो चौबीस घंटो में केवल दो बार पानी पीती हो और जो बकरियों में श्रेष्ठ हो उसकी बलि देवताओं को दी जाने वाली श्रेष्ठ बलि मानी जाती है.ऐसा पक्षी जिसका कंठ नीला और सिर लाल तथा टाँगे काली हो उसकी बलि विष्णु को विशेष प्रिय है.

विधिवत दी गई नर बलि से देवी एक हजार साल तक प्रसन्न रहती है और तीन आदमियों की एक साथ बलि देने से देवी इक लाख वर्ष तक प्रसन्न रहती है.पवित्र धर्म ग्रंथों के पाठ द्वारा पवित्र बनाये गए रक्त की बलि अमृत के समान है सिर की बलि देने से चंडिका विशेष प्रसन्न होती है इसलिए जब भी विद्वजन बलि चढ़ाएं तो सिर और रक्त की ही बलि दें और जब यज्ञ करें तो उनके मांस की आहुति दें.

तथाकथित हिन्दू धर्म में देवी देवताओं को खुश रखने के लिए पशु,पक्षियों और इंसानों की बलि पर विशेष बल दिया गया है.और बताया गया है कि जो बलि देने वाला है उसे इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिए कि देवी को खराब रक्त और मांस न चढ़ाया जाय अन्यथा देवी नाराज हो सकती है.कच्ची पक्की शराब देवी को उतने ही समय के लिए खुश रखती है जितने समय के लिए बकरी का बलिदान.

चन्द्रहास या गायत्री द्वारा पशु का जो बध किया जाता है वह सर्वश्रेष्ठ विधि मानी जाती है चाक़ू या छुरे के साथ दी जाने वाली बलि मध्यम दर्जे की बलि और फावड़े जैसी किसी चीज से दी जानेवाली बलि निक्रस्टतम विधि मानी जाती है .तीर जैसे हथियार से की गई बलि देवता स्वीकार नहीं करते हैं ,दुर्गा और कामाख्या देवी को बलि चढ़ाते समय वैदिक मंत्रों का उच्चार करना ही चाहिए.

जिस बर्तन में बलि का रक्त संचय किया जाय वह किसी की सामर्थ्य के अनुसार हो सकता है पर लोहे का नहीं होना चाहिए.

अश्वमेघ छोड़कर किसी भी अवसर पर घोड़े की बलि नहीं दी जानी चाहिए,इसी प्रकार गजमेघ को छोड़कर किसी भी अवसर पर हाथी की बलि नहीं दी जानी चाहिए,किसी ब्राम्हण को किसी शेर या चीते या अपने रक्त या शराब की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए,यदि ब्राम्हण कोई बलि चढ़ाता है तो उसे ब्राम्हह्त्या जैसा पाप लगता है ,इसी प्रकार किसी क्षत्रिय को किसी बारहसिंघे की बलि नही चढ़ानी चाहिए,और यदि किसी शेर चीते या आदमी की बलि चढ़ाना आवश्यक ही हो तो मक्खन आदि पदार्थों से उसके स्थानापन्न बना लेने चाहिए तब बलि देनी चाहिए.

किसी आदमी की बलि देने के लिए राजा की आज्ञा लेना जरूरी है ,किसी विशेष अवसर या खतरों के समय नरबलि केवल राजा या उसके मंत्री ही दे सकते हैं नरबलि देने से पूर्व उसे एक दिन पहले अभिमंत्रित कर तैयार कर लेना चाहिए.
नरबलि देने वाले व्यक्ति को मन्त्रों और रस्सियों से बांधकर उसका सिर काट देना चाहिए और फिर देवी को अर्पित कर देना चाहिए.उक्त विधि विधान के साथ जो यज्ञों का कर्ता धर्ता बलि चढ़ाता है उसकी अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है.

यही वह धर्म है जिसका कलि पुराण में खूब प्रचार प्रसार किया गया है.सदियों तक मनु के अनंतर अब भी यहाँ हिंसा तंत्रों की हिंसा नंगा नाच कर रही है जिसमे पशुओं की हिंसा ही नहीं नर बलि भी है .

कलि पुराण के खूनी परिच्छेद में वर्णित हिंसा भारत में प्रचुर मात्रा में फैली हुई थी,जहाँ तक पशु हिंसा की बात है तो कलकत्ते का काली मंदिर किसी कसाई खाने में तब्दील हो चुका है क्योंकि काली माई को प्रसन्न करने के लिए सैकड़ों बकरियों की रोज बलि चढ़ाई जाती है जो किसी पुराण पर किसी कलंक से कम नहीं है हालांकि आज कालीमाई मंदिर में नरबलि नही होती है पर एक समय यहाँ बकरे बकरियों की तरह नरबलि भी दी जाती थी,वैसे पशुबलि और नरबलि अब भी भारत के हर कोने में बदस्तूर चालू है.यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि काली तो शिव की पत्नी है फिर शिव अहिंसक और काली हिंसक कैसे,यह बात विचारणीय है और वही बता सकते हैं जिन्होंने काली और शिव का निर्माण किया.

विष्णु पुराण के अनुसार ब्रम्हा ने खुद को स्वयंभू मनु माना था,जिसने अपने ही स्त्रीलिंग वाले शरीर को सतरूपा का भी नाम दिया था जिसे उसने अपनी ही पत्नी बनाया था,इसका मतलब तथाकथित ब्रम्हा उभयलिंगी था,या फिर ब्रम्हा ने अपनी ही बहन से विवाह किया था,अगर यह सत्य है तो कितने आश्चर्य की बात है,---खैर---इस ब्रम्हा और सतरूपा से दो लड़के और दो लड़कियां पैदा हुए,जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा प्रसूति और अकुति थे प्रसूति उसने दक्ष को दे दी और अकुति को कुलपिता रूचि को दे दी,अकुति से यज्ञ और दक्षिणा दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए जो बाद में पति पत्नी बन गए(फिर वही भाई बहन की शादी)जिनके बाद में बारह बच्चे पैदा हुए,जो यम नाम के देवतागण हुए.
पहला मनु स्वयंभू था द्वितीय मनु देवतागण कहलाते थे,सप्तऋषि, ऊर्ज, स्तम्भ,प्रण, दत्तोली, रिसभ,निश्चर, अर्वरिवत,चैत्र, किम्पुरुष, और दूसरे और कई मनु के पुत्र हुए,इसके बाद चौथा ,पांचवां,छठा मनु चर्चित हुए.

एकबार मनु एकाग्रचित विराजमान थे तब बड़े बड़े ऋषि मुनि उनके पास पहुंचे और चारों वर्णो के बारे में उनसे पूंछा,तब मनु ने उत्तर दिया..कि..
यह विश्व अन्धकार की शक्ल में विराजमान था तब स्वयंभू मनु की नानाप्रकार के प्राणियों को जन्म देने की इच्छा हुई,तो उसने पहले पानी बनाया फिर उसमें बीज डाला,जो बाद में अंडे में बदल गया ,वह मनु स्वयं लोक के जनक के रूप में उस अंडे से पैदा हुआ,तदनंतर ऋषियों को जन्म दिया जो सृस्टि के स्वामी थे,जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरस,पुलस्त्य,पुलह,क्रतु,प्रचेतस,वशिष्ठ,भृगु और नारद.इन स्वयंभू मनु और इनकी संतानों के शासन में प्रजातंत्र नाम की कोई चीज नही थी,यही वजह है कि तथाकथित हिन्दू धर्म में शिक्षा और न्याय नाम की कोई चीज नही थी मनु का विधान केवल समाज को वर्णाश्रम के विभाजन की शिक्षा देता है और यही वजह है कि हिन्दू धर्म में प्रजातंत्र के लिए कोई जगह नहीं है.यह अप्रजातांत्रिक व्यवस्था जानबूझकर बनायी गयी थी इसका विभाजन है वर्णो में,जातियों में और फिर जातियों का भी जाति बहिस्कृतों में ,यह केवल सिद्धांत नहीं है,बल्कि ये डिग्रियां हैं हुकुमनामें हैं ये सब प्रजातंत्र के विरुद्ध खड़ी की गई दीवारें हैं.
                      

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गरुड़पुराण।

गरुणपुराण कहता है कि जो लोग आज जन्म से ही शारीरिक अपंग है, वो पूर्वजन्म मे महापापी थे, फिर धार्मिक इन पापियों से क्यों सहानुभूति रखते हैं!

गरुणपुराण अध्याय-5 श्लोक 1 से 57 तक मे तमाम पूर्वजन्म के पापियों का वर्णन है!

ब्रह्महत्यारा क्षयरोगी होता है!
गौहत्यारा कुबड़ा! 
कन्या हत्यारा कोढ़ी! 
परस्त्री गमनकर्ता नपुंसक! 
गुरूपत्नि व्यभिचारी चर्मरोगी!
गुरू का निन्दक मिरगी रोगी!
झूठी गवाही देने वाला गूँगा!
पक्षपात करने वाला काना!
पुस्तक चुराने वाला अन्धा!
ब्राह्मणों को पैर से मारने वाला लंगड़ा-लूला!
झूठ सुनने वाला बहरा!
आग लगाने वाला गंजा!
अन्न चुराने वाला चूहा!
धान चुराने वाला टिड्डी!
विष देने वाला बिच्छू!
सुगन्धित वस्तु चुराने वाला छछुन्दर!
मांस चुराने वाला गीध!
नमक चुराने वाला चींटी!
फल चोरी करने वाला बन्दर!
जूता चुराने वाला भेड़!
मार्ग मे यात्रियोंको लूटने वाला बकरा!
विषपान करने वाला काला नाग!
गायत्रीपाठ न करने वाला ब्राह्मण बगुला!
अयोग्य के घर यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण सुअर!
बिना निमंत्रण भोजन करने वाला कौआ!
गर्भपात कराने वाला भिल्ल रोगी!
कम तौलने वाला उल्लू!
सास-ससुर का अपमान करने वाली स्त्री जोंक!
पति का अपमान करने वाली नारी जूँ!
परपुरुष से सम्बन्ध बनाने वाली नारी छिपकली!
स्त्रीलम्पट पुरुष घोड़ा होता है!
ब्राह्मण का धन लेना वाला ब्रह्मराक्षस!
अपने गोत्र की स्त्री से सेक्स करने वाला लकड़बग्घा!
शराब पीने वाला सियार!

इसके अतिरिक्त और भी कई पाप और पापयोनि लिखी है!

मुझे यह पढ़कर भी आनन्द आया कि जितने सुअर है, ये सब पूर्वजन्म मे ब्राह्मण थे, और अयोग्य के घर यज्ञ करवा कर बेचारे सुअर बन गये!



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गरुड़ पुराण बनाम लूट पुराण


नरक और स्वर्ग की बातें महज एक कल्पना पर आधारित हैं लेकिन हिंदू धर्म में लोगों में इन्हें ले कर इतनी भ्रांतियां हैं कि व्यक्ति नरक के नाम से भयभीत हो जाता है. स्वर्गनरक की इन्हीं भ्रांतियों से भरा है गरुड पुराण.

गरुड पुराण में 16 अध्याय हैं. इस में गरुड़ (एक खास पक्षी) और विष्णु का संवाद है. संवाद 2 विषयों को ले कर है. पहला यह कि नरक में कौन जाता है और वहां कैसी कैसी यातनाएं दी जाती हैं. दूसरा यह कि स्वर्ग में क्या सुख हैं और उन का अधिकारी कौन है. गरुड प्रश्न पूछता गया और विष्णु उत्तर देते गए. योजना यह है कि जब भगवान कहेगा तो अंधविश्वासी हिंदुओं को मानना ही पड़ेगा.

मरणासन्न व्यक्ति को नीचे लिटा देना चाहिए. दाह संस्कार के दूसरे या तीसरे दिन जिस स्थान से शव को उठाया गया है उस स्थान को प्रतिदिन लीपा जाए और दीपक जला कर मृतक के परिवार- जनों को 10 दिन तक ब्राह्मण के मुख से गरुड पुराण सुनना चाहिए. पुत्र या मृतक का सगासंबंधी हर रोज पिंडदान करे, जिसे दशगात्र कर्म कहा है. जो दशगात्र कर्म नहीं करता वह और मृतक दोनों नरक में जाते हैं.

मृतक यदि नारी हो तो 11वें दिन और पुरुष हो तो 12वें दिन पिंडदान के बाद ब्राह्मण की पूजा कर 7 प्रकार का अन्न, गौ, शैया, घर, जमीन, सोना, चांदी दान करे. साथ में पहनने के सब वस्त्र, छाता, जूते, ब्राह्मणी को कपड़े और शृंगार सामग्री, मीठा, फल दक्षिणा आदि भेट करे. तभी मृतक और पुत्र (मरने के बाद) को स्वर्ग की गारंटी है अन्यथा कल्पों (4 अरब 32 करोड़ वर्ष का होता है) तक दोनों को 84 लाख नरक की यातनाएं भोगनी पड़ेंगी.

इसे कहते हैं गहरी पैठ. ब्राह्मण लोभी कहलाने से साफ बच गए और विष्णु को अपना दलाल बना कर मृ्रतक परिवार को लूट लिया. कौन चाहेगा कि उस के मातापिता कल्पों तक नरक भोगें. गरुड पुराण लिखने वाले ने विष्णु से नरक की यातनाओं का वर्णन करा कर मृतक के परिवार वालों की भावनाओं के दोहन में भी कोई कसर नहीं रखी.


नरक का वर्णन

जिस तरह पुलिस सच उगलवाने के लिए शातिर चोरों को भयभीत करती है उसी तरह विष्णु ने नरक का हौवा दिखा कर हिंदुओं को भयभीत किया है. नरक कहां है विष्णु ने यह नहीं बताया है, केवल यातनाओं का वर्णन है. नरक का रास्ता 2 हजार योजन (8 हजार मील) लंबा है. रास्ता कांटों से भरा हुआ है, ऊंचे पहाड़ और गहरी खाइयां हैं, वहां छाया, अन्न जल नहीं मिलता और अंगारों की वर्षा होती है. पापी को रास्ते में कुत्ते, शेर व्याघ्र आदि हिंसक पशु नोचते हैं. अंत में यमदूत उसे पाश में बांध कर नरक में बहने वाली वैतरणी नदी में पटक देते हैं जो पापियों के लिए ही बनाई गई है.

वैतरणी नदी 100 योजन (400 मील) लंबीचौड़ी है. इस में पानी के बजाय हड्डियां, पीब (मवाद), रक्त, मांस भरा हुआ है. नदी में बेशुमार जोंक, सर्प, बिच्छू, मगरमच्छ और जहरीले कीड़ेमकोड़ों की भरमार है जो पापी को डसते हैं. जोंक खून पीता है, चील, गिद्ध व कौए उस को नोचते हैं. यमदूत कुल्हाड़ी से काटते हैं, बारबार लोहे के डंडों, मुगदरों से मरने वाले को मारते हैं, उबलते हुए तेल की कड़ाही में डालते हैं. यातनाएं देते हुए यमदूत उस से कहते हैं :

‘‘हे पापी, तू ने केवल अपना और परिवार का पेट भरा है, ब्राह्मणों को गाय, सोना, चांदी, अन्न, भूमि, वस्त्र आदि का दान नहीं किया, अपने पितरों का श्राद्ध नहीं किया. अब तू उस की सजा भोग.’’ (गरुड पुराण अध्याय-3)

पुनर्जन्म, नरक व स्वर्ग काल्पनिक शब्द हैं. यहां नरक का वीभत्स वर्णन कर हिंदुओं को भयभीत किया है ताकि वे ब्राह्मणों को दान देते रहें व मालपुआ खिलाते रहें. प्रश्न यह उठता है कि हिंदू मृतक के शरीर को जला देते हैं. पुराणकार के अनुसार आत्मा दिखती नहीं है. फिर यमदूत पाश में किसे बांधते हैं? हिंसक जीवजंतु किस का खून पीते हैं व नोचते हैं? गरम तेल की कड़ाही में किस को तलते हैं?

विष्णुजी अगर नरक का पता बता देते तो आज के वैज्ञानिक उस की खोज करते और यमदूतों को भी पकड़ने का प्रयास करते.


नरक में कौन जाता है

ब्राह्मण को दान न देने वाले, गौ व ब्राह्मण की हत्या करने वाले, उन का धन अपहरण करने वाले, यज्ञहवन, श्राद्धतीर्थ न करने वाले, जो वेदपुराण, देव, वर्णव्यवस्था की निंदा करते हैं, ब्राह्मण को भोजन नहीं कराते, गायत्री मंत्र व भगवान के नाम का जाप नहीं करते वे सब नरक में जाते हैं. जो शूद्र कपिला गाय का दूध पीते हैं, वेद पढ़ते हैं व यज्ञोपवीत धारण करते हैं वे भी नरक में जाते हैं. जो राजा ब्राह्मण से कर लेता है व दंड देता है वह भी नरक में जाता है.


ब्राह्मण और गौ की हत्या करने वाले की सजा देखिए :

‘‘ब्रह्महा क्षयरोगी स्याद् गोहन: स्यात्कुब्जको जड:’’ (ग.पु.-5-3)
(अर्थात ब्राह्मण का हत्यारा क्षय रोगी, गाय का हत्यारा मूर्ख व कुबड़ा होता है.)
ब्राह्मणों का अपमान करने वाला, दान न देने वाला, बहस करने वाला, राक्षस बनता है तथा सात पीढि़यों तक अपने कुल का नाश करता है.

यहां पुराणकार को वर्ण व्यवस्था, कल्पित व पक्षपातपूर्ण धर्मग्रंथ श्राद्धतीर्थों की चिंता सब से अधिक है ताकि ब्राह्मणों को दान और मुफ्त का भोजन मिलता रहे. इसीलिए विष्णु के माध्यम से वीभत्स नरक का भय दिखाया गया है. तभी तो लोग विश्वास करेंगे. विष्णु ने यह तो बता दिया कि किस पाप से पुनर्जन्म में कौन क्या बनता है पर यह नहीं बताया कि शूद्र के लिए कपिला गाय का दूध पीना और वेद पढ़ना पाप कर्म कैसे हुए?

विष्णु का सेनापति इंद्र तो 15-20 बैलों का मांस एक बार में ही खा जाता था फिर उस को नरक में क्यों नहीं भेजा, उसे देवों का राजा क्यों बनाया? वैदिक काल में ब्राह्मण (आर्य) यज्ञ के नाम पर गाय का मांस खाते थे उन को वैतरणी नदी में क्यों नहीं डाला? कुल मिला कर जो अपने दिमाग का उपयोग करता है और लुटता नहीं है वही नरक को जाता है.


स्वर्ग कौन जाता है

स्वर्ग एक काल्पनिक शब्द है. इसे हिंदू धर्मग्रंथों में विष्णुलोक, इंद्रलोक, देवलोक और बैकुंठ आदि भी कहा गया है. यहां सब प्रकार के सुख मौजूद हैं इसलिए पंडेपुजारी, साधुसंत और कर्मकांडी ब्राह्मण स्वर्ग के नाम पर हिंदुओं को सदियों से ठगते आ रहे हैं. तारीफ यह है कि इस कल्पित नाम के मोह में पड़ कर शिक्षित हिंदू तक लुटता चला आ रहा है.

गरुड पुराण में ब्राह्मणों को पूजने, भोजन कराने, गाय, बैल, घर, जमीन, सोना, चांदी, अनाज और वस्त्र आदि दान की बात बारबार कही गई है. अगर इस को हटा दिया जाए तो 265 पृष्ठों का यह पुराण केवल 10 पृष्ठों का रह जाएगा. लोगों को स्वर्ग भेजने के लिए मैं भी दोहराव के दोष से नहीं बच सकता हूं.

स्वर्ग के दरवाजे की चाबी कर्मकांडी ब्राह्मणों के हाथों में रहती है. मरणासन्न अवस्था में और श्राद्ध के समय जो ब्राह्मण को सब प्रकार का दान देता है और मालपुआ खिलाता है उसे ही स्वर्ग का दरवाजा खुला मिलता है. स्वर्ण दान करने से धर्मराज का चार्टर्ड अकाउंटेंट चित्रगुप्त मृतक के समस्त पापों को खारिज कर देता है.

मरणासन्न अवस्था में गोदान करने से मृतक धर्मराज की सभा का कल्पों तक सदस्य बनता है. परंतु जो गाय हट्टीकट्टी, रोग रहित, जवान, सीधी (सुपाच्य) दुधारू, हाल की ब्याई हो उसे अलंकृत कर बछड़ा दान करने से ही स्वर्ग मिलता है.

दानदाता ‘‘सोने से गाय के दोनों सींग, चांदी से चारों खुर मढ़े, कांसे के पात्र की दोहनी (दूध दुहने, चलाने का पात्र), लोहदंड (खूंटा), सोने की यममूर्ति, घी से भरा कांसे का पात्र, इन सब को ताम्रपत्र के ऊपर रख कर रेशम के धागे से गाय बांध कर दान करे.’’ (ग.पु.-8,-70,71,72)

ब्राह्मण को आभूषण, वस्त्र व दक्षिणा देते हुए इस प्रकार कहे :
‘‘हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, विष्णु रूप, भूमिदेव, आप मेरा उद्धार कीजिए. मैं ने दक्षिणा सहित यह वैतरणी-रूपिणी गाय आप को दी है. आप को नमस्कार है (ग.पु.-8, 78-79)

तारीफ यह है कि गाय ब्राह्मण को नहीं दी जाती बल्कि उस के माध्यम से देवों को दी जाती है.
‘‘गोदानं च ततो दद्यात् पितृणां तारणाय वै
गोरेषा हि मया दत्ता प्रीतये तेऽस्तु माधव.’’
(ग.पु. अध्याय 11, श्लोक 13)
(अर्थात हे माधव, यह गौ मेरे द्वारा आप की प्रसन्नता के लिए दी जा रही है. इस गोदान से आप प्रसन्न होवें.)

पुराणकार का दिमाग कितना चालाकी भरा है. उस ने स्वर्ग के बहाने मरणासन्न अवस्था में मृतक के परिवार से अपनी जीविका की पुख्ता व्यवस्था करा ली, क्योंकि भावनाओं के दोहन का सही समय यही होता है. जिस प्रकार भ्रष्ट मंत्रों और अधिकारी रिश्वत के बल पर अनियमित काम कर देते हैं उसी प्रकार धर्मराज और चित्रगुप्त दोनों रिश्वतखोर हुए. तभी दान करने वालों के समस्त पापों को खारिज कर देते हैं. ब्राह्मण स्वयं बच गया और देवों के नाम से मृतक परिवार स्वयं लुट गया अर्थात मियां का सिर और मियां की ही जूती वाली कहावत चरितार्थ कर दी. इसी को कहते हैं चतुराई. इसीलिए कहा जाता है कि जब तक मूर्ख हैं तब तक चतुर भूखे नहीं मर सकते हैं.

लेकिन केवल गोदान से स्वर्ग नहीं मिलने वाला. पिंडदान (श्राद्ध) करते समय पुत्र का कर्तव्य है कि वह ब्राह्मण को 7 प्रकार का अनाज, पुरुषोचित पहनने के सब वस्त्र, छाता, जूते, आसनी, 5 प्रकार के बरतन और इतनी जमीन दान करे जिस पर 101 गाएं बैठ सकें. ब्राह्मणी को पहनने के सब वस्त्र, बिछिया, चूडि़यां व समस्त शृंगार सामग्री दान करे.

शैया दान करने से मृतक अगले जन्म में पलंग पाता है. शैया मोटी, मजबूत और अच्छी बुनी हुई हो. दरी, गद्दा, चादर, रजाई व तकिया भी दिए जाएं. सोने से बनी विष्णु की मूर्ति, चांदी की बनी ब्रह्मा, शिव व धर्मराज की मूर्तियां ब्राह्मण के चरणों में दान करें. तभी पुत्र सुपुत्र कहलाएगा अन्यथा मल के समान है.

ब्राह्मण को दान देने व भोजन कराने से मृतक धर्मराज की सभा का कल्पों तक सदस्य बनता है. अलंकृत जवान अप्सराएं सदस्यों का सदैव मनोरंजन करती हैं. वहां किसी को कोई काम नहीं करना पड़ता, न कभी बूढ़े होते और न भूखप्यास लगती है.

अब बताइए स्वर्ग का टिकट कितना महंगा है. उस में केवल मालदार ही जा सकता है, भले ही वह कितना ही बेईमान और कुकर्मी हो. गरीब नहीं जा सकता, चाहे वह कितना ही ईमानदार और सदाचारी क्यों न हो.

एक बात विचारणीय है. पुराणकार के अनुसार मृतक 84 लाख योनियों को भोग कर मनुष्य बनता है. जिस प्रकार लेटर बाक्स में पता सहित पत्र डाला जाता है और वह पते वाले को प्राप्त हो जाता है. उसी प्रकार ब्राह्मण को जो खिलाया जाता है वह सूर्य की किरणों द्वारा पुरखों को खाने को मिल जाता है. ब्राह्मण को तो मालपुआ व मिठाई खिलाई जाती है. यदि आप का पुरखा शेर बना तो क्या मिठाई आदि मांस बनता होगा, क्योंकि शेर का भोजन तो मांस है. अगर गोबर का कीड़ा बना तो क्या ब्राह्मण का खाया पदार्थ गोबर बनता होगा? क्योंकि गोबर का कीड़ा मीठा नहीं खाता, अगर खाएगा तो डायबिटीज हो जाएगी, अगर सर्प बना तो क्या ब्राह्मण को खिलाया माल मेढक व कीड़ों में बदल जाएगा जो सर्प का भोजन है.

गरुड पुराण लिखने वाले ने नरक की यातनाओं और स्वर्ग के सुखों का वर्णन विष्णु के कहे अनुसार किया है. यहां प्रश्न उठता है कि विष्णु स्वयं पुराण लिखने वाले के पास आए थे या पुराण लिखने वाला विष्णु के पास गया था, अगर गया था तो कब, कहां और कैसे? क्योंकि विष्णु तो क्षीर सागर में सर्प पर विराजते हैं और क्षीर सागर का कहीं अस्तित्व नहीं है.

गरुड पुराण लिखने वाले ने विष्णु को पक्षपाती और ब्राह्मणों का दलाल बना दिया. तभी उन से कहलाया है कि ब्राह्मण पूजा ही मेरी पूजा है और ब्राह्मणों को दान देने से मैं प्रसन्न होता हूं. सोचना यह है कि ऐसे विष्णु की क्या औकात रही?

कुल मिला कर गरुड पुराण लूट पुराण है जो गपों से भरा हुआ है. फिर (अंधविश्वासी) हिंदू कल्पित नरक, स्वर्ग और पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ कर क्यों लुटते हैं?


Saturday, 10 October 2020

रामचरितमानस, तुलसीदास।

तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड मे राम की प्रशंसा करते हुये लिखा है-

"सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधबधू सो"।
अर्थात- हे राम! आपकी कृपा से जो विभीषण अपने बड़े भाई (रावण) की पत्नि (मंदोदरी) का उपभोग करते हैं, वो भी आपकी कृपा से साधुता पा गये!

आगे तुलसी दास ने लिखते हैं-
"रिषिनारि उधारि कियो सठ केवटु मीत पुनीत सुकीर्ती लही"
अर्थात- हे राम! आपने उस दुष्ट केवट को मित्र बनाकर पवित्र कर दिया!

जरा सोचो, उस केवट ने दुष्टता का कौन सा कार्य किया था, उसने तो स्नेह से राम के चरण ही धोये थे! 

वैसे वाल्मीकि रामायण मे ये चरण धोने वाला प्रकरण है ही नही, पर अगर तुलसीदास की ही बात सच मान लें कि केवट ने चरण धोये तो वह दुष्ट कैसे हुआ!

तुलसीदास ने इसी तरह मानस के लंकाकाण्ड मे लिखा है-
"सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो"
अर्थात- हर प्रकार से उस नीच निषाद को राम ने भरत जैसे गले लगा लिया!

अब बताओ, वह निषाद राम का मित्र था! फिर उसने ऐसा कौन सा कुकर्म कर दिया था कि तुलसीदास ने उसे नीच बना दिया, और अगर वह नीच था तो फिर राम ने उससे मित्रता क्यों की?

इसी कवितावली मे तुलसी ने लिखा है-

"मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कुछ भाल भलाई।
 नीच निरादरभाजन  कादर    कूकर-टूकन   लागि ललाई।।"
अर्थात- माता-पिता ने मुझे पैदा करके त्याग दिया, और ब्रह्मा ने भी भाग्य मे कुछ अच्छा नही लिखा था! तब मै निरादर होकर कुत्ते के मुँह मे टुकड़े को देखकर ललचाता था!

आगे तुलसीदास लिखते हैं-
"जातिके, सुजातिके, कुजाति के पेटागि बस।
 खाए   टूक सबके    बिदित बात  दूनीं सो।।"
अर्थात- मैने पेट की आगि (भूख) के कारण अपनी जाति, सुजाति और कुजाति सभी के टुकड़े मांगकर खाये है, और यह बात सभी को पता है।

अब जरा मानस अयोध्याकाण्ड-193 की चौपाई देखो-
"लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।"
अर्थात- तुलसीदास यहाँ कह रहे हैं कि केवट लोकरीति और वेदरीति से सब भाँति नीच है, और जिसे उसकी परछाई छू ले उसे स्नान करना चाहिये!

सवाल तो यह भी होता है कि अगर परछाई छूने पर स्नान करना है तो फिर तुलसीदास ने बचपन मे कुजातियों के घर भोजन किया था, तो वो कैसे पवित्र हुये?

दूसरी बात तुलसीदास ने अपनी मुर्खतावश वेदों पर भी आक्षेप लगा दिया है, वेदों ने किसी को भी नीच बताया ही नही है!

वेद कहते हैं "कृण्वन्तो विश्वमार्यम् " अर्थात- पूरे संसार को श्रेष्ठ बनाओ!

फिर तुलसीदास ने कौन से वेद पढ़े थे जो निषादों (केवट) को नीच बताता है!

तुलसीदास ने वेदों का आक्षेप लगाना यही नही रोका, 

आगे अयोध्याकाण्ड-195 मे उन्होने लिखा है-
"कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।"
अर्थात- केवट कपटी, डरपोक, मूर्ख और कुजाति होते हैं, तथा सभी प्रकार मे लोकरीति और वेदरीति से बाहर हैं!

अब सोचना यह है कि तुलसीदास ने यहाँ केवटों को कुजाति कहा हैं, और कवितावली मे कुजाति का भोजन करने की बात की है! साथ ही साथ केवटों को लोकरीति से वेदव्राह्य बता रहे हैं! मै जानना चाहता हूँ कि किस वेद ने निषादों का परित्याग किया है! केवटों के विरुद्ध तुलसीदास इतना जहर उगलकर गये हैं, पर अज्ञानता-वश केवट भी रामचरित मानस का पाठ करवाते हैं!


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रामचरितमानस 

"शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन देता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते है, शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है, गुणगणो से युक्त और ज्ञान में निपुण भी शुद्र पूजनीय नहीं है".

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तुलसीदास_और_नारी

तुलसीदास ने रामचरित मानस मे मे एक बड़ी ही चर्चित चौपाई लिखी है-
"ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। 
सकल ताड़ना के अधिकारी।।"

इस चौपाई मे वो नारियों को प्रताड़ना की अधिकारी बता रहें हैं! इस चौपाई की वजह से कई नारीवादी तुलसीदास का बड़ा विरोध करते हैं, और कहते हैं कि तुलसीदास नारी विरोधी थे!

अब सवाल यह है कि अगर तुलसीदास की नजर मे नारियाँ 'ताड़ना' की अधिकारी है, तो सीता के बारे मे उनके क्या विचार थे? क्योंकि सीता भी तो नारी ही थी, जिसे वो "माता" मानते थे! पर तुलसीदास ने पूरे मानस मे सीता के बारें मे कही भी कोई अपशब्द नही लिखा! वास्तव मे तुलसीदास नारी विरोधी नही थे, इसका प्रमाण भी रामचरित मानस मे ही है... 

इसी मानस मे नारियों के बारे मे एक और चौपाई है-
"कत विधि सृजी नारी जग माहीं।
 पराधीन सपनेहु सुख नाही।।"
यह चौपाई तब की हैं, जब शिवजी के साथ पार्वती की शादी हुई और विदाई के समय उनकी माँ मैनावती रो रही थी! तब तुलसीदास को भी बड़ा कष्ट हुआ, और उन्होने कहा कि "भगवान ने नारियों को कैसे बनाया, बेचारी दूसरे के अधीन होती है, और पराधीन को सपने मे भी सुख नही मिलता"

अब इसी मानस की एक दूसरी चौपाई भी देखिये-
"अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी।।"
यह चौपाई बाबा तुलसी ने शबरी के लिये अरण्यकाण्ड मे कही है, इसमे तुलसीदास कह रहे हैं- "जो नीचों मे नीच होते है, नारियाँ उनसे भी नीच होती है"

अब यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि बाबा तुलसी पार्वती को लिये आंसू बहा रहे हैं, और शबरी के लिये 'नीच' शब्द कह रहे हैं! आखिर इसकी वजह क्या है? 
हैं तो दोनो ही नारी! असल मे पार्वती आर्य (सवर्ण) थी, और शबरी दलित (अवर्ण) थी!

तुलसीदास का नारी विरोध भी सेलेक्टिव था, वो केवल अनार्य नारियों का अपमान करते थे, सवर्ण नारियों पर उन्होने एक भी कटाक्ष नही लिखा! सीता का सम्मान बचाने के लिये तो वो झूठ भी लिखते थे!  इसका एक बड़ा उदाहरण मै आपको देता हूँ!रामचरित मानस अरण्यकाण्ड मे तुलसीदास ने सीता और कौआ बने इन्द्रपुत्र जयन्त की कथा लिखी हैं!

तुलसीदास ने लिखा है-
"सीता चरण चोच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा।।"
अर्थात- अपनी मंदबुद्धि के कारण कौऐ ने सीता के चरणों मे चोंच मार दी!
तुलसीदास यहाँ 'चरण' मे चोंच मारने की बात करते हैं, जबकि सच कुछ और ही है!

यही प्रसंग बाल्मीकि ने सुन्दरकाण्ड सर्ग-38 मे लिखा है! 
यहाँ बाल्मीकि साफ लिखते हैं कि जयन्त ने कौआ बनकर सीता की छाती (स्तन) पर चोंच मारी थी!

सीता खुद हनुमान को यह कथा बताती हैं, और कहती है- 'हे हनुमान! कौआरूपी जयन्त ने मेरे स्तनों पर इतने चोंच मारे कि मेरे स्तन घायल हो गये, और उसमे से खून की धारा बहने लगी'

अब जरा देखिये कि सीता के सम्मान को बचाये रखने के लिये तुलसीदास सच को किस चालाकी से हजम कर गये, और 'स्तन' की जगह 'चरण' लिख दिया!
वास्तव मे तुलसीदास घोर जातिवादी थे, और वो जाति देखकर ही नारी का अपमान करते थे! सीता एक सवर्ण महिला थी, तुलसी बाबा उनका सम्मान करते थे! अतः उन्हे झूठ बोलना स्वीकार था, पर सीता के शान मे कोई गुस्ताखी नही होनी चाहिये!


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सांप को कान नही होते हैं यह बात किताबों मे सभी ने पढ़ी होगी, पर किसी को यह नही मालुम कि सांप को कान क्यों नही होते?

मैने भी सामान्य ज्ञान मे पढ़ा था कि सांप को कान नही होते है, और वह अपनी जीभ से इसकी भरपाई करता है! सांप की जीभ कैची के आकार की होती है, जिसे वह बाहर निकालकर हवा मे लहराता रहता है! यह सांप के लिये सेन्सर जैसा कार्य करती है...
लेकिन यह बात बड़ी प्रकृति-विरुद्ध थी कि किसी को कान ही न हो! पर अब जाकर उसका जवाब मिला जिसे विज्ञान अभी तक नही खोज पाया है!

पिछली सदी के महान वैज्ञानिक गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी किताब "कवितावली" के बालकाण्ड-11 मे लिखा हैं-
"डिगति उर्वि, अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र-सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिग्पाल चराचर।।"
अर्थात- सीता स्वयंवर मे जब श्री राम ने शिवधनुष तोड़ा, उस समय उसकी प्रचण्ड टंकार ब्रह्माण्ड के पार चली गयी और आघात से सारे पर्वत, समुद्र तथा तालाब सहित पृथ्वी डगमगाने लगी! उसी टण्कार के फल-स्वरूप सांप भी बहरे हो गये, अर्थात उनका कान उड़ गया।

देखा आपने बाबा तुसलीदास के ज्ञान-विज्ञान को, वास्तव मे त्रेतायुग से पहले सांप को कान होते थे, पर त्रेतायुग की उस घटना के बाद सांप कर्णहीन हो गये।


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तुलसीदास की रचना कवितावली मुझे उनकी सारी रचनाओं से जरा अलग लगी! इसमे तुलसीदास ने अपने जीवन के उन दिनों का वर्णन किया है जब वह अत्यन्त गरीब थे, और भूखे पेट भी रहना पड़ता था! उन्होने यह भी बताया है कि किस तरह से काशी के ब्राह्मण उन्हे मारना चाहते थे!
इतनी सारी विपदाओं को लिखने के बावजूद भी तुलसीदास ने इसमे भी अपनी आदतानुसार जाति-पात और ऊँच-नीच घुसा दिया है!
तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड मे राम की प्रशंसा करते हुये लिखा है-
"सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधबधू सो"
अर्थात- हे राम! आपकी कृपा से जो विभीषण अपने बड़े भाई (रावण) की पत्नि (मंदोदरी) का उपभोग करते हैं, वो भी आपकी कृपा से साधुता पा गये!
यह एक और विवादपूर्ण बात है कि तुलसीदास कह रहे हैं कि भले ही विभीषण अपनी भाभी से विवाह किये पर आपने उन्हे भी संत बना दिया!
सवाल यह है की जो राम बालि को केवल इसलिये मार डाले कि उसने सुग्रीव की पत्नि को कैद करके रखा था, वो भला विभीषण को कैसे क्षमा करते यदि उसने अपनी भाभी का उपभोग किया!

आगे तुलसी दास ने लिखते हैं-
"रिषिनारि उधारि कियो सठ केवटु मीत पुनीत सुकीर्ती लही"
अर्थात- हे राम! आपने उस दुष्ट केवट को मित्र बनाकर पवित्र कर दिया!
जरा सोचो, उस केवट ने दुष्टता का कौन सा कार्य किया था, उसने तो स्नेह से राम के चरण ही धोये थे! वैसे वाल्मीकि रामायण मे ये चरण धोने वाला प्रकरण है ही नही, पर अगर तुलसीदास की ही बात सच मान लें कि केवट ने चरण धोये तो वह दुष्ट कैसे हुआ!
तुलसीदास ने इसी तरह मानस के लंकाकाण्ड मे लिखा है-
"सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो"
अर्थात- हर प्रकार से उस नीच निषाद को राम ने भरत जैसे गले लगा लिया!
अब बताओ, वह निषाद राम का मित्र था! फिर उसने ऐसा कौन सा कुकर्म कर दिया था कि तुलसीदास ने उसे नीच बना दिया, और अगर वह नीच था तो फिर राम ने उससे मित्रता क्यों की?
तुलसीदास ने समाज मे जाति-पात का वह जहर घोला है जिसका असर आज भी कायम है!

तुलसीदास पूरे मानस और कवितावली मे ब्राह्मणों के अलावा और किसी को मनुष्य मानने को तैयार ही नही थे!
वैसे तुलसीदास जातिवाद बहुत मानते थे, पर जब वो बुरे दौर मे थे, तब किसी भी जाति के घर मांगकर खा लेते थे!
इसी कवितावली मे तुलसी ने लिखा है-
"मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कुछ भाल भलाई।
 नीच निरादरभाजन     कादर    कूकर-टूकन   लागि ललाई।।"
अर्थात- माता-पिता ने मुझे पैदा करके त्याग दिया, और ब्रह्मा ने भी भाग्य मे कुछ अच्छा नही लिखा था! तब मै निरादर होकर कुत्ते के मुँह मे टुकड़े को देखकर ललचाता था!
आगे तुलसीदास लिखते हैं-
"जातिके, सुजातिके, कुजाति के पेटागि बस।
 खाए   टूक सबके    बिदित बात  दूनीं सो।।"
अर्थात- मैने पेट की आगि (भूख) के कारण अपनी जाति, सुजाति और कुजाति सभी के टुकड़े मांगकर खाये है, और यह बात सभी को पता है।
अब जरा मानस अयोध्याकाण्ड-193 की चौपाई देखो-
"लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।"
अर्थात- तुलसीदास यहाँ कह रहे हैं कि केवट लोकरीति और वेदरीति से सब भाँति नीच है, और जिसे उसकी परछाई छू ले उसे स्नान करना चाहिये!
सवाल तो यह भी होता है कि अगर परछाई छूने पर स्नान करना है तो फिर तुलसीदास ने बचपन मे कुजातियों के घर भोजन किया था, तो वो कैसे पवित्र हुये?
दूसरी बात तुलसीदास ने अपनी मुर्खतावश वेदों पर भी आक्षेप लगा दिया है, वेदों ने किसी को भी नीच बताया ही नही है!
वेद कहते हैं "कृण्वन्तो विश्वमार्यम् " अर्थात- पूरे संसार को श्रेष्ठ बनाओ!
फिर तुलसीदास ने कौन से वेद पढ़े थे जो निषादों (केवट) को नीच बताता है!
तुलसीदास ने वेदों का आक्षेप लगाना यही नही रोका, आगे अयोध्याकाण्ड-195 मे उन्होने लिखा है-
"कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।"
अर्थात- केवट कपटी, डरपोक, मूर्ख और कुजाति होते हैं, तथा सभी प्रकार मे लोकरीति और वेदरीति से बाहर हैं!

अब सोचना यह है कि तुलसीदास ने यहाँ केवटों को कुजाति कहा हैं, और कवितावली मे कुजाति का भोजन करने की बात की है!
साथ ही साथ केवटों को लोकरीति से वेदव्राह्य बता रहे हैं!
मै जानना चाहता हूँ कि किस वेद ने निषादों का परित्याग किया है!

केवटों के विरुद्ध तुलसीदास इतना जहर उगलकर गये हैं, पर अज्ञानता-वश केवट भी रामचरित मानस का पाठ करवाते हैं!





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इस्लाम की मान्यता है की जब कोई इंसान मरता है तो अगर उसने अल्लाह के बनाये नियम अर्थात कुरान पर ईमान लाया है और मोहम्मद साहब को अपना नबी माना है तो वह जन्नत मे जायेगा। यदि उसने ऐसा नही किया है तो उसे जहन्नुम की आग नसीब होगी...
पर ये सब इतनी शीघ्र नही होगा, अर्थात इंसान मरने के बाद कब्र मे कयामत होने तक पड़ा रहेगा, और कयामत के बाद ही अल्लाह यह निर्णय करेंगे कि कौन जन्नत जायेगा और कौन जहन्नुम?

मुसलमानों को हजारों सालों तक कब्र मे पड़े रहने से बचने का एक उपाय है, जिसे तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड पद संख्या-76 मे लिखा है!
तुलसीदास ने लिखा है-
"आँधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु, 
 सूकरके सावक ढ़कँ ढकेल्यो मगमे।
गिरो हिएँ हहरि हराम हो हराम हन्यो,
हाय! हाय करत परीगो कालफगमे।।
तुलसी बिसोक ह्नै त्रिलोकपतिलोक गयो,
नामकें प्रताप बात बिदित है जगमे।"

अर्थात- एक सुअर के बच्चे ने किसी अंधे, पापी और बुढ़ापे से जर्जर मुसलमान को रास्ते मे धक्का देकर गिरा दिया! वह जोर से गिर गया और भयभीत होकर "ह'राम ने मार डाला, ह'राम ने मार डाला" ऐसा चीखने लगा! इस प्रकार वह चिल्लाते हुये मर गया और अन्तिम समय मे भूल वश राम (ह'राम) कहने से वह समस्त पापों के बन्धन से छूटकर त्रिलोकीनाथ के धाम (वैकुण्ठ) चला गया।

अब मुसलमानों को निर्णय लेना है कि अल्लाह-अल्लाह करके सदियों तक कब्र मे पड़े रहना है, या अन्तिम समय से राम-राम करके सीधा वैकुण्ठ-धाम जाना है!

वैसे मेरा तो वैकुण्ठ का टिकट पक्का है, क्योंकि मै तो हमेशा राम-राम ही करता हूँ, हाँ भले ही श्रद्धा से नाम नही लेता, पर घृणा से नाम लेने पर भी वही प्रभाव होता है!
तुसलीदास ने लिखा है-
"तुलसी मेरे राम को रीझि भजो या खीझ।
भौम पड़ा जामे सभी उल्टा-सीधा बीज।।"
अर्थात- जैसे जमीन के अन्दर पड़ा बीज चाहे उल्टा हो या सीधा, फिर भी जाम जाता है, वैसे ही मेरे राम का नाम चाहे श्रद्धा से लो या घृणा से, पर फल भरपूर मिलता है।



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हनुमान चालीसा का दोहा तो लगभग सबने पढ़ा ही होगा-
"नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरन्तर हनुमत वीरा।।"
यहाँ तुलसीदास लिखते हैं कि जो निरन्तर हनुमान का नाम जपता है, उसके सारे दर्द और रोगों का नाश हो जाता है!

अब मै आपको तुलसी बाबा की जीवनी बताती हूँ, तुलसीदास की मृत्यु बड़ी भयंकर हुई थी! इनके पैरों मे बेवाई फट गयी थी और इनके हाथ भी काम करना बन्द कर दिये थे, तथा बाहों मे भयंकर दर्द होता था!

दर्द से तुलसीदास न तो भजन कर पाते थे, और न ही पूजन!
इसी दर्द के निवारण के लिये तुलसीबाबा ने 'हनुमान बाहुक' लिखी थी!
तुलसीदास दर्द से तड़पते हुये राम से प्राथना करते हैं-
"बाँह की बेदन बाँह पगार, पुकारत आरत आनन्द भूलो।
श्रीरघुवीर निवारियो पीर, रहौं दरबार परो लटि लूलो।।"
                                         (हनुमान बाहुक-36)
अर्थात- हे श्रीराम! बाहों की पीड़ा से सारा आनन्द भुलाकर दुःखी होकर पुकार रहा हूँ! हे रघुवीर मेरी पीड़ा दूर करो जिससे मै दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबार मे पड़ा रहूँ!

वास्तव मे तुलसीदास लूले हो चुके थे, उन्हे पता चला गया था कि राम के नाम से उनका काम नही होने वाला, अन्ततः तुलसीदास ने तंत्र-मंत्र करना शुरू कर दिया!
हनुमान बाहुक-30 मे तुलसीदास ने लिखा है-
"आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें, 
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक तंत्र-मंत्र टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है।।"

अब इसे तो पढ़कर ही हंसी आती है कि जो तुलसी दावा करते थे कि राम उनसे मिलने आते थे, वो कह रहे हैं कि बाहों की पीड़ा इतनी बढ़ी है कि औषधि, तंत्र-मंत्र सब कर लेने के बाद भी राहत नही मिलती!

तुलसी बाबा जीवन भर दूसरों को जातिसूचक गाली देते रहे, और अन्त मे ऐसी स्थिति मे पड़ गये कि सारी हेकड़ी निकल गयी!

तुलसीदास की हालत कैसी थी वह हनुमान बाहुक की घनाक्षरी-38 से समझी जा सकती है!
"पाँयपीर, पेटपीर, बाँहपीर, मुँहपीर,
जरजर सकल शरीर पिरमई है।
देव, भूत, पितर, करम, खल, काल, ग्रह,
मोहिपर दवर दमानक सी दई है।।"
अर्थात- पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, मुँह की पीड़ा, और बाँहों की पीड़ा से शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया है! ऐसा लगता है कि देवता, प्रेत, पितर, काल और ग्रह सब एक साथ मेरे ऊपर तोपों की बाड़ सी दे रहे हैं!

इसे गौर करना रामभक्तो! ये हालत थी राम के बड़े वाले तथाकथित भक्त की! यह बातें किसी और ने नही, खुद तुलसीदास ने लिखी है!
तुलसी बाबा दुनिया को सलाह दे गये कि हनुमान के नाम से दर्द और पीड़ा भाग जायेगी, पर खुद तो फन कुचलें सांप की तरह तड़प रहे थे!

मै विश्वास से कहती हूँ कि जो एक बार हनुमान बाहुक पढ़ेगा, उसे तुलसी की दशा पर रोना आयेगा और उसी समय उसके मन से रामभक्ति हवा हो जायेगी!

ऋग्वेद

ऋग्वेद-भाग-२

पुनः देखिये वेदों का ज्ञान-विज्ञान या भारत के सर्वनाश का संग्राम-
एक इन्द्र नामक आर्य नें भारत के शम्बर और वृत्त जैसे मूलनिवासी राजाओ को धोखे से मौत के घाट उतार दिया और उसके 100 नगरों पर कब्जा कर अपनें आर्यों में बांट दिए-

   जानिए -भारत के विनाश की कहानी-आर्यों के वेदों की जुबानी-

सूक्त - २४ ।( ऋषि - वामदेव गौतम । देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप् , अनुष्टुप् । ) 

का सुष्टुतिः शवसः सूनुमिन्द्रमर्वाचीनं रायस आ ववर्तत् ।ददिर्ह वीरो गृणते ।स गोपतिर्निपिघा नौ जनासः ।।१ ।।

हम लोगों को धन देने के लिए तथा हम लोगों के अभिमुख किस प्रकार से सुन्दर प्रार्थना बल के पुत्र इन्द्रदेव को आवर्तित करे हे याको दीर तथा पशुपालक इन्द्रदेव हम लोगों को पशुओं का धन दें ,हम लोग उनकी प्रार्थना करते हैं .

स वृत्रहत्ये हव्यः स इंड्यः स सद्भुत इन्द्रः सत्यराघाः ।स यामन्ना मघवा मत्ययि ब्रह्मण्यते सुष्वये वरिवो यात् ।।२ ।।

वृत्रासुर को मारने के लिए इन्द्रदेव संग्राम में आहूत होते हैं ।वे स्तुतियोग्य हैं ।वे सुन्दर रूप से प्रार्थित होने पर याजकगणों को धन देने के लिए सत्यधन होते हैं ।धनवान् इन्द्रदेव ।तोत्राभिलाषा तथा सामाभिलाषी याजकगण को धन प्रदान करते हैं ।

तमिन्नरो वि हयन्ते समीके रिरिक्वांसस्तन्वः कृण्वत ब्राम् ।मिथो यत्त्यागमुभयो ।अग्मन्नरस्तोकस्य तनयस्य सातौ ।।३ ।।।

मनुष्यगण युद्ध में इन्द्रदेव के ही आदान करते हैं ।याजकगण शरीर को तपस्या द्वारा ।क्षीण करके उन्ही को वाणकर्ता करते हैं ।याजकगण तथा स्तोता दोनों ही परस्पर संगत होकर पुत्र -पौत्र लाभ के लिए इन्हीं इन्द्र के समीप जाते हैं.

यदा समर्यं व्यचेघावा दीर्घ यदाजिमभ्यख्यदर्यः ।अचिक्रदद् वृषणं पल्यच्छा दुरोण आ निशितं सोमसुद्धिः ।।८ ।।

जब शत्रुओं के हिंसक स्वामी इन्द्रदेव शत्रुओं को जानते हैं ,जब वे दीर्घ संग्राम में व्याप्त ।रहते हैं , तब उनकी पत्नी सोमाभिधवकारी त्रविकारक द्वारा तीक्ष्णाकृत अर्थात् सोमपान करना इससे उत्साहवान् तथा अभीष्टवष इन्द्रदेव का यज्ञगृह में आह्वान करती हैं ।।

भूयसा वस्नमचरत्कनीयोऽविक्रीतो अकानिषं पुनर्यन् ।स भूयसा कनीयो ।नारिरेचीद्दीना दक्षा वि दुहन्ति प्र वाणम् ।।९ ।।।

कोई बहुत पुण्य द्वारा अल्प धन प्राप्त करता है ,फिर क्रता के निकट गमन करक हमने विक्रय नहीं किया है ' कहकर अवशिष्ट मूल्य की प्रार्थना करता है ।विक्रेता ' बहुत दिया है ' कहकर अल्प मूल्य का अतिक्रम नहीं करता है ।चाहे समर्थ होओ या असमर्थ , विक्रय काल में जो वचन हुआ है , अब वही रहेगा ।' 

क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः ।यदा वृत्राणि जङ्घनदथैन में पुनर्ददत् ।।१० ।।।

कौन हमारे इन्द्रदेव को दस गायों द्वारा खरीदेगा ?जब ये शत्रुओं का वध करेंगे , तब इनको फिर मुझे देना.

सुप्राव्यः प्राशुषाळेष वीरः सुष्वेः पक्तिं कृणुते केवलेन्द्रः ।नासुष्वेरापिर्न सखा न जामिद्याव्योऽवहन्तेदवाचः ।।६ ।।

जो व्यक्ति इन्द्रदेव के निकट गमन करता है और सोमाभिषव करता है उसके पवित्र कार्य ।को शीघ्र अभिनवकारी तथा विक्रान्त इन्द्रदेव स्वीकार करते हैं ।जो याजकगण सोमाभिषव नहीं करता , उसके लिए इन्द्रदेव व्याप्त नहीं होते हैं , मित्र नहीं होते है और बन्धु भी नहीं होते हैं ।जो व्यक्ति इनके निकट गमन नहीं करता और उनकी प्रार्थना नहीं करता , इन्द्रदेव उसकी हिंसा करते हैं ।।

न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते ।आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवहो भूत् ।।७ ।।

अभिषुत सोमपायी इन्द्रदेव सोमाभिषव कर्मरहित , धनवान् और लोभी बणिकों ( बनियों ) के साथ मैत्री संस्थापित नहीं करते ।वे उनके निरर्थक धन को उद्धरित कर और नष्ट करते हैं ।वे सोमाभिषवकारी तथा हव्यपाककारी याजकगण के असाधारित मित्र होते हैं.

अहं भूमिमददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मत्यय ।अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केतमायन् ।।२ ।।।

हमने आर्य को पृथ्वी प्रदान किया ।हमने हव्यदाता मनुष्य को सस्य की अभिवृद्धि के लिए वृष्टि प्रदान किया ।हमने शब्दायमान जल या आनयन किया ।देवगण हमारे सङ्कल्प का अनुगमन करते हैं ।

अह पुरौ मन्दसानो व्यैरं नव साकं नवतीः शम्बरस्य ।शततमं वेश्यं सर्वताता दिवोदासमतिथिग्वं यदावम् ।।३ ।।।

हमने सोमपान से मत्त होकर शन्वर के निन्यानवे नगरों को एक काल में ही ध्वस्त किया ।जिस समय हम यज्ञ में अतिथियों के अभिगन्ता राजर्षि दिवोदास का पालन कर रहे थे , उस हमने दिवोदास को सौ नगर निवास करने के लिए दिए.

आदाय श्येनो अभरत्सोमं सहस्रं सवाँ अयुतं च साकम् ।अत्रा पुरधिरजहा दरातीर्मदे सोमस्य मूरा अमूरः ।।७ ।।।

श्येन पक्षी ने सहस्र और अयुत संख्यक यज्ञ के साथ सोमरस को ग्रहण करके उस अन्न का आनयन किया ।उस सोमरस के लाये जाने पर वहुकर्मविशिष्ट प्राज्ञ इन्द्रदेव ने सोमसम्बन्धी हर्ष के उत्पन्न होने पर मूर्ख शत्रुओं का वध किया.

आर्यो का देवता इन्द्र कौन-.?.रात दिन सोमरस पीकर लोगों की हत्या करने वाला,हत्या कर उनकी धनसम्पत्ति लुटलूटकर अपने आर्यो में देने वाला,भारत के मूलनिवासी राजाओ के सैकड़ो नगरो को विध्वंस करने वाला,विध्वंस किये गए नगरों को सोमरस बनाने वाले दिवोदास को मुफ्त में देने वाला,जो सोमरस नहीं पीते यज्ञ कर्म नहीं करते उन्हें शत्रु बताकर मार डालने वाला,महिलाओं को पुत्र प्रदान करने वाला -आखिर कौन है इन्द्र..? भारत के सर्वनाश की और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए बने रहिये प्लेटफार्म पर-

   ऋग्वेद-भाग-२-पृष्ठ-१३४-१३५-१३७-१३८.


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ऋग्वेद की संस्कृति,सभ्यता और धर्म ईरानी-पर्शियन है। क्योकि जेद ही वेद है।
वैदिक-ग्रंथो व अवेस्ता-ग्रंथो में जो भाषा,श्लोको की समानता है৷ उसका प्रदर्शन निम्न उदाहरण से हो जाता है–

अवेस्ता का पद-
★हावनिम् आ रतूम् आ,होम् उपाईत जरथुवैम ৷

ऋग्वेद का पद-
★सावनेम् आ रतोम् आ,सोम् उपैत जरठोष्ट्रम ৷

अवेस्ता के पदों में जरश्त्रुथ का होना स्वाभाविक है परन्तु ऋग्वेद के पदों में जरश्त्रुथ का होना अवेस्ता के पदों का अवतरण है ऋग्वेद।  ईरानी शाखा के अंतर्गद प्राचीन फारसी भाषा की गणना होती है ৷ इसमें हखाम्निशीय वंश के राजा दरायश (Darius) तथा उसके पुत्र जरकसिज (Xerxarius)के शिलालेख तथा तम्रलेख प्राप्त है ৷ प्राचीन फारस की ध्वनिया अवेस्ता एवं वैदिक छान्दस्स रूप सभी एक सामान है।

●अब मत कहियेगा की वैदिक-हिन्दू सभ्यता भारतीय संस्कृति है।
●पालि-प्राकृत राष्ट्र ही भारत है।

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 ऋग्वेद के मंत्र-

ऋग्वेद में वेद मंत्रों का विनियोग जैसा श्रोतकर्म में हुआ है ,वैसा ही गृह्यसस्कारों में भी किया गया है (अब यह बात अलग है कि वेदों के इन मंत्रों का अभी तक कोई सार्थक औचित्य साबित नहीं हुआ हैं हां इन वेद मंत्रों का उपयोग लोगों को पाखंड और अंधविश्वास में धंसाकर लूटा बेहिसाब गया है )वेदों के दशम मण्डल का सूयसूिक्त विवाह संस्कार में प्रयुक्त होता है,गृह्यसंस्कार भी वेदानुमोदित हैं,

जैसे -स्नानमार्जन हेतु ( ऋ . २ / ९ ) , श्राद्ध प्रयोग में ( ऋ . १० / १५ ) , उपनयन में ( ऋ . १० / १९ / ६२ ) , * गर्भाधान में ( ऋ . १० / १८४ ) , प्रेतकर्म में ( ऋ . १० / १६ / १६ ) ऋचाओं का विनियोग होता है,इसी तरह चिता का चयन करने के उपरान्त जब प्रेत (मृतदेह)को चिता पर रखकर जब अग्नि ज्वाला प्रज्वलित होती है ,उस समय यह ऋचा पठित है' हे अग्नि ! इस प्रेत को अत्यधिक दग्ध न कर ,इसमें शोक उत्पन्न न कर ,इसके शरीर को एवं त्वचा को यत्र -तत्र प्रक्षिप्त न कर , इसका पूर्ण दहन करने के उपरान्त इसे पितरों के पास भेज दे, हे जातवेद ! इसके शरीर को सम्यक् रूप से दग्ध कर ,इसे पितरों के पास ले आओ ,जब इस प्रेत के प्राण इस प्रकार देवों के पास जाएंगे -तभी यह देवों के वश में होगा,इत्यादि मंत्रों का विधान प्रेतदहन के समय किया गया है, इसी सूक्त में मृत्यु के उपरान्त मनुष्य का क्या होता है ? जीवात्मा की कर्मगति क्या होती है ? इस प्रकार की तात्त्विक एवं अनुसंधानात्मक सामग्री इसमें सुरक्षित है,

मांत्रिकसूक्त - ऋग्वेद में लगभग ३० सूक्त इस समष्टि वर्गान्तर्गत आते हैं इनमें अनेक प्रकार के रोगनाशक ,गर्भरक्षक , दुष्टस्वप्न एवं अशुभ शकुनों के नाशक ,शत्रु एवं दुष्टमंत्रिकों को नष्ट करने वाले मंत्रों के विनियोग के इष्ट प्राप्त्यर्थ भी मंत्रों का विधान है ( ऋ . ७ / १० / ३ सूक्त ) दद्रसूक्त में ब्राह्मण एवं मेंढक की तुलना हुई है 

जैसे - ‘ सोमयाग में ऋत्विक् जैसे सोमपात्र के पास बैठकर मंत्रोच्चार करते हैं -उसी प्रकार वर्षारम्भ में मेंढक वर्षा की स्तुति करते हैं इस पर पाश्चात्य एवं आधुनिक लोग अनेक आक्षेप करते हैं (आक्षेप तो करेंगे ही जब बिना सिर पैर की बातें की जाएंगी),वास्तव में उनका एकमात्र ध्येय ,भारतीय वैचारिक वर्तनी को कलुषित करना है,वस्तुत : जैसे ऋत्विज् ,याग - निष्पादन में साधकतम होते हैं , वैसे ही मेंढक भी वर्षा की सूचना हेतु प्रमुख कारण हैं,यह सूक्त जलवर्षण हेतु हैं,इसी अभिप्राय से ऋत्विज एवं मेंढक की तुलना की गई है,अपने अभीष्ट सिद्धि के हेतु प्रयुक्त यह गम्भीर मंत्रशास्त्र है,

ऐसे अनेक मंत्रों का संग्रह इस सूक्त के अन्तर्गत होता है, लौकिकसूक्त -इस वर्ग के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण मंत्रों का समावेश होता है,मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय कराने वाली सम्पूर्ण सामग्री इन मंत्रों में है,व्यवहार में मनुष्य की लोभ ,मद ,मत्सर ,मोहादि अनेक वृत्तियों का दिग्दर्शन कराया है,

हमारी नाना बुद्धियाँ होती हैं , मनुष्यों के अनेकानेक व्रत ( कर्म ) होते हैं - तक्षा ,तक्षण की ,वैद्य रोगी की ,ब्राह्मण यज्ञ करने की इच्छा करता रहता है,जैसे गाय के पीछे गोमय चयनकर्ता भागते हैं , वैसे ही हम धन के लिए भागते हैं - नानाधयो वसोयवोनुगा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परिस्रव 'सामाजिक उद्बोधन हेतु एक चिंतामणि के सदृश यह सूक्त है , जो छूत का स्पष्ट निषेध करके उसके गम्भीर परिणामों का अग्रिम दर्शन कराता है -मेरी पत्नी ने कभी भी मेरा अपमान नहीं किया ,न मुझसे घृणा की ,अपितु उसके मन में मेरे एवं मेरे मित्रों के प्रति आदर था,वह गुणवती थी , परन्तु पाशों के प्रेम से उसे मैंने त्याग दिया,क्योंकि मुझे पाशों के अतिरिक्त कुछ भी प्रिय नहीं लगता,' द्यूतव्यसन के उपरान्त दशा का वर्णन प्रत्यक्ष भयावह परिस्थिति का ज्वलन्त संदेश इस प्रकार दिया गया है जुआ खेलने हेतु जब यह बाहर जाता है ,उस समय इसकी पत्नी का हाथ दूसरे पकड़ते हैं इसके माँ -बाप -भाई सभी यही कहते हैं कि हम इसे नहीं पहचानते ,इसे बांधकर ले जाओ,इस ऋचा से पापजनक परिस्थिति को दिखाकर द्युत का निषेध किया गया है,समाज से , परिवार से ,आर्थिक परिस्थिति से नष्ट होकर अन्त में इस व्यसन से परे रहकर कर्मठता का अनोखा संदेश दिया गया है ,जो स्वावलम्बन का प्रत्यक्ष द्योतक है -
   
इस तरह यहां आपनें देखा कि वेद मात्र भ्रांति मंत्रों का संग्रह है,जो संस्कृत में होते हैं,और संस्कृत केवल आर्य ब्राम्हण पढ़ते हैं,इसलिए मंत्रों पर अधिकार सिर्फ आर्य ब्राम्हणों का होता है,और आर्य ब्राम्हणों का यह कहना है कि देवी देवता और भगवान मंत्रों के आधीन होते हैं,इसका सीधा मतलब हुआ कि भारत के देवी देवता और भगवान सिर्फ आर्य ब्राम्हणों के इशारे पर चलते हैं,अब अहम सवाल यहाँ यह है कि भारत के मूलनिवासी बहुजनों को इन आर्य ब्राम्हणों नें पढ़ने लिखने से सदियों से वंचित कर रखा था,जो किसी धर्म कर्म संस्कार संस्थानों के लिए सोच भी नहीं सकते थे,फिर आर्य ब्राम्हणों के वेद,मंत्र,धर्म,संस्कार,संस्थान,देवी,देवता और भगवान तो निरर्थक ही हुए न.
 
           ऋग्वेद-प्रष्ठ-21-22.


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ऋग्वेद

 वेदों का ज्ञान-एक नजर---
 मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः 
सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य !
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी !!

अर्थात तब उस मूर्ख ने अन्न प्राप्त करने हेतु व्यर्थ परिश्रम अपनाया जब -मैं सत्य कहता हूँ कि उससे सम्पादित " किया हुआ अन्न , ‘ अन्न ' न होकर उसकी साक्षात् मृत्यु ही है,जो याचकरूप में आए हुए आर्यमादिकों को अन्न प्रदान कर सन्तुष्ट नहीं करता ,एवं मित्रों को भी सन्तुष्ट नहीं कर पाता ,तथा जो अकेला खाता है उसे महापातको समझना चाहिए-

मतलब जो आर्यो को "अन्न" दान में नहीं देता और अकेला खाता है,वह अन्न उसके लिए साक्षात मृत्यु के समान है और ऐसा आदमी महापातकी होता है-
(वाह भाई वाह क्या वेदों का ज्ञान है मतलब निठल्लों को फ्री में लुटाओ तो ठीक है नहीं तो महापापी घोषित).

-जीव एवं शरीर का सम्बन्ध मन, बुद्धि ,इन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होता है इन्द्रियों के जड़ रहने पर भी वस्तुतः वे सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विश्व की अनेकानेक शक्तिरूप देवताओं के अंशों से संचालित हैं - यह स्पष्ट संकेत १०वें मण्डल के १६ वें सूक्त से प्राप्त होता है-

(इसका मतलब देवी देवताओं को और कोई काम नहीं होता है -उनका काम होता है सिर्फ लोगों के शरीर में घुसकर उन्हें संचालित करना-यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि इन शक्तिरूप देवी देवताओं को शरीर में घुसनकर संचालित करने के लिए केवल भारत के लोगों के ही शरीर मिलते हैं यहां याद रहे बाकी दुनियाँ के लोग सिर्फ प्राकृतिक रूप से जिंदा रहते हैं उन्हें संचालित करने के लिए किसी देवी देवता की कतई कोई जरूरत नहीं होती,यहां एक बात और विशेष तौर पर ध्यान देने योग्य है कि भारत में जब शक्तिरूप देवता ही लोगों के शरीर मन बुद्धि इंद्रियों का संचालन करते हैं तब इसका मतलब साफ हुआ कि भारत में होने वाले हर जघन्य अपराधों,हत्या,बलात्कार,व्यभिचार, चोरी,डकैती,फिरौती,भ्रष्टाचार लूटमार के लिए यही शक्तिरूप देवता ही जिम्मेदार होते हैं-यदि ऐसा ही है तो कम से कम इस अत्याधुनिक युग में ऐसे खुराफाती देवताओं को किनारे लगा देना चाहिए, क्योंकि ऐसा मैं नहीं इनके वेद कह रहे हैं-

ऋग्वेद में निरन्तर शाश्वतप्रकाश की प्रार्थना है,मतलब शाश्वतप्रकाश ही वेद है,परन्तु वेद से अनभिज्ञ व्यक्ति ,भारतीय ज्ञान के उच्छिष्ट को ही क्रिश्चियन धर्म में प्राप्त कर उसकी प्रशंसा करते हैं,वस्तुत : पवित्र वैचारिक सम्पदा ऋग्वेद में ही सुरक्षित है ,नवम मण्डल में कहा है कि - ' जहाँ अखण्ड प्रकाश है ,जहाँ दिव्य तेज सुरक्षित है ,उस स्थान पर पावन प्रवाह में हम स्थिर रहें,जहाँ यमराज रहते हैं ,जहाँ द्युलोक की परिसीमा समाप्त होती है ,जहाँ आपोदेवी हैं ,ऐसे गुप्तस्थान पर मुझे स्थिर करें -अमर करें, द्युलोक के तृतीय दिव्य उच्च स्थान पर जहाँ समस्त स्थल तेजोमय हैं , वहाँ हमें स्थिर करें - अमर करें जहाँ काम्य करनेवाले एवं निष्काम कर्म का आचरण करने वाले मनुष्य रहते हैं ,जो सृष्टि का मूल स्थान है - जहाँ शक्ति है , जहाँ तृप्ति है ,वहाँ हमें स्थिर करें - अमर करें,जहाँ आनन्द है ,जहाँ आनन्दमयता ही है ,जहाँ हर्ष ही है ,जहाँ वासनाओं के साकल्य की वासना भी पूर्ण हो वहाँ हमें स्थिर करें - अमर करें,ऐसी उदात्त भावना ( विमल वैचारिक सरणि ) को कलुषित कहना अपनी ही मूर्खता का निदर्शन मात्र है,यह कार्य केवल मत्सर एवं दुरभिमान से ग्रसित व्यक्ति ही कर सकता है इस प्रकार के १२ सूक्त तत्त्वज्ञानविषयक सारांश को प्रस्तुत करते हैं-

वाह भाई वाह-उपरोक्त जिस काल्पनिक स्थान की वेदों में कल्पना की गई है,पर होशियारी से ऐसी जगह का पता नहीं बताया गया है,शायद उन्हें पता है कि दुनिया में ऐसी कोई जगह है ही नहीं,यहां ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि ये लोग अपनी कुंठित काम वासनाओं को कभी नहीं छोड़ते उन्होंने इसकी भी बाकायदा यहां व्यवस्था कर रखी है कि ऐसे गुप्त स्थान में उनकी काम वासना अच्छी तृप्त होती है ऐसी जगह उन्हें स्थिर किया जाय,ऐसी स्तुति वेदों में की गई है -पर खबरदार यह व्यवस्था सिर्फ आर्यो के लिए ही है अन्यथा दूसरे लोगों के वेद नाम के भी उच्चारण मात्र से जीभ काट लेने की बाकायदा व्यवस्था है-

    ऋग्वेद--भाग-1-क्रमशः-
   प्रष्ठ-19-20-21.
   
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ऋग्वेद का ज्ञान कहाँ विज्ञान कहाँ..?..
ऋग्वेद आर्यो का एक ऐसा लिखित दस्तावेज हैं जिसमें उन अत्याचारी अन्यायियों की स्तुति गान को लिखकर रखा गया है जिन्होंने भारत में मौजूद दुनियाँ की मूल मानव सभ्यता को तहस नहस कर यहां के मुलनिवाशियों को मारकाट कर खतम करा दिया गया और सम्पूर्ण व्यवस्था पर कब्जा कर बाकी बचे मुलनिवाशियों को गुलाम बना दिया गया,ऐसे ही आतताईयों को आर्यों नें देवता और भगवान बना दिया-उदाहरणार्थ जैसे-
अन्तरिक्षस्थानीय देवता अन्तरिक्षस्थानीय प्रमुख देव - इन्द्र ,रुद्र , मरुत् ,पर्जन्य ,अपां नपात् त्रित् , आप्त्य ,अहिर्बुध्न्य आदि हैं इन सभी प्रमुख देवों का विवेचन समुपस्थापित किया जा रहा है इन्द्र - वेदों में इन्द्र सबसे प्रतापी देवता हैं अन्तरिक्षस्थानीय इस देवता की स्तुति ऋग्वेद में २५० सूक्तों में की गई है और अन्य देवों के साथ लगभग ५० सूक्त हैं इन्द्र के स्वरूप के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है कोई इसे युद्ध का ,कोई वर्षा का देवता मानता है ।कोई इन्द्र का अर्थ सूर्य और कोई उसे प्रबुद्ध मन का देवता मानते हैं इन्द्र प्रकाश का दाता ,वृत्र आदि राक्षसों का हन्ता , (मुलनिवाशियों को मौत के घाट उतारने वाला)वृष्टि का कर्ता ,(दरअसल इसी इंद्र नें मुलनिवाशियों के बांध तोड़ तोड़ कर अपने आर्यों को पानी उपलब्ध कराया था ) योद्धा ,शासक , यज्ञ का अधिष्ठाता ,सोमरस का प्रेमी (दारू पीने वाला)और धार्मिक जनों का उद्धर्ता है इन्द्र का प्रमुख शत्रु वृत्र है जो वर्षा को रोके हुए है (मूलनिवासी राजाओ द्वारा बांध बनाकर एकत्र किए गए पानी ) इन्द्र वज्र के द्वारा उसका वध करता है और नदियों को प्रवाहित करता है,इस प्रकार वह वृद्धि का देवता और वृत्रासुर (मूलनिवासी राजा ) का संहर्ता है वह वृत्र के अतिरिक्त बल ,शम्बर और अहि आदि राक्षसों का हन्ता है (यह सब मूलनिवासी राजा हैं) इन्द्र ने असुरों के १९ नगर नष्ट किए (सिंधुघाटी सभ्यता का विनाश) अतएव उसे पुरन्दर ,पुरभित् आदि कहा जाता है(मतलब जिसने भारतीय सभ्यता को समूल नष्ट कर राजाओ तथा प्रजा का कत्लेआम कर बाकी बचे मूलनिवासी लोगों को गुलाम बनाया उसे ही आर्य विदेशियों नें देवता और भगवान बनाकर उनकी स्तुति गान कर ग्रंथो को रचना की ऐसा ही एक ग्रंथ है ऋग्वेद).
  इंद्र दासों और अनार्यो को बलपूर्वक आर्य और गुलाम बना लेता है,वह दस्युओं का संहारक है,और अपने लोगों के हित के लिए शत्रुओं (अनार्यो) का वध करता है,इंद्र का विलक्षण अस्त्र वज्र है पुराणों यह वज्र वृत्रासुर वध के लिए विश्वकर्मा नें ब्रम्हा के आदेश पर दधीचि नामक ऋषि की हड्डियों से बनाया था,इंद्र का रथ दो हरे रंग के घोड़ो द्वारा खींचा जाता है,परंतु कभी कभी घोड़ों की संख्या हजार-ग्यारह सौ तक पहुंच जाती है,इन्द्र कभी -कभी धनुष व वाण भी धारण करता है ' आ बुन्दं वृत्रहा ददे,इन्द्र समस्त संसार का एकमात्र शासक है -‘एक ईशान ओजसा 'इसने काँपती हुई पृथ्वी व पर्वत को टिकाया ,अन्तरिक्ष का निर्माण किया और आकाश को स्तम्भित किया ,इसी ने सूर्य व उषा को उत्पन्न किया और यही जल का नेता भी है -' यः सूर्य य उपसं जजान यो अपां नेता ' इसके समान कोई भी दिव्य या पार्थिव न तो उत्पन्न हुआ है और न ही उत्पन्न होगा - ' न त्वावाँ अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते (लगता लिखने वाले को भी थोड़ा सोमरस पीने को मिल गया होगा इसलिए इंद्र की यह स्तुति दारू के नशे में कर डाली)'इन्द्र का सबसे महत्वपूर्ण और शौर्यपूर्ण कार्य वृत्र (मूलनिवासी राजा ) का वध करना है ,(हत्यारा कभी कोई देवी देवता या भगवान नहीं बन सकता हत्यारा सिर्फ हत्यारा होता है) इसी कारण ‘ वृत्रहा ' विशेषण मुख्य रूप से इन्द्र के लिए प्रयुक्त होता है-
   कुल मिलाकर यहां भी वेदों का न कोई ज्ञान मिला और न विज्ञान, मिला तो बस एक बलशाली आर्य आतंकी हत्यारा जिसने सिंधुघाटी सभ्यता का सर्वनाश कर दिया राजाओ और प्रजा का कत्लेआम किया और जिन्होंने हार मान ली उन्हें हमेशा के लिए अपना गुलाम बना लिया-आर्यो के लिए उनके वेद इसलिए सनातन हैं क्योंकि इसके पहले आर्य कबीलों में रहते थे उन्होंने जब यहां के अनार्यों की सुख संपत्ति को छीना तभी खुद को समृद्ध बनाया और जिसने यह सब किया उसी का गुणगान करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी उसी जिम्मेदारी का यह प्रतिफल हैं उनके ये वेद इसीलिए उनके वेद उनके लेकिन सनातन मतलब सबसे पहले हैं-पर अन्य सभी के लिए पुनः यहां वही सवाल उठता है?.कहाँ है आखिर वेदों का ज्ञान और विज्ञान.?.चिंतन कीजिए और अन्य अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए बने रहिये प्लेटफार्म पर-
  ऋग्वेद-प्रष्ठ-26-27.
        

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-----ऋग्वेद-भाग-१-
आर्यों के वेदों में ज्ञान-विज्ञान या भारतीय मूलनिवासी राजाओं के साथ प्रजा का कत्लेआम,तथा विशाल शहरों के विध्वंस का फरमान--जरूर जानिए वेदों का असली सच---

त्वमपामपिधानावृणोरपाधारयः पर्वते दानुमद्वसु ।वृत्रं यदिन्द्र शवसावधी हिमादित्सूर्यं दिव्यारोहयो दृशे ।।४ ।।

हे इन्द्रदेव !आपने जल - वाहक मेघ को मुक्त किया और पर्वत के दस्यु वृत्र के धन को धारण किया आपने हत्यारे पुत्र का वध किया और संसार को देखने के लिए सूर्य को आकाश में प्रकाशित कर दिया -

त्वं मायाभिरप मानिनोऽधमः स्वधाभिर्ये अधि शुप्तावजुहृत ।त्वं पिप्रोमणः ।प्रारुजः पुरः प्र ऋजिश्वानं दस्युहत्येष्वाविथ ।।५ ।।|

हे इन्द्रदेव !जिन असुरों ने यज्ञीय अन्न को अपने शोभन मुख में डाला ,उन मायावियों को माया - द्वारा आपने परास्त किया मनुष्यों के लिए आप प्रसन्न - चित्त हैं आपने पिघु नामक असुर का निवास स्थान ध्वस्त किया और ऋजिश्वा अषि की रक्षा की.

।।।त्वं कुत्सं शष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् ।महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ।।।६ ।।।- 

हे इन्द्रदेव !शुष्ण असुर के साथ युद्ध में आपने कुत्स ऋषि की रक्षा की और अपने अतिथि - वत्सल दिवोदास की रक्षा के लिए , शम्बरासुर राक्षस का वध किया आपने महान् अर्बुद नाम के असुर को अपने पैरों से कुचल डाला,इन सब कारणों से विदित होता है कि आपने असुरों के वध के लिए ही जन्म ग्रहण किया है.

त्वे विश्वा तविषी सध्यग्घिता तव राधः सोमपीथाय हर्षते तव वज्रश्चिकिते बाहोर्हितो वृश्चा शत्रोरव विश्वानि वृष्ण्या ।।७ ।।।

नि:सन्देह आपके अन्दर समस्त बल निहित हैं ,सोमपान करने पर आपका मन प्रसन्न होता है आपके दोनों हाथों में वज़ है —यह हम जानते हैं जिससे आप शत्रुओं के सारे बलों को नष्ट कर डालते हैं.

वि जानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान् शाकी भव यजमानस्य चोदिता विवेत्ता ते सधमादेषु चाकन।।८ ।।।

हे इन्द्रदेव !कौन आर्य और कौन दस्यु है ,यह बात जाने कुशवाले यज्ञ के विरोधियों का शासन करके उन्हें यजमानों के वश में करें आप शक्तिमान् हैं ;इसलिए यज्ञानुष्ठाताओं की सहायता करते हैं,मैं आपके हर्षोत्पादक यज्ञ में आपके उन समस्त कमों की प्रशंसा करने की इच्छा करता हूँ 

अनुव्रताय रन्धयन्नपव्रतानाभूभिरिन्द्रः श्नथयन्ननाभुवः ,वृद्धस्य चिद्वर्धतो द्यामिनक्षतः स्तवानो वम्रो वि जघान संदिहः ।।९ ।।।

ये इन्द्रदेव यज्ञ -विमुखों को यज्ञप्रिय यजमानों के वशीभूत करके और अभिमुख स्तोताओं द्वारा स्तुति - पराङ्मुखों को विनष्ट करते हैं ,वे द्युलोक को हानि पहुँचाने वाले राक्षसों का वध करते हैं ,ऐसे प्राचीन पुरुष इन्द्रदेव के बढ़ते हुए यश और पराक्रम की वग्न ऋषि ने स्तुति की-

मन्दिष्ट यदुशने काव्ये सचाँ इन्द्रो वङ्क वङ्कतराधि तिष्ठति ,उग्रो ययिं निरपः ,स्रोतसासृजद्वि शुष्णस्य देंहिता ऐरयत्पुरः ।।११ ।।।

जबकि शोभन उशना ऋषि ने इन्द्रदेव की स्तुति की ,तब इन्द्र तेज गतिवाले दोनों घोड़ों पर सवार हुए,उग्र इन्द्रदेव ने गमनशील मेघों से प्रवाह -रूप में जल बरसाया,साथ ही शुष्ण असुर के दृढ़ नगरों को ध्वस्त किया.

आ स्मा रथं वृषपाणेष तिष्ठसि शार्यातस्य प्रभृता येषु मन्दसे ,इन्द्र यथा सुतसोमेषु चाकनोऽनर्वाणं श्लोकमा रोहसे दिवि ।।१२ ।।।

हे इन्द्रदेव !सोमपान करने के लिए रथ पर चढ़कर आवें ,जिस सोमरस से आप प्रसन्न होते हैं , वहीं सोम शार्यात राजर्षि ने तैयार किया है,जैसे अन्य यज्ञों में आप प्रस्तुत सोमपान करते है ,उसी प्रकार शार्यात के सोमरस का पान करें ,ऐसा करने पर दिव्यलोक में आपको अविचल यश प्राप्त होगा 

- अददा अर्भा महते वचस्यवे कक्षीवते वृचयामिन्द्र सुन्वते ।मेनाभवो वृषणश्वस्य सुक्रतो विश्वेत्ता ते सवनेषु प्रवाच्या ।।१३ ।।

हे इन्द्रदेव !आपने अभिषव - कारी और स्तुत्याकाङ्क्षी वृद्ध कक्षीवान् राजा को वृचया नाम की युवती प्रदान की ,हे शोभनकर्मा इन्द्रदेव !आपने वृषणश्व राजा के निमित्त प्रेरक वाणियाँ प्रकट की,आपके ये सभी कर्म सोम सवनों में वर्णन के योग्य है.

इन्द्रो अश्रायि सुध्यो निरेके पत्रेषु स्तोमो दुर्यो न यूपः ,अश्वयुर्गव्यू रथयुर्वसूयुरिन्द्र राग क्षयति प्रयन्ता ।।१४ ।।।

निराश्रितों को एकमात्र इन्द्र ही आश्रय प्रदान करते हैं,दरवाजे में स्तम्भ के तुल्य इन्द्रदेवता के आश्रय के लिए प्रजाओं में इनकी स्तुति अनवरत स्थिर रहती हैं घोड़ों ,गायों ,रथों और धनों के शासक इन्द्रदेवता ही प्रजाओं को अभीष्ट ऐश्वर्य प्रदत्त करते हैं-

(इसतरह हमें आर्यों के वेदों से पता चलता है कि सोमरस "मादक पदार्थ" बनाने वाला एक कलाकार "दिवोदास " है जिसने ताउम्र नशीले पदार्थो का उत्पादन किया इसीके नशे में धुत होकर आर्यो के तथाकथित देवताओं ने मूल भारत का सर्वनाश किया,इसी दिवोदास की इन्द्र नें उम्रभर रक्षा की,नशे में धुत होकर इन्द्र नें अनार्य भारतीय मूलनिवासी राजाओं के पानी के बांध तुड़वाकर पानी को बहाकर नष्ट कर दिया,
मूलनिवासी राजा-वृत्र तथा उसके पुत्र और पिघु नामक असुर राजा की हत्या कर उसके महल को नष्ट कर दिया,शुष्ण नामक असुर राजा की हत्या की,शम्बर राजा की हत्या कर उसके साम्राज्य को तहस नहस कर लूट लिया क्या यही है वेदों का ज्ञान और विज्ञान, क्या सोमरस पीकर जश्न मनाना ही वेदों का ज्ञान और विज्ञान है,वेदों का रचयिता लिखता है कि दुनियाँ को प्रकाशमान बनाने के लिए इन्द्र ने सूर्य को आकाश में रख दिया,लगता सब तो नशेड़ी थे ही वेदों को लिखने वाला सबसे बड़ा नशेड़ी था,जिसने एक इन्द्र नामक व्यक्ति से दहकते विशाल सूर्य को गेंद समझकर आकाश में रखवा दिया-खैर--
   दरअसल आर्यों के वेदों में और कुछ नहीं भारत के मूलनिवासी राजा,प्रजा,नगर,सभ्यता सभी के विनाश और विध्वंस की कहानी लिखी हुई है आर्यो की पोल खुल न जाये इसीलिए वेदों के पढ़ने पर प्रतिबंध लगाया गया है,लेकिन आज हम सभी को मौका मिला है असल सच और काली करतूत जाननें का तो जानिए और,और अधिक जानकारी के लिए बने रहिये प्लेटफार्म पर-
    ऋग्वेद-भाग-१-
    प्रष्ठ-१०२-१०३-१०४

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ऋग्वेद का ज्ञान विज्ञान या..?..
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष ।वाश्राइव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ।।२ ।।

इन्द्र ने पर्वत पर आश्रित मेघ का वध किया ,विश्वकर्ता या त्वष्टा ने इन्द्र के लिए दूरवेधी वज्र का निर्माण किया अनन्तर जिस प्रकार गाय वेगवती होकर अपने बछड़े की ओर जाती है ,उसी प्रकार वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गए 

- वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य ,आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ।।३ ।।।

अति बलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया ।त्रिकद्रुक यज्ञ अर्थात् ज्योतिष्टोम , गोमेध और आयु नामक त्रिविध यज्ञों में चढ़ायें हुए सोम रस का इन्द्र ने पान किया ।धनवान् इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघों के प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया -

यदिन्द्राहप्रथमजामहीनामामायिनाममिनाः प्रोत मायाः ।आत्सूर्य जनयन्द्यामुषास |तादीना शत्रु न किला विवित्से ।।४ ।।

जिस समय आपने मेघों के अग्रज को मारा था , उस समय आपने मायावियों की माया का विनाश किया था ,अनन्तर सूर्य , उषा और आकाश को प्रकाशित किया ,
अन्त में कोई आपका शत्रु नहीं रहा .

अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रण महता वधेन ।स्कन्धांसीव कुलिशेना जमान - द्वारा मतिः आकर रलता प्रत्यक्
अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रण महता वधेन ।स्कन्धांसीव कुलिशेना ।विवृणाहिः शयत उपपृस्पृथिव्याः ।।५ ।।

संसार में अन्धकार करने वाले वृत्र को महाध्वंसकारी वज्र - द्वारा , छिन्न - बाहु करके आपने विनष्ट किया ।वृक्ष की शाखाओं को कुल्हाड़े से काटने के तुल्य उसकी दोनों भुजाओं को काटा और तने की तरह उसे काटकर भूमि पर गिरा दिया ।

अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् ।नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ।।६ ।।

दपन्ध वृत्र ने पृथिवी पर अपने समान योद्धा न समझकर महावीर , वहुध्वंसक और शत्रुञ्जय इन्द्र का युद्ध में आह्वान किया ।इन्द्र के विनाश - कार्य से वृत्र त्राण नहीं पा सका ।गिरते हुए नदियों के किनारों को उसने तोड़ दिया - 

अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान ।वृष्णो वघ्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयव्यस्तः ।।७ ।।

हाथ और पैर से रहित वृत्र ने युद्ध में इन्द्र को बुलाया ।इन्द्र ने गिरि - सानु - तुल्य प्रौढ़ स्कन्ध में वज्र का प्रहार किया ।जिस प्रकार वीर्यहीन मनुष्य पौरुषशाली मनुष्य की समानता करने का व्यर्थ यत्न करता है , उसी प्रकार वृत्र ने भी व्यर्थ यत्न किया ।अनेकों स्थानों में क्षत - विक्षत होकर वृत्र पृथ्वी पर गिर पड़ा.

नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव । । ८ । । 

जिस प्रकार भग्न तटों को लाँघकर नद बहता है ,उसी प्रकार मनोहर जल पतित वृत्र की देह को अतिक्रम करके जा रहा है  जीवितावस्था में अपनी महिमा - द्वारा वृत्र ने जिस जल को बद्ध कर रखा था , इस समय वृत्र उसी जल के नीचे मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा था । ।

 नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः । । ९ । । 

वृत्र की माता वृत्र की रक्षा के लिए उसकी देह पर टेढ़ी गिरी थी ; परन्तु उस समय । इन्द्रदेव ने उसके नीचे के भाग पर अस्र से प्रहार किया,तब माता ऊपर और पुत्र नीचे हो गया,अनन्तर बछड़े के साथ गाय की तरह वृत्र की माता ‘ दनु ' अनन्त निद्रा में सो गई । । 

अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् ,वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घ तम आशयदिन्द्रशत्रुः । । १० । । 

स्थिति - शून्य , विश्राम - रहित , जलमध्य - निहित और नाम - विरहित शरीर के ऊपर से जल बहता चला जा रहा है और इन्द्र - द्रोही वृत्र अनन्त निद्रा में पड़ा हुआ है 

दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार । । ११ । । । ।

पणि नामक असुर - द्वारा जिस प्रकार गौओं अथवा किरणों को अवरुद्ध कर रखा था , उसी तरह वृत्र की स्त्रियाँ भी मेघ - द्वारा रहित होकर निरुद्ध थी ,जल का वाहक द्वार भी बन्द था ,वृत्र का वध कर इन्द्र ने उस द्वार को खोल दिया । 

अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सुके यत्त्वा प्रत्यहन्दैव एकः । अजयो गा अजयः ।
शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् । । १२ । । । 

हे इन्द्रदेव ! जब उस वृत्र ने आपकेवज्र के ऊपर आघात किया , तब आपने घोड़े की पूंछ की तरह होकर उसका निवारण कर दिया ,आपने पणि की छिपाई गाय को भी जीत लिया , त्वष्टा के सोमरस को जीता और सातों समुद्रों या नदियों के लप्रवाह को अप्रतिहत किया .

नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्वादुनिं च । इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये । । १३ । । 

जिस समय इन्द्र और वृत्र में युद्ध हुआ , उस समय वृत्र ने जिस बिजली , मेघ - ध्वनि , जल - वृष्टिऔर वज्र का इन्द्र के प्रति प्रयोग किया था , वह सब इन्द्रदेव को छू नहीं सके  साथ ही इन्द्र ने वृत्र की अन्य मायाओं को भी जीत लिया । । 

अहेयतारं मपश्य इन्द्र हदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवति च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजॉसि । । १४ । । *

 हे इन्द्रदेव ! वृत्र - हनन के समय जब आपके हदय में भय नहीं हुआ था, तब आपने किसी अन्य वृत्र -हन्ता की क्याप्रतीक्षा की थी ?निर्भक बाज पक्षी की तरह आप निन्यानवे नदियाँ और जल पार कर गये थे ।।

इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः ।सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ।।१५ ।।।।

शत्रु - विनाश के अनन्तर वज्र बाहु इन्द्रदेव स्थावरों , जंगमों , शान्त पशुओं और शृङ्गी ।पशुओं के राजा हुए इन्द्रदेव मनुष्यों में राजा होकर निवास कर रहे हैं जिस प्रकार चक्र की नेमि के चारों ओर उसके ' अरे ' होते हैं उसी प्रकार इन्द्र ने भी अपने बीच सबको धारण किया था.  

 (उपरोक्त व्याख्यान से साफ साबित होता है कि इन्द्र नामक आर्य नें सोमरस नामक मादक पदार्थ का खूब सेवन किया धनुष बाण और वज्र धारण किया तथा वृत्र नामक अनार्य सम्राट को किसी वृक्ष की तरह काट कर फेंक दिया तथा उसके बांधों को तोड़कर एकत्रित जल को बहा दिया,तथा उसकी संपत्ति को लूट कर आर्यों में बांट दिया-यहां लूट है मार है हत्या है विध्वंस है क्या यही है वेदों का ज्ञान और विज्ञान-सोचिये और जानिए-तथा अन्य अधिक जानकारी के लिए बने रहिये प्लेटफार्म पर-
  क्रमशः..
  ऋग्वेद भा-१-
   प्रष्ठ-७३-७४-७५.
      -------मिशन अम्बेडकर.
       

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वेदों का ज्ञान विज्ञान या अनार्यों का कत्लेआम,संहार ,और विध्वंस .?....

त्वमेतान्नुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे । अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वतः स्तुवतः शंसमावः । । ७ । । 

हे इन्द्रदेव ! आपने रोने या हँसने वाले इन शत्रुओं को समर में मार गिराया ,दस्यु वृत्र को दिव्य लोक से लाकर अच्छी प्रकार दग्ध किया इसी प्रकार सोम रस तैयार करने वाले प्रशंसक स्तोताओं की रक्षा की .

 चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न । ॐ हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण । । ८ । । 

उन वृत्रानुचरों ने पृथिवी को आच्छादित कर डाला , और सुवर्ण और मणियों से भी वे सम्पन्न हो ,परन्तु वे इन्द्रदेव को नहीं जीत सके ,इन्द्रदेव ने उन विघ्नकर्ताओं को सूर्य द्वारा तिरोहित कर डाला था .

परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्बह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र । । ९ । । । 

हे इन्द्रदेव ! चूंकि आपने महिमा - द्वारा धुलोक और पृथ्वीलोक को सम्पूर्ण रूप से वेष्टित करके सारा भोग किया ; इसलिए आपने मन्त्रार्थ - ग्रहण करने में असमर्थ यजमानों को भी रक्षा करने में समर्थ मन्त्रों द्वारा वृत्र - रूप चोर को निःसारित किया.

न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।युजं वज्र वृषभश्चक्र इन्द्रो निज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ।।१० ।।

जब दिव्य लोक से जल पृथिवी पर नहीं प्राप्त हुआ और धन - प्रद भूमि को उपकारी द्रव्य - द्वारा पूर्ण नहीं किया , तब वर्षाकारी इन्द्रदेव ने अपने हाथों में वज्र उठाया और द्युतिमान् वज्र - द्वारा अन्धकाररूप मेघ में पतनशील जल का पूर्ण रूप से दोहन कर लिया.

अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् ।सघ्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ।।११ ।।

प्रकृति के अनुसार जल बहने लगा ;किन्तु वृत्र नौकागम्य नदियों के बीच में बढ़ा तब इन्द्रदेव ने महाबलशाली और प्राण - संहारी आयुध - द्वारा कुछ ही दिनों में स्थिर - मना वृत्र का वध किया 

न्याविध्यदलीबिशस्य दृळ्हा वि भृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः ।यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ।।१२ ।।

गुफा की भूमि पर सोये हुए वृत्र की सेना को इन्द्रदेव ने विद्ध किया और श्रृंगी तथा जगच्छोषक वृत्र को विविध प्रकार से ताड़ना दी,
इन्द्रदेव आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रुसेना का संहार किया-

अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् ।सं वज्रणासृजद्वत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ।।१३ ।।

इन्द्रदेव का कार्य -साधक वज्र शत्रु को लक्ष्य कर गिरा था,इन्द्र ने तीक्ष्ण और श्रेष्ठ आयुध -द्वारा वृत्र के नगरों को विविध प्रकार से छिन्न - भिन्न किया,अन्त में इन्द्र ने वृत्र पर वज्र द्वारा आघात किया और उसे मारकर भली - भाँति अपना उत्साह बढ़ाया.

आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् ।शफच्युतो रेणुर्नक्षत _ द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ।।१४ ।।

हे इन्द्रदेव !आप जिस कुत्स ऋषि की स्तुति चाहते हो , उसी कुत्स की आपने रक्षा की थी आपके घोड़ों के सुमों से पतित धूलि द्युलोक तक फैल गई थी,शत्रु भय से जल में मग्न होकर भी चैत्रेय ऋषि ,मनुष्यों में अग्रणी होने की अभिलाषा से आपके अनुग्रह से बाहर निकल आये थे .

आवः शमं वृषभं तुझ्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छित्र्यं गाम् ।योक चिदत्र तस्थिवांसो अक्रज्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ।।१५ ।।।

हे इन्द्रदेव !सौम्य ,श्रेष्ठ और जल - मग्न वैयेत्र को क्षेत्र - प्राप्ति के लिए आपने बचाया था,वहाँ जलों में ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओं से युद्ध करते रहे,उन शत्रुओं को जल में गिराकर अपने मार्मिक पीड़ा पहुँचाई-

  ( ऋग्वेद की उपरोक्त विवेचना से आपनें देखा कि आर्यो के आक्रमणकारी इन्द्र नें किस तरह विध्वंसक उत्पात मचाकर भारतीय मुलनिवाशियों में कत्लेआम कर तबाही मचाई थी,तो क्या किसी राजा की हत्या कर देना ही वेदों का ज्ञान और विज्ञान है..?..तो क्या तमाम जनता की हत्या कर देना वेदों का ज्ञान और विज्ञान है.?..या फिर जीवन रक्षक जलसंचय के बांधो का विध्वंस कर संचित जल को फैलाकर नष्ट कर देना वेदों का ज्ञान और विज्ञान है..?.अथवा शहर के शहर तबाह कर खण्डहरों में बदल देना वेदों का ज्ञान और विज्ञान है-नहीं न,तो फिर क्या है .?.जाननें के लिए बने रहिये प्लेटफार्म पर ,दरअसल यहां वेदों में कोई ज्ञान और विज्ञान नहीं बल्कि आक्रमणकारी आर्य विदेशियों द्वारा भारतीय बहुजन मुलनिवाशियों के नरसंहार और उनके विध्वंस की काली कहानी छुपी है इन आर्यों के वेदों में ....जानिए...
    क्रमशः.....
   ऋग्वेद-भाग-1-
    प्रष्ठ -७६-७७
   -----------मिशन अम्बेडकर.
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सिंधुघाटी सभ्यता के विनाश की कहानी ऋग्वेदिक आर्यो की जुबानी-----ऋग्वेद के हवाले से--
विश्व की उत्कृष्ट सिंधुघाटी सभ्यता के विनाश का कारण ऋग्वेदिक आर्य थे जिसे आर्यों नें अपनें धर्मग्रंथ "वेदों" में लिखकर रखा हैं,आर्यों के वेद और कुछ नहीं बल्कि विदेशी आर्य और सिंधुघाटी सभ्यता के सृजनकर्ता अनार्य के बीच हुए नरसंहार और विध्वंस के लिखित दस्तावेज हैं आर्यो को डर था कि आने वाली सदियों में उनके इस कुकृत्य को कोई जान न जाय इसीलिये उन्होंने अन्य किसी को वेदों के पढ़ने पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया,वेदों का पन्ना पन्ना इस अमानवीय अत्याचार की खुली गवाही दे रहा है-जानिए कैसे-
 - वेदों में आर्य इंद्र के जिन विरोधियों का बार बार जिक्र किया गया है उन्हें दस्यु तथा दास कहकर संबोधित किया गया है,
आर्यो नें इन्ही सिंधुघाटी सभ्यता के मुलनिवाशियों दस्यु तथा दासों को लंबे संघर्ष के बाद उन्हें पराजित कर पूर्णतया नष्ट कर दिया गया और सिंधुघाटी सभ्यता को सदैव के लिये दफन कर दिया गया इसी दमनात्मक अत्याचार की कहानी आज भी वेदों में लिखित है-जानिए--
ऋग्वेद-V-29-10-
प्रन्यच्चक्रैमवृह: सूर्यस्य कुत्सात्यान्य 
द्वरिवो यातबैअक: !
अन्नासो दस्युवं रमृणो वधेनि दुर्योंण आब्रणाड़ मृघृवाच: !!
_अर्थात-है इंद्र तूने सूर्य के एक चक्र को पृथक किया तथा कुत्स को धन देने के लिए दूसरा चक्र बनाया,तूने छोटी नाक वाले दस्युओं को शस्त्र से मारा तथा संग्राम में बोलने वालों को भी मारा.(अनार्य द्रविड़ दस्युओं को वेदों में काले चपटी नाक वाले बताया गया है).
 --ऋग्वेद -lV- 16-13-
त्वं विप्ररुम मृगयं शूशुवान्स 
मृजिशवनेवैद्नाय रंधी: !
पंचाशत कृष्णा निवप: 
सहस्रसात्कम न पुरौ जरिमाविदर्द: !!
--अर्थात हे इंद्र विदथि के पुत्र ऋजिश्वी के लिए तूने विपरुम तथा अतिबलशाली मृगया को मारा,तूने पांच हजार काले वर्ण के असुरों को भी मारा,तथा जैसे लोग जीर्णशीर्ण कपड़ों को फाड़ डालते हैं उसी तरह तूने शत्रुओं के नगरों को तोड़ डाला.
--ऋग्वेद-l-138-8-
हे इंद्र तूने ज्ञानी मनुष्य के लिए नियम तोड़ने वाले को दण्ड दिया तथा काली त्वचा वाले शत्रुओं (दस्युओं) को विनष्ट किया.
--ऋग्वेद-Vll-5-3-
त्वद भिया विश आर्यन्नर्सिर्की रसमना जहतीर्भोजनानि !
वैस्वानर पूरवे शोशुचान: पुरो यदगनें दर्यन्नदीदै: !!
--अर्थात -है अग्ने-जब तूने पुरु राजा के लिए प्रज्वलित होकर शत्रु के नगरों को जला दिया,तो भयभीत हो शत्रु की काले रंग की प्रजा भोजनादि त्यागकर भाग उठी.
--ऋग्वेद-lX-41-1-
प्रये गावो न भूर्णा यस्तवेषा आयासो अक्रमु: !
घ्नंत: क्रभणामप त्वचम !!
--अर्थात हे-स्तोता-काले रंग के असुरों को मारकर विचरण करने वाले जल के समान द्रव्य तेजयुक्त निष्पन्न सोम की भली प्रकार स्तुति करो.
   इस प्रकार ऋग्वेदिक आर्यों नें अपनें शत्रुओं दस्यु और दासों को काले रंग का बताया है,ऋग्वेद में स्वयं लिखा गया है कि सोम,अदिति,इंद्र के आर्य अनुयायियों को सिंधुघाटी सभ्यता (भारत) के काले लोगों के साथ लड़ना पड़ा,यहां इससे एक बात और साफ हो जाती है कि नार्डिक आर्य गौर वर्ण के थे,जबकि अनार्य दस्यु तथा दासों का रंग काला था,यही वजह है ईरानियों नें भारत के लोगों को काला (हिन्दू) कहा है.
--ऋग्वेद-Vl-18-13-
व्यानवस्य तृतसवे गयं भा अंजेशम पुरं मृघ्रवाचं 
--अर्थात इंद्र नें अपनी शक्ति से दस्युओं के नगरों को तोड़ डाला और अनुपुत्र तुत्सु को दे दिया,इसलिए हे इंद्र हम पर अब ऐसी कृपा करो कि हम इन मृघृवाचों पर विजय पा सकें.
--ऋग्वेद-X-12-8-स्पष्ट कहा गया है,कि हम दस्युओं के बीच रहते हैं ये दस्यु यज्ञ नहीं करते,और किसी में भक्ति नहीं रखते,इनकी रीतियाँ ही प्रथक हैं,ये मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं,इसलिए शत्रुओं का नाश करने वाले हे इंद्र इनका नाश कीजिये-
   (यहां यह बात ध्यान देने वाली है कि नार्डिक आर्यों नें सिंधुघाटी सभ्यता के अनार्यो को मृघ्रवाच भाषा वाला बताया है यह वही द्रविण भाषा है जो आर्यो के समझ में नहीं आती थी).
 जिस प्रकार उत्तर भारत की आर्य भाषाओं का संबंध हिंदी,
पंजाबी तथा बंगाली से है ठीक उसी प्रकार दक्षिण भारत की द्रविण भाषाओं तमिल,मलयालम,तथा कन्नड़ आदि का सम्बंध उस भाषा से है,जो सिंधुलिपि में लिखी जाती थी,इस हकीकत नें सारी दुनियाँ को हकीकत में डाल दिया और बतला दिया कि सिंधुघाटी सभ्यता के सृजन में जिन लोगों का हाथ था,वे आज के द्रविणो के ही पूर्वज द्रविण थे,जिनका रंग काला,छोटा कद,
घुंघराले बाल,छोटी चपटी नाक तथा वे आर्यों द्वारा न समझी जाने वाली द्रविण भाषा बोलते थे,जिनका दस्यु तथा दासों के रूप में ऋग्वेद में बार बार वर्णन आया है,जिनका आर्यों के साथ लगातार युद्ध हुआ था---क्रमशः--
   सिंधुघाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक-
पृष्ठ--57-58-59-60. 
      


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अहं पुरो मंदसानो व्यैरं नव साकं नवतीः शम्बरस्य

शततम वेश्यं सर्वताता दिवोदास मतिथिग्वं यदावम .

ऋग्वेद की एक बानगी, चतुर्थ मंडल, सूक्त 26 (3 )
(सोमरस पी मतवाला हो कर मैंने शम्बर असुर के निन्यानबे नगरों को एक ही साथ नष्ट कर दिया है। यज्ञ में अतिथियों का स्वागत करने वाले दिवोदास को मैंने सौ सागर दिए हैं।)

वेद दुनिया की संभवतः पहली किताब है। हिन्दुओं ने इसे धर्म-ग्रन्थ के रूप में अपनाया है और कुछ लोगों ने इसे जादुई तरीके से सहेज कर तीन हजार से भी अधिक वर्षों से रखा हुआ है। यह संस्कृत भाषा में है, और कोई खास इंसान इसका रचनाकार नहीं है। इसे अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा रचित नहीं) कहा गया है। 

अनुमान है कि इंडो-ईरानी आर्यों के द्वारा इसकी रचना ईस्वीपूर्व 1500-1000 के बीच, एक दीर्घ कालखंड में क्रमशः की गयी है। लम्बे समय तक यह श्रुति रूप में रहा, अर्थात इसे लिपिबद्ध नहीं किया गया। 

यह नहीं माना जाना चाहिए कि इस बीच लिपि नहीं थी। लेकिन जिन खास लोगों की यह थाती थी, उन्होंने कदाचित इसे गोपनीय बना कर रखना अधिक आवश्यक समझा।

 लिपिबद्ध कर देने और ग्रन्थ रूप दे देने से इसके सार्वजनिक हो जाने का ‘खतरा ‘ था और इसके रचयिता लोग, तथा उनका परिमंडल, जिनका धीरे-धीरे एक वर्ग बन गया, इसके सार्वजनिक करने के पक्ष में बिलकुल नहीं था। 

उनके अनुसार हर कोई इसका पाठ करता, तो पाठ के भ्रष्ट होने का भय भी था, इसलिए कोई ‘कुपात्र ‘ इसका पाठ न कर सके, इसकी भरपूर कोशिश उनके द्वारा की गयी। यह और कुछ नहीं ज्ञान-सम्पदा पर एकाधिकार की कोशिश थी,

 और इस प्रवृत्ति की जड़ें संभवतः कबायली संस्कृति में थी। अंततः यह कोशिश ही हास्यास्पद हो कर रह गयी। छुपाव की इन कोशिशों ने वेद को एक रहस्य बना कर रख दिया, हालांकि रहस्य जैसा इसमें कुछ था नहीं। कुल मिला कर एक भयग्रस्त समाज का मनोविज्ञान ही इससे प्रतिबिम्बित होता है।

 इसके रचनाकारों ने अपने जानते, योग्य लोगों के बीच इसे रखा, और उन योग्य लोगों ने भी इसे चुने हुए लोगों के बीच ही बनाये रखा। पहले ये आर्यजन थे, फिर ब्राह्मण हो गए। इसे लोग एक दूसरे से सुन कर कंठाग्र कर लेते थे और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी सम्प्रेषित करते रहते थे। यह एक जटिल, लेकिन अचरज भरा काम था।

 सब से अधिक हैरानी इस बात पर होती है कि तीन हजार से अधिक वर्षों तक इस रूप में यह बना रहा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसको ग्यारहवीं सदी के बाद ही लिपि दी गयी अर्थात ग्रंथन हुआ। 

दामोदर धर्मानंद कोसंबी तो इसे चौदहवीं सदी में लिपिबद्ध हुआ स्वीकारते हैं।

 पश्चिमी जगत से इसके परिचय का श्रेय जर्मन विद्वान मैक्स मूलर.को है, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ऋग्वेद का सम्पादन कर प्रकाशित करवाया।

वेद संस्कृत भाषा का शब्द है और बताया जाता है इसका संबंध ‘विद ‘ धातु से है, जिसका अर्थ है जानना, या ज्ञान। वेद कुल चार अलग-अलग ग्रंथों या संकलनों में हैं। ये हैं – ऋग, यजुर, साम और अथर्व। ऋग सबसे प्राचीन वेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार वेद असल में तीन ही हैं, इसीलिए इन्हें त्रयी भी कहा गया है। चौथा वेद ‘अथर्व’ इस श्रृंखला में बाद में जोड़ा गया है। 

वेदों को श्रुति कहा गया है। श्रुति का अर्थ है इसे सुना गया है। किससे सुना गया?  किसी लौकिक पुरुष से नहीं। 

यदि वेदों का ग्रंथन और परिमार्जन ग्यारहवीं सदी के बाद हुआ, तब इस बात पर भी विचार करना होगा कि यह श्रुति वाला रूप कहीं तुर्कों के आने के बाद इस्लाम की देखा-देखी तो नहीं हुई। 

क्योंकि इस्लामिक धर्मग्रंथ कुरान ऐसी ही अपौरुषेयता का दावा करता है, जिसमें ईश्वर के सन्देश वह्य रूप में उतरे हैं। 

वेदों का पाठ रूप ऐसा है कि बाहर से सुनी गयी किसी बात का बोध होता नहीं दीखता। बल्कि बार-बार ऋषि ही देवताओं को सम्बोधित करता है। 

इसलिए इसकी अपौरुषेयता थोपी गयी प्रतीत होती है। 

प्राचीन बाइबिल या कुरान के मुकाबले वेद वैदिक ऋषि अपौरुषेयता का कोई दावा नहीं करते, क्योंकि यहां कोई शक्तिमान ईश्वर नहीं,
 
बल्कि अनेक की संख्या में वे देवता हैं, 
जिनकी कृपा के ये ऋषि आकांक्षी हैं। 

इन ऋषियों ने स्वयं को कोई श्रेय नहीं दिया, यह उनकी उदारता और संवेदनशीलता थी। 
इन रचनाकारों ने स्वयं को ‘स्रष्टार’ या ‘कर्तार’ न कह कर ‘द्रष्टार’ कहा। वे, बस, देखने वाले थे, रचने और करने वाले नहीं।

 अपनी इन पंक्तियों को जिन्हें ऋचा कहा गया है, उन्होंने सहेज कर रखा। योग्य पात्रों को सोमरस की घूँटों के साथ इसे सुनाया और कंठाग्र करा दिया। आरंभ में तो लिपि थी या नहीं, यकीनी तौर पर कहना मुश्किल है, लेकिन जब लिपि आई भी तब इसे लिपि बद्ध करने से क्यों रोका गया अपने आप में सवाल खड़ा करता है। 

 ऋग्वेद सब से पुराना वेद है। अपनी संरचना में यह दस मंडलों में विभक्त है। प्रत्येक मंडल में नियत सूक्त हैं और ये सूक्त ऋचाओं या मंत्रों से मिल कर बने हैं। प्रथम मंडल में 191, द्वितीय में 43, तृतीय में 62, चतुर्थ में 58, पंचम में 87, षष्टम में 75, सप्तम में 104, अष्टम में 92, नवम में 114 और दशम में 191 सूक्त हैं। इस तरह कुल सूक्तों की संख्या 1017 है। (आधार-ऋग्वेद, संपादक, डॉ. गंगासहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली) 

कतिपय विद्वानों के अनुसार दूसरा से लेकर सातवां मंडल तक सबसे प्राचीन अंश हैं। इन्हे ‘कुल-मंडल’ कहा जाता है। पहला, आठवां, नवां और दसवें मंडल को बाद में जोड़ा गया है। प्रथम और दशम मंडल में सूक्तों की संख्या एक समान है। सभी मंडलों का हर सूक्त किसी न किसी देवता को समर्पित है। अग्नि, इंद्र से लेकर मंडूक (मेढ़क) तक देवताओं की कोटि में हैं। अग्नि और इंद्र ऋग्वेद के सबसे प्रभावी देवता हैं। 295 सूक्तों में इंद्र और 223 में अग्नि की वंदना की गयी है। 

केवल नवम मंडल ऐसा है, जिसमें इंद्र या अग्नि की वंदना नहीं है। यहां केवल सोम देव् का वर्चस्व है। कुल-मंडल यानि द्वितीय से लेकर सप्तम मंडल की विशेषता है कि एक देवता को समर्पित ऋचा-समूह को घटते हुए छंद-संख्या के अनुसार सजाया गया है। ऐसा अन्य मंडलों में नहीं हुआ है। यही इस बात का द्योतक है कि सभी मंडलों की रचना एक ही काल-खंड में नहीं हुई है। 

इसमें सुविन्यास को ही आधार बनाया जाय, तो कहा जाना चाहिए कि कुल-मंडल ही बाद की रचना है। 

क्योंकि प्रायः बेहतर चीजें कुछ अभ्यास के उपरांत ही आती हैं। इस आधार पर प्रथम, अष्टम, नवम और दशम मंडल भी पुरातन हो सकता है। ऋग्वेद में कई कथात्मक उल्लेख हैं। उदाहरण के लिए दशम मंडल में यम-यमी संवाद (सूक्त 10), इंद्र व उनके पुत्र वासुकि ऋषि का संवाद (सूक्त 27, 28), पुरुरवा-उर्वशी संवाद (सूक्त 95 ) नचिकेता-यम संवाद (सूक्त 135) आदि। इस तरह का संवाद सरल समाज में संभव नहीं है। इनसे ऋग्वैदिक-दुनिया का पता चलता है।

अपने क्रम में यजुर दूसरा वेद है, जिसमें यज्ञों के विधि-विधान हैं, तीसरा सामवेद-ऋग्वैदिक छंदों का संकलन है और चौथा अथर्व-वेद जादू-टोने से भरे मंत्रों की पिटारी है। अतएव कहा जाना चाहिए ऋग्वेद ही मूल और वास्तविक वेद है .

हम यहां वेद की चर्चा धार्मिक अर्थों में नहीं, बल्कि इतिहास के अर्थों में कर रहे हैं, क्योंकि एक निश्चित काल-खंड की यह विश्वसनीय इतिहास-सामग्री है( जैसे सिंधु-सभ्यता की कहानी उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य देते हैं, वैसे ही अपनी भाषा में छुपाये अपने समय की कहानी वेद हमें बता जाता है। 

वैदिक ऋषियों का पूरा परिवेश, उनके मन-मिजाज, प्रेम-विरह सब इससे उझकते हैं। ‘ऋग्वेद’ और ईरानी धर्मग्रन्थ ‘जेंद-अवेस्ता’ की भाषा, कुछेक शब्द और देवता इतने मिलते-जुलते हैं कि यह साफ़ तौर से पता चलता है कि ईरान, जो अपने मूल में सम्भवतः आर्यान है, 

 इससे यह बात साबित होती है  की  आर्य लोग और वैदिक-जन कभी एक साथ रहे होंगे।  

दोनों ग्रंथों में अग्नि, इंद्र, वरुण आदि देवता हैं। 

ईसा पूर्व छह सौ के आस-पास जब जरथ्रुष्ट ने अपने विचारों से ईरानी देवताओं को विनष्ट कर डाला, तब भी अग्नि वहां रह गया, जो आज भी वहां पारसियों का मुख्य देवता और उनकी संस्कृति का मूल बना हुआ है।

 वैदिक संस्कृति के लिए भी अग्नि प्रधान देवता है। कोई भी वैदिक यज्ञ आज भी अग्नि के बिना पूरा नहीं हो सकता। 

जबकि इंद्र अपना महत्व कब का खो चुका है। ऋग्वेद में पर्जन्य वर्षा के देवता हैं। लेकिन इंद्र भी अनेक दफा वर्षा-देवता के रूप में चिन्हित किये जाते हैं। 

आज भी ग्रामीण चेतना में कई जगह वह वर्षा का देवता बना हुआ है। कुछ-कुछ आज के सिंचाई मंत्री जैसा। वर्षा के न होने पर ग्रामीण स्त्रियां इंद्र को रिझाने के लिए समूह गीत चौहट गाती हैं।

वैदिक ऋषि कुल मिला कर विलक्षण थे। उनकी आध्यात्मिकता ज्ञान-केंद्रित थी। अग्नि और इंद्र के भरोसे उनकी दुनिया थी। 
अग्नि और इंद्र – जो अंततः वर्षा का देवता बन गया था, ही उनकी वैदिक संस्कृति के आधार थे। 

भाषा पर भी उनका जोर था। इसकी मीमांसा करें, तो वैदिक ऋषियों की मेधा का पता चलता है। आग और पानी ऊर्जा के आदि स्रोत हैं और फिर व्यक्ति या पुरुष-चेतना का केंद्र भाषा है। ऊर्जा अथवा शक्ति के इन तीनों आधार तत्वों पर उनका जोर यह बताता है कि इंसान को इसके बाद सोमरस के अलावा और क्या चाहिए। 

बीसवीं सदी के रूसी बोल्शेविक नेता लेनिन समाजवाद का अर्थ बतलाते थे – बिजली जोड़ पानी बराबर समाजवाद। बिजली यानी मूल में अग्नि। हजारों साल की दूरी के बावजूद अपनी चेतना में ये दोनों कितने करीब लगते हैं!

वैदिक ऋषि आज के तथाकथित वैदिक जनों की तरह तंगदिल नहीं थे। हां ,लड़ाई-झगड़ों में उनकी दिलचस्पी दिखती है, क्योंकि सिंधु अथवा हिन्दू पणि-जनों से वे बहुत भय खाते थे। यह पणि समुदाय हड़प्पाकालीन सभ्यता से विकसित व्यापारी समुदाय था, 

जो इन झगड़ालू और उत्पाती-प्रवृत्ति के आर्यजनों से अपनी ‘मातृ-भूमि’ को बचाना चाहते थे।

 इनके अलावा असुर अथवा दस्युजन और दास-जन थे जिन्होंने इस भूमि को, चाहे इसका जो भी नाम हो ,अपनी मिहनत से संवारा था। वे यहां के वासी थे। यह उनकी मातृभूमि थी। इन दास और दस्यु जनों को अलग-अलग और एक भी माना गया है। यह तय करना मुश्किल है कि असलियत क्या है। 

अलग मानने वालों का कहना है कि दासों का संबंध ईरानी मूल से है, लेकिन दस्यु मूल भारतीय हैं। लेकिन आर्यों के आने तक दोनों मिल कर एक हो गए होंगे, ऐसी ही उम्मीद है। जैसा कि पहले ही बतला चुका हूं कि इसका कारण इनके जीवन में आर्यों का हस्तक्षेप होगा।

स्वाभाविक है कि इन आर्यजनों से भारतीय समाज में सामाजिक अव्यवस्था होती होगी। वैदिक ऋषि अपने देवता इंद्र को अपने शत्रुओं से लड़ने के लिए लगातार उत्साहित करते हैं। 

ऐसे मंत्रों की ऋग्वेद में भरमार है जो इंद्र को सम्बोधित हैं और उनसे पणि जनों और दस्यु जनों से लड़ने की प्रार्थना करते हैं। ऋषियों को अपने कुल या गिरोह के इस योद्धा पर कुछ अधिक ही गुमान था। इंद्र की ताकत का बखान करने में वे अपनी भाषा की पूरी ताकत लगा देते थे। 

उनका पेय सोमरस जिस पर वे और उनके देवता फ़िदा रहते थे, उनका दूसरा आकर्षण था। पूरा नवम मंडल सोमदेव की स्तुति से भरा पड़ा है। 

दशम मंडल का 175वां सूक्त तो सोमरस निचोड़ने वाले पत्थर (यानि लोढ़े ) को समर्पित है।

 उसकी देवता के समान स्तुति की गयी है। इस से इस बात का तो पता चलता है कि सोम कोई वनस्पति है , जिसे पत्थर से चूर कर उसका अर्क या रस लोग निकालते रहे होंगे और उसका पान करते होंगे। लेकिन इस नाम की कोई वनस्पति आज नहीं मिलती। 

संभवतः यह भांग (केन्नाईबस सटाइबा) हो, या न भी हो। किन्तु इतना तय है कि यह ताड या खजूर से निकलने वाला पेय मैरेय (ताड़ी ) तो नहीं ही है; क्योंकि फिर इसे पत्थर से निचोड़ने का प्रसंग नहीं होता। 

कुछ विद्वानों ने इसे इफिड्रा नामक एक वनस्पति बतलाया है, जिसकी पत्तियां नहीं होतीं। और यह एशिया तथा यूरोप के कई देशों में पाया जाता है। ईरान में पारसी लोग इसी का उपयोग होम पेय बनाने के लिए करते थे। 

यह होम संभवतः सोम ही है। इसलिए इफिड्रा से सोम का एक सेतु बनता है। इफिड्रा में पाया जाने वाला इफिड्रिम मनुष्य के तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है, नशा देता है। इसलिए संभव है कि यही सोम हो। लेकिन भारत में इफिड्रा की प्रजाति नहीं मिलती। इसलिए भांग पर ही सोम की संभावना टिकती है। यह भांग आज भी पौराणिक देवता शिव को अर्पित किया जाता है और मंदिरों में भी इसका उपयोग वर्जित नहीं है।

वैदिक आर्य सिन्धुओं या हिन्दुओं की तरह व्यवस्थित जीवन जीने के आदि नहीं थे। उनकी यायावरी वृत्ति अभी ख़त्म नहीं हुई थी, हालांकि अब वे धीरे-धीरे व्यवस्थित कृषि से जुड़ने लगे थे, लेकिन नगरीय जीवन के कोई संस्कार या रूचि उनमें अब तक विकसित नहीं हुए थे। 

लेकिन वहां कोई महाकाव्यात्मक आख्यान नहीं है कि हम सिन्धुवासियों  के समाज की बातें भी जान सकें। ऋग्वेद आर्य समाज की एकतरफा कहानी सुनाने के लिए अभिशप्त है। 

इसलिए शेष समाज की कहानी हमें अन्य स्रोतों से ढूंढनी होगी। इसके लिए कुछ पौराणिक कथाओं का भी हम सहारा लेते हैं। लेकिन अथर्व वेद में हम केवल आर्य जनों को ही नहीं देखते हैं। यहां गैर आर्यों की उपस्थिति भी हम महसूस कर सकते हैं। 

ऐसा प्रतीत होता है अब तक .सिंधु अर्थात हिन्दू और आर्य जनों की एकता कुछ अंशों में विकसित हो गयी थी। धीरे-धीरे आर्यजन सिंधु हिन्दू समाज में समाहित हो गए। 

उन्होंने सिंधु हिन्दू संस्कृति को आत्मसात कर लिया। अपनी कई चीजें छोड़ दीं। कुछ चीजें यहां के लोगों ने उनसे सीख ली। अब वे पूरी तरह सिंधु हिन्दू हो गए। यहां की नदियां, यहां के पहाड़, वनस्पतियां, पेड़-बाग, चिड़ई-चुरमुन, बहुत सारे शब्द और देवता भी उन्होंने अपना लिए। 

उनकी कुछ चीजें यहां के लोगों ने अपना ली। यह दो बड़ी संस्कृतियों का मिलन था। किसी का एक दूसरे के प्रति समर्पण नहीं था। आर्यों ने अपने घोड़ों पर  अनार्य को घुमाया और अनार्य ने आर्यजनों को अपनी गैया का मीठा दूध पिलाया। हालांकि यह सब ऊपरी स्तर पर ही हुआ।

यह जटिलता उनकी सभ्यता में उत्पादन और व्यापार से विकसित हुआ था। नगरीय व्यवस्था में अतिरिक्त उत्पादन पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो गयी थी और वहां व्यापारियों और पुरोहितों का एक वर्ग भी विकसित हो गया था, ऐसा लगता है। 

इस तरह कहा जाना चाहिए कि आर्य पूर्व में तीन तबके तो बन ही चुके थे। एक सामान्य जन जिनमें किसान, मजदूर और कारीगर थे। दूसरे पणि – यानि वणिक – व्यापारी और तीसरे पुरोहित। ऐसा प्रतीत होता है सिंधु समाज में ही इन पुरोहितों को ब्राह्मण कहा जाने लगा था। रावण और शुक्राचार्य असुर है, लेकिन ब्राह्मण भी हैं। 

आर्यों के यहां जम जाने के बाद अनार्य और आर्यों के पुरोहितों में संभवतः एका हुआ और दोनों ने एक दूसरे से ज्ञान संबंधी लेन-देन की। देवताओं अथवा आर्यों के गुरु वृहस्पति के बेटे कच के असुर-गुरु शुक्राचार्य के यहां ज्ञान हासिल करने हेतु जाने की कथा ऐसी ही संभावनाओं को रेखांकित करता है।

जब आर्यों ने अपने समाज को श्रेणी विभाजित किया तो वह वर्ण-व्यवस्था बन गया। यह इसलिए हुआ कि रंग और नस्ल के आधार पर वर्चस्व दिखाने की एक प्रवृति विकसित हुई, जो नयी चीज थी। इसलिए वर्ण-व्यवस्था में धन और ज्ञान की जगह नस्ल और रंग को प्रधानता दी गयी। 

ऋग्वेद के दशम मंडल में अचानक 90वां पुरुष सूक्त आ जाता है। इसी सूक्त के पुरुष को समर्पित 12वीं ऋचा में चार वर्णों की बिना किसी भूमिका के चर्चा की गयी है। 

आर्य जनों के यहां वृहद-स्तरीय उत्पादन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी। आर्थिक तौर पर वह एक पिछड़ा हुआ फटेहाल समाज था, जो तब भी अपने मूल रूप में पशुचारक था। ऐसे समाज में श्रेणी विभाजन केवल रंग, नस्ल, भाषा और आचार-व्यवहार के आधार पर ही संभव था।

जैसे मध्य-काल में हिन्दुओं की देखा-देखी मुस्लिम-समाज में अशरफ, अरजाल और अजलाफ की श्रेणियां बन गयीं। यह श्रेणी विभाजन इस्लाम के धार्मिक-सामाजिक तहजीब से मेल नहीं खाता। ठीक वैसे ही पुरुष सूक्त का वर्ण-विभाजन ऋग्वेद के पाठ से मेल नहीं खाता।

ऋग्वैदिक आर्यों के सामाजिक जीवन और उनके भौगोलिक क्षितिज के बारे में बहुत से विद्वानों ने लिखा है और कुल मिला कर वे इसी नतीजे पर पर आये कि ऋग्वैदिक जीवन भी सिन्धुवासियों की तरह पंजाब के इलाके में बसे और उन नदियों से ही जुड़े जिनसे सिन्धुवासी जुड़े थे। 

आर्यों के आने तक यह इलाका संभवतः मुर्दों का टीला बन चुका था। बहुत हद तक वीरान और भुतहा-सा रहा होगा। यहां पैर जमाने में इन्हे कोई खास परेशानी नहीं हुई होगी। 

यहां से पूर्व की तरफ बढ़ते ही सिन्धुवासियों से उनकी तकलीफदेह मुठभेड़ होने लगी। आर्य और अनार्य अथवा देव् और असुर का संघर्ष आरम्भ हो गया, जो लम्बे समय तक चला। 

देवताओं यानि आर्यों को अपने एकमात्र नायक इंद्र का भरोसा था, जिसने सेना तो नहीं, एक छोटा-मोटा गिरोह जरूर बना लिया था। 

ऋग्वैदिक स्रोतों के आधार पर यह तय करना संभव नहीं है कि युद्ध में हमेशा इंद्र ही जीतता रहा होगा। हालांकि ऋषियों ने अपने कुनबे की पराजय का कोई बखान नहीं किया है, लेकिन उनके भय कई रूपों में प्रकट हुए हैं। 

ऋग्वैदिक आर्य यहां के मूल निवासियों यानि अनार्य से अभी दूरी बना कर रखते प्रतीत होते हैं। उनके ग्राम आस-पास होते होंगे, लेकिन एक ही ग्राम में दोनों रहते हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। 

हालांकि रहने-सहने के विधि-विधान, भाषा और तकनीक दोनों एक-दूसरे से सीख रहे थे। सांस्कृतिक स्तर पर दोनों एक-दूसरे के करीब आ रहे थे। लेकिन दोनों में अंतर भी था, जो किसी को भी दिख सकता है। 

इन दिनों दोनों ग्राम में रहते थे और परिवार व विवाह संस्था दोनों समाजों में थे। आर्यों और अनार्य के गांव आपस में टकराते थे तो इसे संग्राम (दो गांवों का मिलन अर्थात युद्ध) कहा जाता था।

 ऐसे संग्राम तब तक होते रहे जब तक दोनों लड़ते-लड़ते थक नहीं गए और एक ही साथ रहने नहीं लगे। इस तरह साथ रहने के लिए इन दोनों ने राम और कृष्ण का इंतज़ार नहीं किया, जैसा कि सावरकर ने राम की कथा के द्वारा अनार्यों के समर्पण की बात बताई है। दो संस्कृतियों के महामिलन यानि फ्यूज़न को किसी एक का समर्पण नहीं कहा जा सकता।

दो संस्कृतियों के परस्पर लय-विलय के कुछ चिह्न ऋग्वेद में यूं ही मिल जाते हैं। इंडो-ईरानी लोग जिस स्थान से भी भारत की दिशा में चले होंगे, वहां की उनकी जीवन शैली और भाषा के बहुत से तत्व उनके साथ आये होंगे। लेकिन वे सभी वनस्पतियां और पशु तो साथ लाना संभव नहीं हुआ होगा। 

घोड़े उनके साथ थे, इसकी सूचना मिलती है। रथ और उसकी तकनीक भी उनके साथ होगी, इसका अनुमान है। लेकिन क्या गाय उनके साथ उसी तरह आयी, जैसे घोड़े? क्या गाय इंडो-ईरानी लोगों के जीवन में थी? शायद नहीं। गाय और घोड़े का साथ आना किसी जमात के साथ संभव तो नहीं ही दीखता, 

यूं भी अनुमान किया जा सकता है किसी लड़ाकू दल के साथ गाय नहीं हो सकती। गाय सिन्धुवासियों के जीवन में महत्वपूर्ण रूप से थी। खास कर इसके बैल से सिंधु-हिन्दू लोग वही काम लेते थे, जो काम घोड़े से आर्य लेते थे। इसलिए ऋग्वेद में गाय का महत्वपूर्ण होते जाना उस संस्कृति पर हिन्दू-दास संस्कृति के बढ़ते प्रभाव की सूचना देता है। 

निश्चित ही चालाकी दोनों ओर से होती होगी, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हिन्दुओं की सभ्यता अब भी आर्यों से कहीं अधिक विकसित थी। यही कारण था कि दस्यु और दास-समाज से नफरत होने के बावजूद आर्य संस्कृति पर उनके (दासों के) प्रभाव को वे रोक नहीं सके। 

गौ, गोष्ठी, गवेषणा, गोत्र जैसे शब्द आर्यों के ही थे यह कहना मुश्किल है। निश्चित ही गाय से सिन्धुवासी भी परिचित थे और ऐसा लगता है उससे जुडी बहुत सी बातें दोनों संस्कृतियों में थी। कृषि मामले में भी सिंधु वासी आर्यों से कहीं आगे थे। 

आर्यों ने इस क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य किया हो, इसके कोई प्रमाण नहीं हैं।

 इंद्र या पुरंदर सामरिक कारणों से नदियों के बांध को ध्वस्त करते थे, इसकी सूचना तो मिलती है, उन्होंने सिंचाई के लिए कोई बांध भी निर्मित किया इसकी कोई सूचना नहीं है।

 कालांतर में आर्यों ने सिन्धुवासियों की कृषि संबंधी कई तकनीक को आत्मसात कर लिया। रामशरण शर्मा अर धातु को आर्य का मूल मानते हुए इसे कृषि से जुड़ा मानते हैं। लेकिन अर का कृषि से क्या संबंध है, उन्होंने नहीं स्पष्ट किया है।

 किसी जाति-समूह की संज्ञा दूसरे लोग तय करते हैं। अर का संबंध संभवतः उनके रथ के चक्के में लगे अर, जिससे चक्का तकनीकी स्तर पर एक कदम आगे बढ़ कर चक्र हो गया और अपेक्षाकृत अधिक हल्का होने के कारण अधिक गति देने लगा, से है। संभव है, ऐसे रथों के आविष्कार के कारण इंडो-ईरानी लोगों की ताकत बढ़ गयी और दूसरे जन समूहों में उनका कुछ दबदबा भी बढ़ गया। इस रूप में अन्य लोग इंडो-ईरानी समूह आर्य कहने लगे हों, ऐसा संभव है।

आर्यों का भाषा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान अवश्य दिखता है। मैंने पहले ही बतलाया है कि आर्यों की ऊर्जा के प्राथमिक स्रोतों को समझने में दिलचस्पी थी। भाषा को इन लोगों ने इसी रूप में लिया। 

आर्यों के पुरोहित तबके का सिन्धुवासियों के पुरोहित तबके से जब साझा हुआ, तब एक बात पर दोनों सहमत थे कि शारीरिक श्रम से कैसे बचा जाय। 

श्रेणी विभाजन और वर्ण विभाजन की भी मुख्य बात शारीरिक श्रम से पुरोहित और ब्राह्मण लोगों की दूरी थी। पुरोहित तबका कोई शारीरिक श्रम नहीं करता। इसे हेय कहा गया है, शूद्रों का काम है यह।

 शारीरिक श्रम नहीं करने वाला तबका मानसिक श्रम करता है। मानसिक श्रम से भाषा, गणित, दर्शन आदि का विकास तो होता है, कृषि और उद्योग का विकास नहीं होता। इसलिए कि कृषि और उद्योग में शारीरिक श्रम की आवश्यकता प्राथमिक स्तर पर होती है। भारत में पुरोहितवाद जैसे-जैसे मजबूत होता गया भाषा और गणित में तो उन्नति हुई, तकनीक के क्षेत्र में यह पिछड़ने लगा। 

सिन्धुवासियों और आर्यों के पुरोहित तबके के एक समूह ने भाषा की कारीगरी पर स्वयं को समर्पित कर दिया। नतीजतन संस्कृत जैसी भाषा बनी, जिसमें दोनों संस्कृतियों का योगदान है। संस्कृत का लोक से उन दिनों भी जुड़ाव नहीं था जब यह रची-बनी गयी थी। यह पुरोहितों की, पुरोहितों द्वारा पुरोहितों के लिए संस्कार की गयी एक जुबान थी, जो चाहे जितने भी काम की हो, कुछ लोगों की ही थी। 

हड़प्पा के पुरोहितों ने जैसे अपने सिटाडेल को ऊँचे दुर्ग से घेर कर विशिष्ट और पृथक कर लिया था, संस्कृत भाषा को भी कर लिया। सब लोग न संस्कृत पढ़ सकते थे, न ही वेद। सामान्य जनता से इसकी दूरी बढ़ती चली गयी। भले ही उसके निर्मित शब्दों से ही इस भाषा के मीनार खड़ी हुई हो। इतिहासकार उपिंदर सिंह के अनुसार, “ऋग्वेद में प्रायः 300 शब्द ऐसे हैं जो स्पष्ट रूप से इंडो-यूरोपियन भाषा समूह के बाहर से लिए गए हैं। 

उधार के लिए इन शब्दों के आधार पर सोचा जा सकता है कि ऋग्वैदिक लोगों का द्रविड़ तथा मुंडा भाषी लोगों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो रहा था। ऋग्वेद में चुमुरि, धुनि, पिप्रु और शम्बर जैसे जनों की चर्चा है, जो निश्चित रूप से इंडो-आर्य नाम नहीं है। कुछ ऐसे आर्यों के भी नाम हैं जो स्पष्ट रूप से आर्येत्तर प्रतीत होते हैं – जैसे बलबूथ तथा वृवू। यह सब सांस्कृतिक आदान-प्रदान के परिचायक हैं।”

फिर अनार्य के वंचित जनसमूह के बीच से उभर कर एक ऐसा सांस्कृतिक दस्ता आया, जिसने इसका विरोध आरम्भ कर दिया। मैंने पहले ही कहा है कि हम इसे धार्मिक ग्रन्थ नहीं मान कर एक ऐतिहासिक स्रोत के के रूप में देख रहे हैं।

मूत्र द्वार।

तेरे मुत्र द्वार को में खोल देता हूं जैसे झिल का पानी बन्ध को खोल देता है । तेरे मूत्र मार्ग को खोल दिया गया है जैसे जल से भरे समुद्र का मार...